संयुक्त राष्ट्र महासभा के अपना भाषण शुरू करते हुए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान मानो अपने देश की राष्ट्रीय नीति का बयान कर रहे थे जब उन्होंने कहा कि ‘एकतरफा बल प्रयोग या उसकी धमकी से परहेज, लोगों के आत्मनिर्णय का अधिकार, राष्ट्रों की बराबर की संप्रभुता और भौगोलिक अखंडता, उनके आंतरिक मामलों में अ-हस्तक्षेप, अंतरराष्ट्रीय सहयोग– इन सारे विचारों को व्यवस्थित तरीके से खत्म किया जा रहा है’.
विडंबना ये है कि वह ‘विश्व व्यवस्था की बुनियादों’ को बदले जाने की शिकायत कर रहे थे. निश्चय ही झूठ बोलना पाकिस्तान की राष्ट्रीय नीति है.
इमरान खान ने अपना भाषण जारी रखा और, जैसी कि अपेक्षा थी, ‘दुनिया भर में मुसलमानों के साथ होने वाले अन्याय और इस्लामोफोबिया’ के बारे में बात की. हालांकि, उन्होंने अपने ही देश में धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार को बेशर्मी से नज़रंदाज़ कर दिया.
उन्होंने कश्मीर और फिलस्तीन को लेकर ‘गंभीर चिंता’ का इजहार किया लेकिन पाकिस्तान में बलूचों और पश्तूनों पर हो रहे अत्याचारों पर खामोश रहे. कोई सबूत देने की परवाह किए बिना उन्होंने ‘मुसलमानों की बेरोकटोक हो रही हत्याओं’ पर गुस्सा जताया, लेकिन अपनी खुद की सेना द्वारा व्यवस्थित तरीके से किए जा रहे बलूचों के जातीय नरसंहार के बारे में बोलना मुनासिब नहीं समझा. हालांकि प्रभावशाली पाकिस्तानी सेना के आशीर्वाद से प्रधानमंत्री बनने के पहले उन्होंने सार्वजनिक रूप से इसकी चर्चा की थी और इस बारे में ‘खुलासा’ किया था.
इमरान खान पूर्व में कई बार इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि पाकिस्तानी सेना ने बलूचिस्तान में महिलाओं और बच्चों से आबाद गांवों पर बमबारी की है, जैसा कि सेना ने बांग्लादेश में किया गया था. ये सब देखकर यही लगता है कि सफेद झूठ बोलना पाकिस्तान की राष्ट्रीय नीति है, जिसके कारण जनता उनकी झूठी बातों पर यकीन करते हुए इस बारे में वास्तविकता से कट चुकी है.
यही कारण है कि आपको कश्मीर, फिलस्तीन और अफगानिस्तान के बारे में विशेषज्ञ बनते पाकिस्तानी मिल जाएंगे, लेकिन आप उन्हें अपने देश की ही घटनाओं, खासकर अपनी सेना के अपराधों से बेखबर पाएंगे.
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आम पाकिस्तानियों को क्या मालूम है?
आम पाकिस्तानी पाठक के लिए एक सवाल: जब आप ‘बलूचिस्तान’ शब्द पढ़ते हैं तो आपके मन में क्या खयाल आता है? आकर्षक भूदृश्य? धन-धान्य और खनिज? ग्वादर, भविष्य का दुबई और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपेक)?
क्या आपको लगता है कि वहां ‘अलग-थलग पड़े बलूची’ और ‘कबाइली सरदार’ रहते हैं जो इस डर से अपने इलाके में विकास कार्य नहीं होने देते कि ‘शिक्षित और विकसित लोग उनकी मध्यकालीन कबाइली व्यवस्था को खारिज कर देंगे’? या आप इससे भी ज्यादा वहां की गरीबी में जकड़ी आबादी के बारे में सोचते हैं? आप लापता किए गए लोगों की कहानियों तथा सड़कों पर, प्रेस क्लबों के सामने और सरकारी अधिकारियों के सामने रोते-बिलखते उनके परिजनों के बारे में सोचने को मजबूर होते हैं?
आपका जवाब वास्तव में इस बात पर निर्भर करेगा कि आप पाकिस्तान के किस हिस्से से हैं और इस क्षेत्र की भू-राजनीति में आपकी कितनी दिलचस्पी है. उदाहरण के लिए, यदि आप लाहौर या पंजाब के किसी अन्य मेट्रोपोलिटन नगर से हैं, तो ज़्यादा संभावना यही है कि आपने या तो लापता किए गए बलूचों और उनके परिजनों की पीड़ा के बारे में नहीं सुना है, या आप ‘जानते’ हैं कि लापता लोग वास्तव में विदेशों में जा चुके हैं, और उनके शवों की बरामदगी बलूचिस्तान में कबीलों के बीच के झगड़ों का परिणाम है.
बीबीसी न्यूज ने 2014 में पंजाब में एक सर्वे किया था जिसके तहत सड़कों पर आते-जाते लोगों से पूछा गया ता कि क्या उन्होंने बलूचिस्तान के बारे में सुना है या क्या वे वहां के किसी शहर का नाम बता सकते हैं. अधिकांश लोगों को बलूचिस्तान के भूगोल अथवा वहां की संस्कृति, भाषा या जनता के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. मीडिया और राजनीति की कई शीर्ष शख्सियतों को भी बलूची (भाषा) और बलूच (जनता) के अंतर की जानकारी नहीं थी.
व्यवस्थित अभियान
लगभग आधे पाकिस्तान में विस्तृत बलूचिस्तान के बारे में पाकिस्तान के सर्वाधिक आबादी वाले प्रांत के लोगों की इस अनभिज्ञता के लिए किसे दोषी ठहराया जाए? क्या ये लोगों की दिलचस्पी नहीं होने का नतीजा है? लेकिन लोग ऐसे प्रांत के बारे में कैसे बेखबर रह सकते हैं जो कि देश के 50 फीसदी हिस्से में फैला हुआ हो, और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके किचन में रसोई गैस की आपूर्ति वहीं से होती है, हालांकि खुद बलूचों को जलावन की लकड़ी पर निर्भर रहना पड़ता है?
इस स्थिति के लिए आसानी से बलूचिस्तान की मानवीय त्रासदी को मीडिया और समाचार एजेंसियों द्वारा पर्याप्त कवरेज नहीं दिए जाने को दोष दिया जा सकता है, जो कि कुछ हद तक सही भी होगा. बलूचिस्तान और उसकी पीड़ा के बारे में बात करने वाले जो थोड़े से पत्रकार हैं उन्हें भी बल प्रयोग के जरिए चुप करा दिया जाता है. इस संबंध में हामिद मीर पर हमले और सबीन महमूद की निर्मम हत्या का जिक्र किया जा सकता है.
औसत पाकिस्तानी की इस अज्ञानता के पीछे असली कारण उन सरकारी संस्थानों की नीतियां हैं जो देश की स्थापना के समय से ही शासन कर रही हैं, कभी खुल्लमखुल्ला तौर पर, तो कभी परोक्षत: लेकिन प्रभावी रूप से. हालांकि पर्दे के पीछे छुपे असली दोषियों के ज़िक्र का ये मतलब नहीं है कि सच का साथ देने का मीडिया और राजनेताओं का नैतिक एवं कानूनी दायित्व किसी भी तरह से कम हो जाता है.
बलूचिस्तान को लेकर पाकिस्तानियों को, और कुछ हद तक अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भी, पूरी तरह अंधेरे में रखने और गलत सूचनाओं के ज़रिए भ्रमित करने का उद्यम स्वयं पाकिस्तान जितना ही पुराना है.
इस नीति को 2006 में एक सैनिक कार्रवाई में बलूच नेता नवाब अकबर बुगती की हत्या के बाद और तेज़ किया गया है, ताकि उनकी हत्या के पीछे के असली मकसद और उसके बाद बलूच आबादी पर ढाए गए जुल्मों को छुपाया जा सके.
आम आबादी वाले इलाकों में की जाने वाली सैनिक कार्रवाइयों को ‘रॉ के एजेंटों के खिलाफ कार्रवाई’ के रूप में रिपोर्ट किया जाता है. पाकिस्तानी मीडिया के लिए, और इस तरह देश की औसत आबादी के लिए भी, बलूचिस्तान में गायब किए गए लोग महज ‘विदेश चले गए लोग’ हैं और उनके क्षत-विक्षत शवों की बरामदगी को बलूचों के ‘आपसी कबाइली झगड़े’ का परिणाम करार दिया जाता है.
राजनीतिक वर्ग का विश्वासघात
इस प्रोपेगेंडा को हवा देने के लिए पाकिस्तान के राजनीतिक नेता समान रूप से ज़िम्मेवार हैं, जो अस्थाई राजनीतिक ताकत के लिए ऐसा करते हैं. सत्ता में रहते हुए वे रक्षा प्रतिष्ठान के हाथों में खेलते हैं, जबकि उनके लिए अनुपयोगी हो जाने पर आधा-अधूरा सच बताते हैं.
इसका एक उदाहरण चौधरी बंधु हैं, जो नवाब अकबर बुगती को मार डाले जाने के समय परवेज मुशर्रफ की तानाशाही का हिस्सा थे. बाद में ये बात सामने आई थी कि बुगती की मांगें न्यायोचित थीं और उनको मारा जाना गलत था.
ऐसा ही पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) के कार्यकाल में हुआ था, जिसने बलूच राजनीतिक नेतृत्व को बदनाम करने और स्थानीय बलूच आंदोलन को ‘भारत-पोषित उपद्रवी’ करार देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी. नवाब अकबर बुगती के उत्तराधिकारी नवाब बरहमदाग़ बुगती पर 2009 में संयुक्त राष्ट्र के अधिकारी जॉन सोलेकी के अपहरण का दोष मढ़ने वाले पीपीपी के मंत्रियों ने बाद में निजी कार्यक्रमों के दौरान स्वीकार किया कि रक्षा प्रतिष्ठान के कहने पर उन्होंने ऐसा किया था जो ‘बरहमदाग़ बुगती से उनके दादा की तरह ही छुटकारा पाना चाहता था’.
नवाज़ शरीफ़ का रवैया भी कोई अलग नहीं रहा है. जब भी उन्हें सत्ता से बेदखल किया जाता है वह बलूचिस्तान के पक्ष में और मुशर्रफ़ को न्याय के कटघरे में लाने के लिए ‘आवाज़ उठाते हैं’ लेकिन सत्ता में आने पर वह बलूचिस्तान का नाम तक भूल जाते हैं.
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सोशल मीडिया और न्याय की मांग
सोशल मीडिया के उदय के साथ ही स्थितियां बदलनी शुरू हो गई हैं. अब अधिकाधिक लोगों तक बलूचिस्तान के लोगों के साथ हो रहे अन्याय और वहां मानवाधिकार के संकट के बारे में जानकारी पहुंच रही है.
बलूचिस्तान के गायब किए गए लोगों और परिजनों की पीड़ा को सोशल मीडिया के ज़रिए बड़ी संख्या में लोग सुन रहे हैं और उनके समर्थन में आवाज़ें उत्तरोत्तर बुलंद हो रही हैं. उससे भी महत्वपूर्ण ये है कि सोशल मीडिया ने उत्पीड़ित बलूचों, पश्तूनों, सिंधियों और धार्मिक अल्पसंख्यकों – पाकिस्तानी रक्षा प्रतिष्ठान द्वारा प्रताड़ित वर्ग – को एकजुट होने और अन्याय के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए एक मंच प्रदान किया है.
पाकिस्तानी सेना की मीडिया संस्था इंटर-सर्विस पब्लिक रिलेशंस (आईएसपीआर) ने उत्पीड़ित लोगों की बुलंद होती आवाज़ों के खिलाफ समांनांतर कथानक प्रसारित करने का अभियान छेड़ दिया है, जिसे वे बेशर्मी से ‘पांचवी पीढ़ी की लड़ाई’ बताते हैं. लेकिन विरोध के इन स्वरों को खामोश करना अब संभव नहीं है.
यह हर किसी का नैतिक कर्तव्य है, चाहे वह पाकिस्तानी हो या व्यापक अंतरराष्ट्रीय समुदाय का सदस्य, कि न केवल वह पाकिस्तान में बलूचों और अन्य लोगों की पीड़ा के बारे में जागरूक बने, बल्कि न्याय और अधिकारों के उनके आंदोलन का समर्थन करके इतिहास के सही पक्ष में अपनी उपस्थिति दर्ज कराए.
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(अब्दुल नवाज़ बुगती बलूच रिपब्लिकन पार्टी के अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधि हैं और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के सत्रों में बलूचिस्तान का प्रतिनिधित्व करते हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)