भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा की नयी टीम और कांग्रेस नेता राहुल गांधी की टीम में कुछ समानताएं दिखती हैं. नहीं, यह समानता वफ़ादारों और चापलूसों से संबंधित नहीं है. दरअसल, दोनों ही पार्टियां उन्हें प्रश्रय और प्रोत्साहन देती हैं. कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पिछले महीने पार्टी संगठन में जो फेरबदल किया उसके बाद, हार का मुंह देखने वाले पार्टी नेता अर्श पर नज़र आए.
इसी तरह, अमित शाह की जगह भाजपा अध्यक्ष बनने के आठ महीने बाद नड्डा ने शनिवार को जो नयी टीम बनाई उसमें भी, हार का मुंह देखने वाले पार्टी नेताओं की ही बल्ले-बल्ले रही. नड्डा ने 12 राष्ट्रीय उपाध्यक्षों, 8 महासचिवों, 13 सचिवों आदि की नियुक्ति की. भाजपा में उपाध्यक्ष का पद आलंकारिक ही होता है, असली अधिकार तो महासचिवों के हाथ में होते हैं. नड्डा ने शाह की टीम के तीन महासचिवों को बनाए रखा और पांच नए लाए. नड्डा ने जिन नये नेताओं को नियुक्त किया, आइए उनमें से कुछ का परिचय लिया जाए.
नयी ‘ए’ टीम
तरुण चुग, राष्ट्रीय महासचिव
परिचय- कभी कोई चुनाव नहीं जीते, 2012 और 2017 में अमृतसर सेंट्रल विधानसभा सीट से चुनाव हारे. 2014 के लोकसभा चुनाव में अमृतसर के लिए अरुण जेटली की चुनाव प्रबंध टीम के सदस्य थे. दिल्ली के चुनाव में पार्टी के सह-प्रभारी के तौर पर उसकी शर्मनाक हार के एक सूत्रधार रहे.
दुष्यंत कुमार गौतम, राष्ट्रीय महासचिव
परिचय – कभी कोई चुनाव नहीं जीते, 2008 और 2013 में दिल्ली की कोंडली विधानसभा सीट पर हारे. इस साल के शुरू में पार्टी ने उन्हें राज्यसभा में भेजा.
डी. पुरंदेश्वरी, राष्ट्रीय महासचिव
परिचय- मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्री थीं. 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस से अलग हो गईं; आंध्र प्रदेश से भाजपा के टिकट पर 2014 और 2019 में चुनाव हारीं.
महासचिवों और सचिवों की सूची में केवल ये ही नहीं हैं जो हार का मुंह देख चुके हैं, जिन्हें विभिन्न राज्यों का प्रभारी बनाया जाएगा और जिनसे भाजपा को चुनाव जिताने की उम्मीद की जाएगी. नड्डा की टीम में ऐसे और भी कई हैं जो केवल एक चुनाव के करिश्मे साबित हुए. मसलन, असम के दिलीप सैकिया और युवा मोर्चा के नये चीफ तेजस्वी सूर्या, जो 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी के बूते करिश्मा कर पाए.
ध्रुवीकरण का समय
यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि अमित शाह की टीम में सब विजेता ही थे. उसमें कई या तो अनिर्वाचित थे या निर्वाचन योग्य ही नहीं थे. लेकिन राज्यों में अपने विरोधियों को सत्ता से बेदखल करने की योजना बनाने और उसे लागू करने के लिए अमित शाह को किसी टीम की कभी जरूरत नहीं थी. सारी योजना वे खुद बनाते थे. वे हमेशा गतिशील रहे और देश के किस कोने में क्या हो रहा है इसकी जानकारी उन्हें किसी प्रदेश प्रभारी या प्रदेश पार्टी अध्यक्ष से भी ज्यादा रहती थी.
कमान जब शाह के हाथ में थी तब भाजपा के केंद्रीय पदाधिकारियों को उनके निर्देशों का बस रोबोट की तरह पालन करना होता था, नतीजों की फिक्र करने की जरूरत नहीं होती थी. लेकिन नड्डा अमित शाह नहीं हैं. इसलिए वे जब पार्टी अध्यक्ष के तौर पर अपनी केंद्रीय टीम में निष्क्रिय लोगों को शामिल करते हैं तब हैरानी होती है.
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लेकिन जब आप भाजपा के जादूगरों की बातें सुनेंगे तो लगेगा कि नड्डा ने भारी राजनीतिक सूझबूझ से लोगों का चयन किया है. भाजपा की केंद्रीय टीम में नये चेहरे युवाओं को तैयार करने, ‘जेनेरेशन नेक्स्ट’ को नेतृत्व सौंपने की पार्टी की दूरदर्शिता का प्रमाण बताए जा रहे हैं. लेकिन उन पर जरा गहराई से नज़र डालिए तो उन्हें ऊपर चढ़ाने की वजह समझ से परे लगती है. यह मान कर चला जा सकता है कि नड्डा की टीम को नरेंद्र मोदी और अमित शाह से मंजूरी तो मिली ही होगी, ऐसे में नये पदाधिकारियों के चयन से यही संकेत मिलता है कि आगामी वर्षों में पार्टी मोदी शासन के एजेंडा पर नहीं बल्कि ध्रुवीकरण वाली बहसों पर ज़ोर देने वाली है.
तेजस्वी ने अपना पहला लोकसभा चुनाव जीत कर राजनीति के केंद्रीय मंच पर कदम रखने के एक साल के भीतर ही इस मामले में अपनी क्षमता साबित कर दी. उन्हें युवा मोर्चा का चीफ बनाकर इस एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए और बड़ा मंच दे दिया गया है. दफ्तर में अपने पहले दिन ही उन्हें अमित शाह से मिलने का समय मिल गया और उन्होंने बताया कि बंगलुरू किस तरह भारत विरोधी गतिविधियों का ‘स्रोत’ बन रहा है.
नये महासचिव और आरएसएस के ‘तीसरे साल के प्रशिक्षु’ दिलीप सैकिया नागरिकता कानून (सीएए) के प्रबल समर्थक के तौर पर मुखर रहे हैं और असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) की दोबारा जांच कराने की मांग पर आपत्ति करने वाले आइएएस अधिकारी प्रतीक हजेला पर हमला कर चुके हैं.
दूसरे नये महासचिव तरुण चुग शाहीन बाग को ‘शैतानी बाग’ कह चुके हैं और यह घोषणा कर चुके हैं कि भाजपा दिल्ली को ‘सीरिया’ नहीं बनने देगी. नड्डा ने पार्टी के आइटी तथा सोशल मीडिया प्रभारी अमित मालवीय को बनाए रखा है, जिन्हें अपने विरोधियों या असहमतों पर विवादास्पद टिप्पणियों के लिए भाजपा सांसद सुब्रह्मण्यम तक फटकार चुके हैं.
पाला बदलने वालों की टीम
नड्डा खेमे ने संगठन में फेरबदल को जो अलग स्वरूप दिया है वह यह बताता है कि भाजपा अध्यक्ष ने तात्कालिक लक्ष्यों को किस तरह प्राथमिकता देने की कोशिश की है. सो, पार्टी के जादूगरों के मुताबिक, पश्चिम बंगाल से तीन लोगों को शामिल किया गया क्योंकि वहां चुनाव होने वाले हैं. मुकुल रॉय को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया, अनुपम हाज़रा को राष्ट्रीय सचिव, और राजू बिष्ट को राष्ट्रीय प्रवक्ता. केरल में भी चुनाव होने वाले हैं इसलिए कॉमरेड से कांग्रेसी और फिर भाजपाई बने ए.पी. अब्दुल्लाकुट्टी को उपाध्यक्ष, और गांधी परिवार के पूर्व वफादार टॉम वडक्कन को, जो पिछले लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा में आए थे, भाजपा का राष्ट्रीय प्रवक्ता बनाया गया.
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तेलंगाना में भाजपा की संभावनाओं को मजबूती देने के लिए वहां के दो नेताओं– डी. अरुणा और के. लक्ष्मण- को केंद्रीय पदाधिकारियों की सूची में शामिल किया गया. पुरंदरेश्वरी को राष्ट्रीय महासचिव बनाने के पीछे भी यही तर्क दिया जा रहा है. उम्मीद की जा रही है कि स्व. एनटी रामराव की बेटी पुरंदरेश्वरी को आंध्र प्रदेश में रामराव के दामाद तेलुगु देसम के एन. चंद्रबाबू नायडू के खिलाफ तुरुप के पत्ते की तरह इस्तेमाल किया जाएगा. रामराव ने तेलुगु देसम का गठन कांग्रेस विरोध की नींव पर किया था लेकिन उनकी बेटी पुरंदरेश्वरी और उनके पति डी. वेंकटेश्वर राव 2004 में कांग्रेस में शामिल हो गए थे और इसके एक दशक बाद उन्होंने अपनी निष्ठाएं फिर बदल ली हैं.
भाजपा में इन नेताओं को प्रोमोशन देने का उसे लाभ मिले या न मिले, नड्डा को इस बात का श्रेय तो दिया ही जाएगा कि उन्होंने उन राज्यों में पार्टी की संभावनाओं को मजबूती देने की कोशिश की है, जो राज्य राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हैं और जहां जल्दी ही चुनाव होने हैं. एक ही पेंच है कि भाजपा अध्यक्ष ने इस कोशिश में दल-बदलुओं को पार्टी संगठन में आगे बढ़ाया है. एक संगठन के तौर पर भाजपा में आज दो ध्रुवों पर स्थित नेता दिख रहे हैं- एक मजबूत खेमा आरएसएस और उसकी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध नेताओं का है, तो दूसरा खेमा दलबदलुओं का है जिनके लिए सत्ता ही एकमात्र विचारधारा है.
महासचिव पुरंदरेश्वरी के अलावा भाजपा के 12 नये उपाध्यक्षों में पांच राजनीतिक दलबदलू हैं- ए.पी. अब्दुलकुट्टी, जो भाजपा में शामिल होने से पहले माकपा से और फिर कांग्रेस से निकाले जा चुके थे. तृणमूल कांग्रेस के पूर्व नेता मुकुल रॉय, झारखंड से राजद की पूर्व विधायक अन्नपूर्णा देवी, तेलंगाना की पूर्व कांग्रेस मंत्री डी.के. अरुणा, बीजू जनता दल के पूर्व नेता बैजयंत ‘जय’ पांडा. तृणमूल कांग्रेस में मुकुल रॉय के साथी रहे अनुपम हाज़रा अब भाजपा के राष्ट्रीय सचिव हैं.
पश्चिम बंगाल के पूर्व भाजपा अध्यक्ष राहुल सिन्हा ने तृणमूल कांग्रेस के लोगों को जगह देने के लिए वफादार भाजपा नेताओं को किनारे करने के लिए पार्टी नेतृत्व की निंदा कर चुके हैं. इस मामले को लेकर नाराजगी जाहिर करने वाले वे एकमात्र भाजपा नेता नहीं हैं. ऐसा नहीं है कि यह सब नड्डा के दौर में ही हुआ है. दलबदलुओं का भाजपा में स्वागत, उन्हें सरकार में मंत्री पद या संगठन में पद देना मोदी और शाह के दौर में भी बड़े पैमाने पर हो चुका है. पार्टी में यह सब इसलिए चल गया क्योंकि वह राज्य-दर-राज्य विरोधियों का पत्ता साफ करती जा रही थी. लेकिन नड्डा को मुश्किलें पेश आ सकती हैं.
उन पर नज़र रखिए
अब बात शाह की टीम के तीन महासचिवों को बनाए रखने के बारे में कर लें. भूपेन्द्र यादव को संगठन में बनाए रखने का फैसला काबिलेगौर है. वे शाह के सबसे भरोसेमंद रहे हैं, उन्हें राजस्थान और गुजरात सहित कई राज्यों में भाजपा को चुनावी सफलता दिलाने का श्रेय दिया जाता है. शासन के मामले में भी, कानून एवं न्याय विभाग से जुड़ी संसदीय कमिटी के अध्यक्ष के नाते यादव काफी उपयोगी रहे हैं. कई प्रवर समितियों के अध्यक्ष के तौर पर वे जटिल नीतिगत मामलों पर अपनी पकड़ भी साबित कर चुके हैं. उन्हें मंत्रिमंडल के अगले फेरबदल में कैबिनेट में शामिल किए जाने की संभावना बताई जा रही थी.
अब यादव शायद बहुत निराश भी नहीं होंगे. उन्हें पार्टी के शक्तिशाली संसदीय बोर्ड में शामिल किए जाने की उम्मीद है. संगठन के मामलों में अपनी महारत दिखा चुके, सरकारी मामलों के बारे में अपनी समझ साबित कर चुके, और अमित शाह का वरदहस्त पाए यादव भाजपा में ऐसे नेता के तौर पर उभरे हैं जिन पर सबकी निगाहें टिकी होंगी. भाजपा अध्यक्ष के तौर पर नड्डा का पहला कार्यकाल जनवरी 2023 में खत्म होगा. उन्होंने जो टीम बनाई है, उसे देखकर लगता है कि वे इससे आगे नहीं देख रहे हैं.
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