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Friday, 1 November, 2024
होमइलानॉमिक्सRBI को ब्याज दरों में कमी का फायदा उपभोक्ता तक पहुंचाने पर ध्यान देना चाहिए, उसके बिना इंट्रेस्ट रेट में कटौती बेमानी है

RBI को ब्याज दरों में कमी का फायदा उपभोक्ता तक पहुंचाने पर ध्यान देना चाहिए, उसके बिना इंट्रेस्ट रेट में कटौती बेमानी है

रिज़र्व बैंक को ब्याज दरों में कटौती के फायदों के हस्तांतरण की व्यवस्था सुधारने की दिशा में काम करना चाहिए, उससे कहीं अधिक जितना कि मुद्रास्फीति का लक्ष्य निर्धारित करने की प्रणाली लागू किए जाने के पहले चार वर्षों में किया गया है.

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भारतीय रिज़र्व बैंक की नवगठित मौद्रिक नीति समिति की बैठक में नीतिगत ब्याज दर में बदलाव के मुद्दे पर विचार-विमर्श किया जा रहा है.

पहली मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) 2016 में नियुक्त की गई थी, जब भारत ने मुद्रास्फीति लक्ष्य निर्धारण प्रणाली को अपनाया था. समिति के स्वतंत्र सदस्य चार वर्षों के लिए नियुक्त किए जाते हैं और कार्यकाल को बढ़ाया नहीं जा सकता है. प्रथम समिति का कार्यकाल पूरा हो गया था और अब नए स्वतंत्र सदस्यों की नियुक्ति की गई है जो पहली बार समिति की बैठक में शामिल हुए हैं.

नई समिति द्वारा ब्याज दरों को अपरिवर्तित रखे जाने की संभावना है— चूंकि नए सदस्यों की नियुक्ति अभी-अभी हुई है, इसलिए इस बात की कम ही संभावना है कि उन्होंने एमपीसी की बैठक में इस मुद्दे पर राय देने के लिए पर्याप्त बैकग्राउंड रिसर्च कर ली हो. वैसे, कुछ दिनों के बाद जब उनकी टिप्पणियां सार्वजनिक की जाएंगी तब जाकर ही हम इस बात का आकलन कर सकेंगे कि सचमुच में ऐसा ही हुआ या नहीं.

आमतौर पर किसी नवगठित समिति से सतर्क प्रतिक्रिया की उम्मीद की जाती है. नई समिति के रिज़र्व बैंक के विचारों से असहमत होने की भी कम संभावना होती है. और पिछली बैठक के विवरणों से यही लगता है कि वर्तमान में रिज़र्व बैंक की राय यथास्थिति बनाए रखने के पक्ष में है.


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भारत में मुद्रास्फीति की स्थिति

भारत में मुद्रास्फीति का मौजूदा लक्ष्य, 2 प्रतिशत ऊपरी और निचली सह्य सीमा के साथ, 4 प्रतिशत का है. लेकिन वास्तव में महंगाई लक्षित दर की 6 प्रतिशत की ऊपरी सीमा से भी अधिक रही है. खासकर सब्जियों, अंडे, मांस और मछली की कीमतें बढ़ी महंगाई दर के लिए ज़िम्मेदार हैं. मुख्यतया लॉकडाउन से प्रभावित आपूर्ति संबंधी कारकों को इन ऊंची कीमतों के लिए दोष दिया जाता है.

दूसरी ओर, मांग के आधार पर कीमतों के नीचे आने की संभावना है क्योंकि इस साल की पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में करीब 25 प्रतिशत का संकुचन हुआ है. लेकिन इसके बावजूद एमपीसी के नए सदस्य शायद ब्याज दरों में और कटौती नहीं करना चाहें क्योंकि एक तो महंगाई तय लक्ष्य से ऊपर है और कोविड जैसे अभूतपूर्व घटनाक्रम के संबंध में अपेक्षित महंगाई का अंदाज़ा लगाने के लिए कोई अच्छा मॉडल भी उपलब्ध नहीं है.

एमपीसी की पिछली कुछ बैठकों के दौरान रिज़र्व बैंक कर्ज की लागत तय करने वाली नीतिगत ब्याज दर में कई बार कटौती कर चुका है. लेकिन बैंकों की उधारी दरें अभी भी रेपो रेट में कटौतियों के अनुरूप नीचे नहीं आई हैं. नीतिगत दर में कटौती का पूरा फायदा उपभोक्ताओं तक नहीं पहुंच पाया है.

यदि नीतिगत दर में और कटौती भी की जाती है तो भी कोविड-19 संबंधी अनिश्चितताओं और बैंकों के ऋण आधार में धीमी वृद्धि के कारण कटौती के फायदों के आगे हस्तांतरण की प्रक्रिया शायद ज़्यादा सुचारू नहीं रहे. बड़ी संख्या में कंपनियां और कर्जदार दबाव में हैं. नया ऋण लेने से पहले वे शायद अधिक स्थिर माहौल का इंतज़ार करना चाहें. साथ ही, बैंकों पर भी दबाव है क्योंकि कर्ज अदायगी पर अस्थाई छूट की अवधि खत्म होने के बाद अब शायद बड़ी संख्या में कर्जदार समय से उधारी चुकता नहीं कर पाएं.

एक विकल्प सभी कर्जों के पुनर्मूल्यांकन का हो सकता है. अब जबकि ब्याज दरें कम हो चुकी हैं, बैंकों के लिए उधार लेने की लागत पहले से कम रह गई है. कुछ हद तक, मौजूदा जमाराशियों पर बैंकों को एक निश्चित दर पर ब्याज देने की बाध्यता है. लेकिन ब्याज दरें कम होने पर अंतत: इस तरह की देनदारियां भी कम होती हैं. एक सीमा तक बैंक मौजूदा कर्जों पर ब्याज दरें कम करने में सक्षम हैं. हालांकि शायद कर्ज में फ्लोटिंग रेट के बजाए एक नियत दर का प्रावधान हो, इसलिए सर्वप्रथम बैंकों को कर्जों का पुनर्निर्धारण करना होगा और ब्याज दरों में कमी का फायदा व्यवसायों तक पहुंचाना होगा.


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फायदे उपभोक्ताओं तक पहुंचाने पर ज़ोर

इसलिए नई एमपीसी शायद मौद्रिक नीति के प्रावधानों के उपभोक्ताओं तक हस्तांतरण के मुद्दे पर ध्यान देना चाहे. लेकिन वर्तमान में, नीतिगत दर में कई बार की कटौतियों और बैंकों द्वारा इसके फायदों के उपभोक्ता को हस्तांतरित नहीं किए जाने की स्थिति को देखते हुए कर्जों के पुनर्निर्धारण और पुनर्मूल्यांकन पर ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि ऋण दायरे का विस्तार हो सके.

मुद्रास्फीति का लक्ष्य निर्धारित करने की प्रणाली लागू किए जाने के पहले चार वर्षों में महंगाई कम और स्थिर रही है. इसका पहला असर ये हुआ कि इस प्रणाली की विश्वसनीयता के कारण महंगाई के अनुमान भी सीमित दायरे में ही रहे. ब्याज दरें कम किए जाने के बावजूद महंगाई दर कम रही है.

दूसरे शब्दों में, मुद्रास्फीति का लक्ष्य तय करने के संस्थागत ढांचे की विश्वसनीयता बरकरार रखने पर ज़ोर दिया जाना चाहिए. भले ही रिज़र्व बैंक को सरकार द्वारा सौंपी गई ज़िम्मेदारी के अनुरूप लक्षित महंगाई दर की अगले साल समीक्षा की जानी हो लेकिन इस ढांचे में फेरबदल नहीं की जानी चाहिए.

इसके बजाए रिज़र्व बैंक को ब्याज दरों में कटौती के फायदों के हस्तांतरण की व्यवस्था सुधारने की दिशा में काम करना चाहिए, उससे कहीं अधिक जितना कि मुद्रास्फीति का लक्ष्य निर्धारित करने की प्रणाली लागू किए जाने के पहले चार वर्षों में किया गया है. इसके लिए भारतीय वित्तीय बाज़ारों को एक मज़बूत, नकदी केंद्रित एवं जीवंत बॉन्ड बाज़ार, एक प्रतिस्पर्धी बैंकिंग सेक्टर, तथा एक ऐसा नियामक तंत्र चाहिए जो कि विस्तार के इच्छुक लघु एवं मध्यम उद्यमों को कर्ज के लिए औपचारिक बैंकिंग सेक्टर की मदद लेने के लिए प्रेरित करता हो.

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को देश भर में जमाकर्ताओं तक पहुंचने का लक्ष्य दिया गया था. काफी हद तक, भारत में वो लक्ष्य हासिल किया जा चुका है. जनधन जैसी योजनाओं ने सरकारी बैंकों को देश की लगभग संपूर्ण आबादी को बैंकिंग सुविधा प्रदान करने के लिए बाध्य कर दिया है. लेकिन जैसे जमाकर्ताओं की इन बैंकों तक पहुंच है, कर्ज चाहने वालों के बारे में ये बात नहीं कही जा सकती.

जब तक हम मुद्रा नीति के फायदों का ग्राहकों तक हस्तांतरण सुनिश्चित नहीं करते, नीतिगत ब्याज दर में एक बार फिर 25 बेसिस प्वाइंट की कटौती करना व्यर्थ है.

(इला पटनायक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं, यहां व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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