टोक्यो में भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के अनौपचारिक संगठन क्वाड के विदेश मंत्रियों की बैठक पर चीन का तीखा बयान कोई अजूबा नहीं है. अगर चीन ने इसे एक ‘गिरोह’ का जुटान और एशिया में एक ‘मिनी नाटो’ बनाने की कोशिश करार दिया तो उसके लिए यह प्रतिक्रिया बेहद स्वाभाविक मानी जाएगी. लेकिन ये हालात खुद चीन के पैदा किए हुए हैं. क्वाड का हर देश चीन का बड़ा कारोबारी सहयोगी है लेकिन पिछले कुछ वक्त से यह हर किसी के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है.
भारत, ऑस्ट्रेलिया और जापान ने भले ही चीन के तेवरों पर खुल कर कुछ नहीं कहा लेकिन अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने चीनी कम्यूनिस्ट पार्टी ( जिसकी सरपरस्ती में शी जिनपिंग की सरकार चलती है) पर शोषण, भ्रष्टाचार और जोर-जबरदस्ती से पड़ोसी देशों को काबू करने का आरोप लगा कर हालात साफ कर दिए.
पूर्वी और दक्षिण चीन सागर में पड़ोसी देशों की मछली पकड़ने वाली नावों को डुबोने और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में अपने आक्रामक तेवरों से चीन ने साफ कर दिया है कि वह पूरे इलाके की शर्तें अपनी आर्थिक और सैन्य महत्वाकांक्षाओं के मुताबिक तय करना चाहता है. और स्वाभाविक है कि उसके इन्हीं तेवरों ने क्वाड देशों को इंडो पैसिफिक को नियमों के आधार पर एक स्वतंत्र आवाजाही क्षेत्र बनाने के लिए मैदान में उतरने को मजबूर किया है.
भारत के लिए कितनी मुफीद क्वाड की रणनीति?
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि चीन के खिलाफ इस गठबंधन की बुनियाद कितनी मजबूत है? शुरुआती हिचकिचाहट दिखाने के बाद क्वाड को लेकर चारों देशों ने जो प्रतिबद्धता जाहिर की है वह कितनी दूर तक जाएगी? इंडो-पैसिफिक में यह चीन को किस हद तक कंट्रोल करेगा और उसका तरीका क्या होगा? और इससे भी अहम सवाल यह है भारत के लिए यह रणनीति कितनी मुफीद होगी?
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टोक्यो में अमेरिका को छोड़ कर तीनों देशों के विदेश मंत्रियों ने चीन को लेकर संयंत प्रतिक्रिया जाहिर की. सिर्फ माइक पोम्पियो ही आक्रामक दिखे. उनके तेवरों से ऐसा लगता है कि अमेरिका इंडो-पैसिफिक को चीन के साथ तनावपूर्ण रिश्तों वाले सभी देशों के सैनिक गठजोड़ वाले इलाके में बदलना चाहता है. लेकिन यह इतना आसान नहीं है. क्वाड देश भले ही इस इलाके में एक दूसरे के सैनिक अड्डे का इस्तेमाल कर कम लागत में चीन के खिलाफ एक मजबूत दीवार बनाने के बाद दूसरे पूर्वी एशिया देशों को भी इसमें शामिल कर लें, लेकिन इसके खिलाफ चीन ने अपने सैनिक अड्डे बनाने शुरू किए तो इस पूरे इलाके में हथियारों की एक खतरनाक दौड़ शुरू हो जाएगी. यह दौड़ सबसे ज्यादा भारत के लिए घातक होगी, क्योंकि इसका पूरा निचला हिस्सा इससे घिरा है. अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान की तुलना में चीन से भारत के यह टकराव ज्यादा खतरनाक होगा.
चीन के साथ क्वाड के चारों देशों के रिश्तों की मौजूदा तासीर फिलहाल बिल्कुल अलग-अलग है और अगले कुछ साल में यह क्या रंगत पकड़ेगी, कहा नहीं जा सकता. ऑस्ट्रेलिया में जब तक चीन समर्थक केविन रड की सरकार थी, क्वाड ‘डेथ बेड’ पर रहा. ऑस्ट्रेलिया की चीन पर आर्थिक निर्भरता बहुत ज्यादा है. अभी भी इसके कुल निर्यात में 38 फीसदी हिस्सेदारी चीन की है.
जहां तक जापान का सवाल है, भले ही नए पीएम योशिहिदे सुगा ने शिंजो आबे की विरासत ( आबे ने ही 2007 में क्वाड की परिकल्पना की थी) को आगे बढ़ाने के संकेत दिए हैं लेकिन कहा जाता है कि सुगा खुद ही चीन समर्थक तोशिहीरो निकाई के समर्थन से जीते हैं, जो लंबे वक्त तक लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के सेक्रेट्री जनरल रहे. भले ही चीन और जापान के बीच सेंकाकु-दियाओयु द्वीपों पर दावेदारी को लेकर विवाद चल रहा हो लेकिन जापान ने पिछले दिनों शी जिनपिंग को अपने यहां आने का न्योता दिया था. कोविड-19 की वजह से जिनपिंग ने अभी जापान की यात्रा नहीं की है लेकिन सेंकाकु-दियाओयु विवाद के बढ़ने के बावजूद जापान ने जिनपिंग को दिया यह न्योता वापस नहीं लिया है. चीन और जापान के बीच 317 अरब डॉलर का कारोबार होता है. जो जापान के कुल कारोबार का 20 फीसदी है.
जापान की खुद की आर्थिक तरक्की को चीन की तेज रफ्तार इकनॉमी से काफी फायदा हुआ है. चीन की फैक्टरियां बड़े पैमाने पर जापान की बनाई मशीनों, हाईटेक कंपोनेंट्स और तकनीकी जानकारियों का इस्तेमाल करती हैं और चीनी पर्यटक हर साल लाखों की संख्या में जापानी स्टोर्स, होटल, रेस्तराओं और विलासितापूर्ण चीजों पर पैसे लुटाते हैं. जापान चीन से भारी कमाई करता है. इसलिए चीन के खिलाफ वह कोई बड़ा कदम उठाने से परहेज करेगा.
क्वाड में सबसे ज्यादा जोखिम भारत के हिस्से
भारत को छोड़ कर इस वक्त चीन से सबसे ज्यादा अगर किसी की ठनी हुई है तो वह है अमेरिका. ट्रंप के आते ही चीन अमेरिका का दुश्मन नंबर एक बन गया है. चीनी सामानों पर भारी टैरिफ के अलावा ट्रंप प्रशासन हर जगह चीन को कंट्रोल करने की कोशिश में है. माइक पोम्पियो की चीन की तीखी आलोचना अमेरिका की इस नीति की मुखर अभिव्यक्ति है. लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी की जो बाइडन की जीत अमेरिका की मौजूदा चीन नीति को बदल सकती है. अभी तक के संकेतों के मुताबिक बाइडन की स्थिति लगातार मजबूत होती जा रही है. अगर बाइडन जीतते हैं तो निश्चित तौर पर चीन के खिलाफ अमेरिकी रुख इतना तीखा नहीं रहेगा. इस वक्त अमेरिका समेत क्वाड के बाकी देशों में चीन के खिलाफ जोश दिख रहा है लेकिन आने वाले दिनों में यह उफान बना रहेगा, इसमें शक है.
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इंडो-पैसिफिक में चीन को नियंत्रित करने में सबसे बड़ा दांव भारत का लगा है. यह अलग बात है कि जमीन की तुलना में समंदर में और खास कर इंडो-पैसिफिक इलाके में भारत चीन को रोकने में ज्यादा मजबूत स्थिति में है. अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के नजदीक मलक्का के जल डमरूमध्य से गुजरते जल मार्ग से चीन अपना 80 फीसदी तेल आयात करता है. फारस की खाड़ी, वेनेजुएला और अंगोला से मंगाया जाने वाला ज्यादातर तेल इसी रास्ते से चीन पहुंचता है.भारत के लिए यहां चीन को रोकना काफी आसान है. भारत के चंद युद्धपोत यह काम कर सकते हैं.
चीन को इसका अहसास है और यही वजह है कि वह बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के तहत पाकिस्तान में नया पोर्ट बना रहा है. इसके अलावा आर्कटिक में उत्तरी सागर में रूट बनाने की कोशिश मलक्का पर उसकी निर्भरता कम कर सकती है. अगर भारत ने ग्वादर पोर्ट को रोकने की कोशिश की तो उसे मलक्का जल डमरूमध्य और दूसरी तैनातियों से अपने नौसैनिक युद्ध पोतों को हटा कर यहां लगाना पड़ेगा. पूर्वी अफ्रीका में जिबुति में भी चीन का मिलिट्री बेस है. हालांकि उसका कहना है कि यह उसका लॉजिस्टिक सेंटर है, लेकिन वह इसका इस्तेमाल सैन्य बढ़त के लिए ही करेगा. चीन उत्तरी सागर रूट से रूस तक पहुंचने का रास्ता तैयार करने की कोशिश कर रहा है. कुल मिलाकर चीन को मलक्का में अपनी कमजोरी का अहसास है इसलिए इस पर निर्भरता खत्म करने के लिए अपने लिए और दुनिया के तमाम देशों तक वैकल्पिक कारोबारी रूट तैयार कर रहा है.
अमेरिका का मोहरा बनने से बचना होगा
चीन की इस स्ट्रेटजी को देखते हुए भारत का उसे इंडो-पैसिफिक में बहुत आक्रामक होकर घेरना कोई कारगर रणनीति नहीं होगी. इसमें भारत का काफी संसाधन खर्च होगा. चीन के खिलाफ दो मोर्चों पर लड़ना भारत की अर्थव्यवस्था बर्दाश्त नहीं कर सकती. इसलिए भारत को क्वाड देशों की रणनीति में भी अपने हितों को सबसे ऊपर रखना होगा, क्योंकि चीन से सबसे ज्यादा आमना-सामना इसी का होगा. सबसे जरूरी है कि भारत इंडो-पैसिफिक में अपनी स्वतंत्र सामरिक नीति को आगे बढ़ाए. किसी भी हालत में उसे यहां अमेरिका का मोहरा बनने से बचना होगा.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है. व्यक्त विचार निजी है)
बेहतरीन लेख. सूचनापरक और संतुलित विश्लेषण. विदेश मामलों पर लिखने वाले गिने-चुने अच्छे लेखक – पत्रकारों में अपनी जगह बनाने के लिए लेखक दीपक मंडल जी को हार्दिक बधाई. आगे के लिए अपेक्षाएं बढ़ गयी हैं. प्रिंट के संपादक मंडल को अच्छे विषयों और अच्छे लेखकों के चयन के लिए हार्दिक धन्यवाद.
पंकज पुष्कर
पूर्व विधायक, दिल्ली
pankaj.pushkar@gmail.com