चीन से व्यवहार करते समय भारतीय प्रधानमंत्रियों के लिए पुरानी बातों को भुलाना शायद सबसे बड़ी सीख होगी. 1958 में जवाहरलाल नेहरू ने चीन के लिए भारत के नामित राजदूत से गुप्त रूप से कहा था कि उन्हें चीनियों पर ज़रा भी भरोसा नहीं है और वो धोखेबाज़, दुराग्रही, अभिमानी और अभिभावी मानसिकता वाले हैं. 2020 में नरेंद्र मोदी भी अपने मन में शायद यही राय रखते होंगे. बाद में चीनियों के साथ नेहरू के व्यवहार से 1962 का युद्ध नहीं रुका. अब, लगातार उठ रहे इस सवाल का, समय ही जवाब देगा- क्या एक और लड़ाई होगी और उस टकराव के रूप क्या होंगे?
माओ की एक प्रसिद्ध टिप्पणी है कि राजनीति बिना खून-खराबे की लड़ाई है जबकि लड़ाई खून-खराबे की राजनीति है. लद्दाख में दोनों पक्षों की ओर से सैन्य बल का इस्तेमाल किया गया है, सैनिक मारे गए हैं और वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर इलाकाई यथास्थिति में बदलाव किया गया है. पूरी भारत-चीन सीमा पर अच्छी खासी सैन्य लामबंदी की गई है, हालांकि वास्तविक टकराव लद्दाख तक ही सीमित रहा है. ये संघर्ष अभी भी चल रहा है, हालांकि इसके भविष्य के स्वरूप को जानना मुश्किल है.
प्रमुख सैन्य कार्रवाई का आखिरी राउंड 29/30 अगस्त की रात में हुआ था, जब अपनी ओर से पहल करते हुए भारतीय सैनिकों ने कैलाश रेंज के एक अहम हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया और इसके साथ ही चुशुल एरिया में सामरिक प्रभुत्व हासिल कर लिया. राजनीतिक रूप से इस साहसिक सैन्य पैंतरेबाज़ी में एक सक्रिय बदलाव था क्योंकि कब्ज़ाई गई ऊंचाइयों के मालिकाना हक विवादित हैं. चीन से अभी तक कोई सैन्य प्रतिक्रिया नहीं आई है और राजनीतिक रूप से वो विदेश मंत्रियों का एक साझा बयान ही हासिल कर पाया था जब वो 10 सितंबर को रूस में मिले थे.
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सामरिक भूल
विदेश मंत्रियों के साझा बयान के पांच बिंदू, भारत और पाकिस्तान दोनों की प्राथमिकता का संकेत देते हैं कि मुद्दों को मौजूदा समझौतों के फ्रेमवर्क में बातचीत से सुलझाया जाए. अभी तक ये वार्ता सैन्य कमांडरों तक सीमित रही है और कोर कमांडरों की वार्ता का सातवां राउंड, 12 अक्तूबर को होना है. लेकिन इस बात की संभावना कम है कि इससे तनाव कम करने की दिशा में कोई प्रगति होगी, चूंकि पहले से मानकर चला जा रहा है कि मौजूदा स्थिति के लिए सेनाएं ही ज़िम्मेदार थीं. राजनीतिक स्तर पर पैदा की हुईं समस्याओं को राजनयिक और राजनीतिक स्तर पर ही सुलझाना होगा. अपनाए गए दृष्टिकोण को समझने का एक और तरीका ये है कि आने वाली सर्दियों को सैन्य तनाव को ठंडा करने दिया जाए और सियासी लीडर्स कोई ऐसा नतीजा निकाल लें जिससे दोनों की इज्जत रह जाए. लेकिन मौजूदा सैन्य स्थिति में ऐसी किसी संभावना की गुंजाइश नहीं लगती.
यथापूर्व सैन्य स्थिति पर वापस आने में सबसे बड़ी बाधा है विश्वास का न होना. सीमा की विवादित स्थिति के चलते, शांति तभी संभव है जब दोनों पक्षों के राजनीतिक नेताओं में इसकी इच्छा हो. सैन्य कार्रवाई को जायज़ ठहराने के लिए किसी सैन्य घटना का प्रबंध करना मुश्किल नहीं है. इसलिए मौजूदा संकट से पहले की सैन्य तैनाती की सेटेलाइट तस्वीरों के आधार पर भले ही यथास्थिति पर वापसी हो जाए लेकिन ऐसी कोई गारंटी नहीं है कि सर्दियों के बाद ऐसी स्थिति फिर से पैदा नहीं कर दी जाएगी. क्या भारत किसी राजनीतिक सौदेबाज़ी के तहत कैलाश रेंज के हिस्से को खाली करने का जोखिम उठा सकता है?
भारत ऐसा सौदा कर सकता है लेकिन ये एक सामरिक भूल होगी, अगर ऐसा तनाव कम करने के लिए किया जाता है और आपसी सहमति की एलएसी पर सीमा विवाद को अनसुलझा छोड़ दिया जाता है.
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दीर्घकालिक पीड़ा से बचना
तत्काल राहत हासिल करने के रुझान में दीर्घकालिक पीड़ा की संभावना रहती है. ऐसा क्यों है इसके तीन कारण हैं.
पहला, भारत को स्पष्ट होना चाहिए कि चीन की सीमा विवाद सुलझाने की कोई मंशा नहीं है और उसका इरादा सीमा को एक दवाब बिंदू के तौर पर इस्तेमाल करने का है जिसका मकसद भारत को उपमहाद्वीप तक सीमित रखना है. तिब्बत और शिंजियांग में सैन्य क्षमता और इंफ्रास्ट्रक्चर बना लेने के बाद चीन ने सीमा पर बनाई गई घटनाओं के ज़रिए दबाव बढ़ाने की अपनी क्षमता बढ़ा ली है. लेकिन भारत की मौन प्रतिक्रिया को मानकर चल रहा चीन, अगस्त के आखिर में भारत की पैंतरेबाज़ी से परेशान ज़रूर हुआ होगा. लेकिन चीन की क्षमता अभी भी इतनी उपयोगी ज़रूर है कि भारत को अपनी सीमाओं की रक्षा में और अधिक संसाधन खर्च करने पड़ सकते हैं. चीन की इस रणनीति का संबंध उसके टकराव के मुख्य स्रोत से है और वो है अमेरिका.
जिस तरह पाकिस्तान में ये विश्वास घर कर चुका है कि भारत उसके अस्तित्व के लिए खतरा है, उसी तरह चीन भी मानता है कि भारत, अमेरिका और दूसरी शक्तियों के साथ मिलकर, चीन के बढ़ते प्रभाव को रोक सकता है. ये भू-राजनीतिक कल्पना ही चीन से भारत के प्रति ऐसा रणनीतिक व्यवहार करवा रही है और इस मौलिक वास्तविकता पर भारत की भू-आर्थिक मजबूरियों का परदा नहीं डाला जाना चाहिए.
दूसरा, एक भू-आर्थिक वास्तविकता है जिसे दूर नहीं किया जा सकता. अपनी आर्थिक और तकनीकी निर्भरता के लिए, भारत को चीन की ज़रूरत है. इस वास्तविकता को चीन के भू-राजनीतिक इरादों से मिलाना होगा जिनका मकसद खासतौर से एशियाई और वैश्विक राजनीतिक प्रभुत्व हासिल करना है. इस उद्देश्य को पाने की चीन की ज़ोर-जबर्दस्ती का किसी भी कीमत पर विरोध करना होगा. भारत के लिए विकल्प ये है कि उसे चीन केंद्रित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था जो भारत की उन्नति के लिए भारी चुनौतियां पेश करेगा, की कीमत पर कुछ आर्थिक राहत मिल सकती है. इसलिए आत्मनिर्भरता पर ज़ोर देने के साथ, चीन पर निर्भरता कम करने के सभी उपाय करने होंगे. संक्षेप में, दीर्घ-कालिक भू-राजनीतिक हितों को, भू-आर्थिक प्रलोभन की वेदी पर बलि नहीं चढ़ा देना चाहिए. इसके लिए भारत के लोगों को भी कुर्बानियां देनी होंगी और राष्ट्रीय मूड में बदलाव के चलते राजनीतिक रूप से ये कोई प्रभावशाली प्रदर्शन नहीं है.
तीसरा, भारत को चीन के साथ न सिर्फ अपने ऐतिहासिक अनुभव के आधार पर पेश आना चाहिए बल्कि ये भी समझना चाहिए कि चीन खुद को पहले से अधिक शक्तिशाली समझता है जो एशियाई आधिपत्य पाने के करीब है. बड़े पैमाने पर सैन्य लामबंदी के ज़रिए, सैन्य ज़बरदस्ती की आज़माइश के लिए उसने सबसे पहले भारत को चुना है. भारत कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता कि उसकी ये कोशिश कामयाब हो जाए. दोनों के लिए बहुत कुछ दांव पर लगा है और पीछे हटने की संभावना नहीं है. उसके बजाए एक लंबे सैन्य टकराव की संभावना अधिक है जिसमें संघर्ष विविध रूप ले लकता है.
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खून-खराबे के बिना राजनीति
भारतीय शासन के सामने अब चुनौती ये है कि चीन के खिलाफ दर्द के बिंदुओं की संख्या और उनके असर को कैसे बढ़ाया जाए और साथ ही उससे कमज़ोर अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले सैन्य बोझ को कैसे कम रखा जाए. दर्द के ये कारगर बिंदू दूसरी सहयोगी शक्तियों की धुरी के साथ हैं जिनके चीन के साथ डील करने में समान हित हैं. चीन के लगातार आक्रामक व्यवहार ने ऐसे सहयोग की संभावना में तेज़ी ला दी है. इसके लिए विदेश नीति में बदलाव लाने की ज़रूरत है जिससे इस धारणा को बढ़ावा मिले कि साझा हितों के आधार पर भारत एक टेंट में बैठ सकता है लेकिन वो किसी कैंप में शामिल नहीं होगा. सैन्य दृष्टि से उसे खुद को संतुलित करना होगा और अपने वज़न को पश्चिम से उत्तर की तरफ करना होगा और साथ ही समुद्री क्षेत्र में भी अपने विकास को बनाए रखना होगा.
कमज़ोर अर्थव्यवस्था के बावजूद राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए. विश्वास के उस स्तर को फिर से हासिल करना जो भारत-चीन रिश्तों को स्थिर कर सके और सैन्य तनावों को रोक सके, असंभव तो नहीं लेकिन मुश्किल ज़रूर है. चीन के प्रति भारत की नीतियों को आगे बढ़ाने में, इस वास्तविकता का भी ध्यान रखना चाहिए. नरमी के साथ पेश आने का समय निकल गया है और भविष्य मुश्किल और अनिश्चित दिख रहा है. बिना खून खराबे की राजनीति बेहतर है लेकिन उससे बचने के लिए भारतीय सेना को लड़ाई के लिए तैयार रहना होगा.
(लेखक तक्षशिला संस्थान बेंगलुरू में स्ट्रेटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम के डायरेक्टर और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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