लखनऊ: सीबीआई की लखनऊ स्थित विशेष अदालत ने बुधवार को अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाए जाने के मामले में सभी 32 आरोपियों को बरी कर दिया है.
न्यायाधीश एसके यादव स्वैच्छिक साक्ष्य और बयानों के बावजूद इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मस्जिद को ध्वस्त करने की योजना पहले से नहीं बनाई गई थी.
वहीं विशेष सीबीआई न्यायाधीश ने कहा कि बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना पूर्व नियोजित नहीं बल्कि आकस्मिक थी.
मुकदमे के 32 अभियुक्तों में पूर्व उप प्रधानमंत्री एल.के. आडवाणी, उत्तर प्रदेश के पूर्व सीएम कल्याण सिंह और उनके साथी भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार और साक्षी महाराज भी शामिल थे.
यह फैसला 6 दिसंबर 1992 को कारसेवकों की भीड़ द्वारा अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ढांचा ढहाए जाने के करीब 28 साल बाद सुनाया गया है. इस मामले में मुकदमा घटना के लगभग 18 साल बाद शुरू हुआ था, और इसके बाद भी कछुए की चाल से आगे बढ़ने पर 19 अप्रैल 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने रोजाना सुनवाई का आदेश दिया और यह गारंटी भी दी गई कि सुनवाई कर रहे न्यायाधीश जस्टिस एस.के. यादव का तबादला नहीं किया जाएगा.
यह आपराधिक मामला राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद के मुकदमे से अलग था, जिसे नवंबर 2019 में हिंदुओं के पक्ष में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के साथ सुलझाया जा चुका है. हालांकि, इस दौरान सर्वोच्च अदालत ने इस बात का उल्लेख किया था कि ढांचा ढहाया जाना ‘कानून-व्यवस्था का घोर उल्लंघन’ था, और जो कुछ भी गलत हुआ उसे सुधारे जाने पर जोर देते हुए अदालत ने आदेश दिया था कि केंद्र या यूपी सरकार अयोध्या के अंदर ही मस्जिद बनाने के लिए केंद्रीय वक्फ बोर्ड को 5 एकड़ भूमि उपलब्ध कराए.
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लंबा खिंचा मामला
यह मामला और मुकदमा शुरू से ही लंबी खिंचने वाली प्रक्रिया का सामना करता रहा है, क्योंकि यूपी सरकार की तरफ से इस घटना से संबंधित सभी केस सीबीआई को सौंप जाने में ही महीनों का समय लग गया था. इसमें 40 लोगों के खिलाफ पहली चार्जशीट 1993 में दायर हुई थी, जबकि 1996 में दाखिल एक पूरक आरोपपत्र में विवादित ढांचा ढहाने के पीछे एक बड़ी साजिश होने और सुनियोजित ढंग से हमला किए जाने का आरोप लगाया गया.
1997 में लखनऊ के एक मजिस्ट्रेट ने आरोपियों, जिनकी संख्या 48 हो चुकी थी, के खिलाफ आरोप (जिसमें आपराधिक साजिश भी शामिल थी) तय करने का आदेश दिया तब उनमें से 34 आरोपी रिवीजन की अपील के साथ इलाहाबाद हाई कोर्ट पहुंच गए. वहां से उन्हें स्थगनादेश मिलने पर मामला चार साल तक उसी स्थिति में अटका रहा. 2001 में हाई कोर्ट ने आपराधिक साजिश के आरोपों को हटाने का आदेश दिया, और लखनऊ की विशेष अदालत ने इस मामले को विभाजित कर दिया, जिसमें लगभग आधे अभियुक्तों पर रायबरेली में केस चलाने की व्यवस्था की गई.
एक लंबी कानूनी लड़ाई के बाद इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 2005 में आडवाणी और अन्य के खिलाफ ‘नफरत फैलाने’ के आरोप पुन: निर्धारित करने का आदेश दिया और आखिरकार 2011 में सीबीआई की याचिका पर, सुप्रीम कोर्ट ने लखनऊ में दोनों मामलों की एक साथ सुनवाई का फैसला सुनाया. समीक्षा याचिकाओं के आगे भी देरी की वजह बनते रहने पर 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने आगे आकर आडवाणी और अन्य के खिलाफ आपराधिक साजिश के मुकदमे को फिर शुरू कराया.
विध्वंस मामले में 30,000-40,000 तक गवाह थे, और कहा जाता है कि मौखिक साक्ष्यों ने ही इस मुकदमे में सबसे अहम भूमिका निभाई है.
1,026 गवाहों की सूची तैयार की गई थी, जिनमें ज्यादातर पत्रकार और पुलिसकर्मी थे, और सीबीआई ने ब्रिटेन और म्यांमार जैसे देशों में गवाहों का पता लगाने के लिए लंबी कवायद भी की. अंतत: 351 गवाहों ने अदालत में बयान दिए. साजिश के साक्ष्य के तौर पर आरोपी नेताओं के तमाम भाषण कोर्ट में पेश किए गए, जो बताते हैं कि विवादित ढांचा गिराने की तैयारी 1990 से ही चल रही थी.
सबूतों के तौर पर न्यूज रिपोर्टों के अलावा 6 दिसंबर 1992 को घटनास्थल पर ली गई फोटो और वीडियो आदि जैसे दस्तावेजी साक्ष्य भी कोर्ट के सामने रखे गए.
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