पिछले दिनों ब्लूमबर्ग न्यूज़ ने एक खबर दी- चीन में लोगों की ओर से पहन कर छोड़ दिए गए 2 करोड़ 60 लाख टन कपड़े उसके लिए भारी मुसीबत बन गए हैं. हर साल पांच अरब टी-शर्ट बनाने वाले इस देश में पुराने कपड़े पर्यावरण के लिए चुनौती बनते जा रहे हैं. इसी सप्ताह रॉयटर्स की एक खबर ने बताया कि चीन में हाल में लुई विटौं, गुच्ची समेत कुछ बड़े लग्जरी ब्रांड के सेकेंड हैंड प्रोडक्ट बेचने के लिए कई साइटें शुरू हुई हैं लेकिन इन्हें स्ट्रगल करना पड़ रहा है. इन दोनों खबरों के बीच एक तीसरी खबर भी आई, जिसने यह बता कर दुनिया को चौंका दिया कि जुलाई-सितंबर तिमाही में चीन की इकॉनोमी 4.9 फीसदी की दर से बढ़ गई.
अमेरिका से ट्रेड-वॉर शुरू होने के बाद से लगातार चीन की इकोनॉमी का मर्सिया पढ़ रहे लोगों को कोरोना काल में इसके इस ग्रोथ ने झटका दिया है. राष्ट्रपति चुनाव के दौरान जूतम-पैजार में लगे अमेरिकी नेता भी चीन के इस चमत्कार को मुंह फाड़े देख रहे हैं. उन देशों के भी चेहरे उतरे हुए हैं, जो चीन की ‘चौधराहट’ का हवाला देकर वहां काम कर रही मल्टीनेशनल कंपनियों को अपने यहां बुलाने के मंसूबे बांध रहे हैं.
रंग ला रही ‘डुअल सर्कुलेशन’ पॉलिसी
चीन में पहन कर छोड़े गए कपड़ों का पहाड़ खड़ा होना, सेकेंड हैंड लग्जरी गुड्स बेचने वाली कंपनियों का मार्केट में बने रहने का लिए जद्दोजहद करना और वर्ल्ड इकोनॉमी के इस बेहद खराब दौर में चीनी इकोनॉमी का इतना अच्छा कर दिखाना- ये सब कुछ एक डोर से बंधा है. और इस पूरी डोर का सिरा जुड़ा है चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की उस स्ट्रेटजी से, जिसे ‘डुअल सर्कुलेशन’ पॉलिसी कहा जा रहा है. ‘डुअल सर्कुलेशन’ का एक हिस्सा है इंटरनल सर्कुलेशन और दूसरा हिस्सा है- एक्सटर्नल सर्कुलेशन.
इंटरनल सर्कुलेशन के तहत चीन का पूरा जोर घरेलू डिमांड और खपत बढ़ाना है. चीन दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है तो यह दुनिया का सबसे बड़ा आयातक भी है. इसके घरेलू बाजार में बेहिसाब ताकत है और लगभग एक अरब 40 लाख करोड़ की इसकी आबादी में से 40 करोड़ का इसका मिडिल क्लास तेजी से बढ़ता जा रहा है. चीन की 60 फीसदी आबादी शहरों में रहती है और इसने इसके कंज्यूमर मार्केट को इतना विशालकाय बना दिया है कि तमाम छूट और प्रोत्साहन देने के बावजूद यहां अपना मैन्युफैक्चरिंग बेस बना चुकी बहुत कम मल्टीनेशनल कंपनियां बाहर जाना चाहती हैं. उन्हें पता है कि ग्लोबल इकोनॉमी धीमी भी पड़ गई तो विशालकाय चीनी मार्केट उनके कारोबार को उबारने के लिए काफी हैं.
घरेलू खपत बढ़ाने की चीन की कोशिश तेजी से रंग लाती दिख रही है. यूं तो 2006 से ही चीनी नेतृत्व का जोर इस बात पर रहा है कि कि देश की जीडीपी में उपभोक्ता खर्च का हिस्सा तेजी से बढ़े और इन्फ्रास्ट्रक्चर में ज्यादा निवेश हो. लेकिन शी जिनपिंग ने अब इस स्ट्रेटजी को बेहद गंभीरता से लागू करना शुरू कर दिया है. चीनी राष्ट्रपति का हाल के दिनों में मक्के के खेत का दौरा करना, स्टील के कारखानों का जायजा लेना और इनोवेशन सेंटर का मुआयना करना, साफ बताता है कि चीनी नेतृत्व का पूरा जोर घरेलू खपत बढ़ाने पर है. खास कर अमेरिका से टेक्नोलॉजी विवाद ने चीन को माइक्रो चिप और सेमी-कंडक्टर बनाने पर बड़ा निवेश करने की ओर प्रेरित किया है.
यह भी पढ़ें: क्वाड का सबसे अधिक खतरा भारत के हिस्से में, चीन को रोकने के लिए संभल कर कदम उठाने की जरूरत
अब निर्यात नहीं घरेलू खपत के दम पर दौड़ रही चीन की इकोनॉमी
2008 में चीन का ट्रेड सरप्लस (आयात की तुलना में ज्यादा निर्यात) इसकी जीडीपी का आठ फीसदी था लेकिन 2018 में घट कर 1.3 फीसदी पर आ गया. यह जर्मनी और दक्षिण कोरिया से भी कम हो गया जहां ट्रेड प्लस जीडीपी का क्रमश: 5 और 8 फीसदी था, जबकि अमेरिका अब भी चीन की तुलना में आयात पर ज्यादा निर्भर है.
चीनी इकोनॉमी अब निर्यात के भरोसे नहीं बल्कि घरेलू खपत के दम पर दौड़ रही है. 2015 तक 16 तिमाहियों में से 11 में चीन की जीडीपी में घरेलू खपत की हिस्सेदारी 60 फीसदी रही थी. चीन आज दुनिया का सबसे बड़ा ऑनलाइन रिटेल मार्केट हैं. मैकिंज़ी की एक रिपोर्ट बताती है कि लग्जरी गुड्स, कंज्यूमर एप्लायसेंज, मोबाइल फोन और शराब के ग्लोबल मार्केट में 30 फीसदी हिस्सेदारी चीन की यानी यहां के उपभोक्ताओं की है. चीन में पहन कर छोड़ दिए कपड़े का पहाड़ खड़ा होना और सेकेंड हैंड लग्जरी गुड्स की साइटों का बाजार में टिके रहने के लिए जद्दोजहद करना इस बात का सबूत है कि चीनी उपभोक्ता की खपत की ताकत कितनी ज्यादा है. हाल के दिनों में चीनी उपभोक्ताओं की समृद्धि इतनी बढ़ी है कि अब यहां पुरानी चीजों के इस्तेमाल को आर्थिक और सामाजिक तौर पर नीची निगाहों से देखा जाता है.
चीनी उपभोक्ताओं में ग्लोबल खपत की दिशा तय करने की ताकत
चीन की कामकाजी आबादी के पास आज पहले की पीढ़ी की तुलना में खाने-पीने के अलावा दूसरी चीजों पर खर्च करने के लिए ज्यादा पैसा है. वे दिन हवा हुए, जब चीन की आलोचना सस्ती मजदूरी के लिए होती थी. चीनी नेतृत्व ने यह समझ लिया है कि लोगों का वेतन कम रख कर उनका देश घरेलू खपत और मांग के दम पर बड़ी इकोनॉमी नहीं बन सकता. लिहाजा हाल के दिनों में चीनी फैक्ट्रियों में कामगारों के वेतन और भत्तों में खासा इजाफा हुआ है और इसका असर वहां के घरेलू बाजार पर साफ दिख रहा है. आज चीन के युवा कामकाजी लोगों की तादात और उनकी खपत की क्षमता इतनी ज्यादा है कि वे अपने दम पर ग्लोबल खपत को एक नई शक्ल दे सकते हैं. अमेरिका के जिस ‘बेबी बूमर’ जेनरेशन ने ग्लोबल कंजप्शन को एक नई शक्ल दी थी, ठीक यही हैसियत अब चीन के कंज्यूमर की है.
चीन का शहरी उपभोक्ता अब अपनी कमाई का ज्यादा से ज्यादा हिस्सा ट्रांसपोर्टेशन, कम्युनिकेशन, एजुकेशन और हेल्थकेयर पर खर्च कर रहा. भोजन उसकी चिंता का विषय नहीं है. 2000 में चीन में एक औसत चीनी परिवार अपनी कमाई का कम से कम 50 फीसदी हिस्सा भोजन पर खर्च करता था लेकिन 2017 में यह घट कर 25 फीसदी पर आ गया. इस मामले में चीन विकसित देशों के बराबर आ गया है. जापान में एक औसत परिवार अपनी कमाई का 26 फीसदी भोजन पर खर्च करता है, वहीं दक्षिण कोरिया में यह आंकड़ा 29 और अमेरिका में 17 फीसदी है.
देंग के ‘ग्रेट इंटरनेशनल सर्कुलेशन’ से आगे की राह है कि ‘डुअल सर्कुलेशन’
चीन को एक मजबूत आर्थिक ताकत बनाने का सपना देखने वाले देंग श्याओ पिंग ने तीन दशक पहले ‘ग्रेट इंटरनेशनल सर्कुलेशन’, पॉलिसी दी थी. इसमें घरेलू मैन्युफैक्चरिंग और इंटरनेशनल मार्केट में एक्सपोर्ट को चीन अर्थव्यवस्था की धुरी बनाया गया था. लेकिन 2008 के वित्तीय संकट ने चीनी नीति-निर्माताओं को इस मॉडल की सीमाओं के प्रति सतर्क कर दिया. रही-सही कसर अमेरिका के साथ ट्रेड वॉर ने पूरी कर दी. अब चीन के नेताओं के सामने यह साफ हो गया है कि चीनी अर्थव्यवस्था के लिए बाहरी खपत पर निर्भर रहना ठीक नहीं है. इसे अब घरेलू खपत के दम पर दुनिया की सिरमौर अर्थव्यवस्था बनना होगा. इसी मकसद को हासिल करने के लिए चीन अब ‘डुअल सर्कुलेशन’ की नीति पर चल रहा है. जो लोग यह मान कर चल रहे हैं कि चीन निर्यात पर आधारित अर्थव्यवस्था है और उस पर पाबंदी लगा कर उसकी बाहें मरोड़ी जा सकती हैं, उन्हें भीतर ही भीतर मजबूत हो रहे इसके घरेलू बाजार की ताकत का अंदाजा ही नहीं है.
कोरोना के कहर से चीन की इकोनॉमी की इतनी जल्दी रिकवरी में उसके बेहद मजबूती की ओर बढ़े रहे घरेलू बाजार की ही भूमिका रही है. अपनी बड़ी आबादी के लिए लगातार भोजन, एनर्जी और नई टेक्नोलॉजी का इंतजाम करना चीन के लिए सबसे बड़ी चुनौती है और इन तीनों के लिए यह काफी हद तक दूसरे देशों पर निर्भर है. चीनी नेतृत्व को लग रहा है कि भले ही इन चीजों के आयात से वह अपनी जरूरतें पूरी कर लेगा लेकिन इससे उसका खजाने की स्थिति कमजोर होती जाएगी. इस स्ट्रेटजी के बूते वह ऊंची ग्रोथ हासिल नहीं कर सकता. चीनी के नेताओं ने ऐसे वक्त में घरेलू मांग और खपत को बढ़ाने की रणनीति पर जोर दिया है, जब ग्लोबल अर्थव्यवस्था चरमराई हुई है और ग्लोबलाइजेशन का जलवा खत्म हो रहा है. यह बिल्कुल सही टाइमिंग है. सही वक्त पर सही जगह चोट करना ही चीनी नेतृत्व को कामयाब बना रहा है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है. व्यक्त विचार निजी है)
यह भी पढ़ें: चीन से असली जंग आर्थिक मोर्चे पर होगी और इसके लिए भारत को काफी तैयारी करनी पड़ेगी
This looks like propaganda war