नरेंद्र मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान 2022 तक किसानों की आमदनी बढ़ाने का वादा किया था. लेकिन सत्ता में आने के बाद उनकी सरकार ने अपने पूरे कार्यकाल में इस वादे को पूरा करने की दिशा में कुछ खास नहीं किया. लेकिन हाल ही में मोदी सरकार ने कथित रूप से भारतीय किसानों की पीड़ा खत्म करने वाले तीन ‘ऐतिहासिक’ विधेयकों को पारित किए हैं. सत्ता शीर्ष पर बैठे लोगों को अचानक दशकों से संकटों का सामना कर रहे किसानों की चिंता इस कदर सताने लगी की भारतीय जनता पार्टी के सहयोगी दलों के बीच यह मुद्दा विवाद का केंद्र बन गया, और मंत्रिमंडल से हरसिमरत कौर बादल के इस्तीफे की नौबत तक आ गई. यदि ये वास्तविक तत्परता है तो फिर किसानों के मुद्दे भारत के राजनीतिक दलों के विधायी एजेंडे में अभी तक क्यों नहीं आ पाए थे?
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की अवैध जनसभाओं संबंधी आंकड़ों से पता चलता है कि मोदी सरकार के कार्यकाल के पहले दो वर्षों के दौरान किसानों की लामबंदी के मामलों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई थी. वर्ष 2014 से 2016 के दौरान किसानों के विरोध प्रदर्शन की घटनाएं 628 से बढ़कर 4,837 हो गई – यानि 700 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी.
तीनों विधेयकों को अचानक किसानों के लिए उमड़े भाजपा के प्यार के रूप में देखना मुश्किल है, क्योंकि पार्टी इतने वर्षों से अन्नदाताओं के प्रति उदासीन रही है. अधिक तार्किक निष्कर्ष ये हो सकता है कि उनकी हालिया सक्रियता इस बात का एहसास होने की वजह से है कि किसानों के राष्ट्रव्यापी आंदोलनों को नज़रअंदाज़ करना अब और अधिक संभव नहीं है.
किसान 2014 से पहले ज़्यादातर, राज्य या स्थानीय स्तर पर, छोटे विरोध प्रदर्शन आयोजित कर रहे थे. किसानों की पहचान और उनके हित जातिगत राजनीति के भीतर समा गए थे, और इस कारण उनके लिए बड़े पैमाने पर एकजुट होना मुश्किल हो गया था. यह बिखरा और विभाजित वर्ग फिर कैसे राष्ट्रीय स्तर का आंदोलन खड़ा कर पाया कि जिसे मोदी सरकार भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकी?
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राजनीतिक अवसर को भुनाना
मोदी के 2014 के चुनाव अभियान का वादा हाल के इतिहास में पहला अवसर था जब एक राष्ट्रीय नेता ने किसानों के मुद्दों को महत्व दिया हो. लेकिन उस साल मोदी सरकार के कार्यकाल के शुरुआती महीनों में जब किसी बड़ी कृषि नीति की घोषणा नहीं की गई, तो किसानों ने उनसे किए गए वादों को लेकर सड़कों पर उतरने का विकल्प चुना. उपज की बेहतर कीमत के मोदी के वादे के रूप में लामबंदी के लिए किसान संगठनों को स्पष्ट लक्ष्य मिल चुका था.
मीडिया का ध्यान पड़ना
किसानों की बढ़ती एकजुटता को मीडिया का ध्यान खींचने वाली 2017 की दो घटनाओं से और बल मिला. उस साल मार्च में, तमिलनाडु के किसानों ने नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर कई हफ्तों तक विरोध प्रदर्शन किया. इन किसानों द्वारा अपनाई गई अभिनव तरीकों – जैसे नरमुंडों की माला पहनना और मुंह में चूहे पकड़ कर रखना – ने किसानों के समक्ष पेश आने वाली रोज़मर्रा की कठिनाइयों को उजागर करने और साथ ही बड़ी संख्या में आम लोगों और नेताओं को अपने संकट के प्रति जागरूक बनाने का भी काम किया.
दूसरी घटना जून 2017 की थी, जब मध्य प्रदेश पुलिस ने मंदसौर में एक विरोध प्रदर्शन के दौरान छह किसानों को मार डाला था. उस जघन्य हत्याकांड ने ‘नैतिक झटके’ का काम किया और उसके कारण भाजपा का किसान विरोधी रुख समाचारों और सोशल मीडिया की सुर्खियों में छा गया.
इन दोनों ही घटनाक्रमों की किसानों को सांस्कृतिक विमर्श के केंद्र में लाने में अहम भूमिका रही. मीडिया के परंपरागत माध्यमों में किसानों का चित्रण एक उपद्रवी और व्यवधानकारी वर्ग के रूप में किए जाने के बजाय इन घटनाक्रमों के कारण उनकी बुरी दशा और उत्पीड़न पर ध्यान दिया गया.
ज़मीनी एकजुटता
किसानों ने अपने प्रति मीडिया के बढ़े आकर्षण और भाजपा-विरोधी भावना का फायदा उठाते हुए अपने आंदोलन का विस्तार किया. पदयात्रा (जैसे, किसान मुक्ति यात्रा) और देश भर में ग्राम स्तर पर कार्यक्रमों के आयोजन जैसी रणनीतियों के ज़रिए किसान संगठनों ने नए सदस्यों को जोड़ने का काम किया. उन्होंने अपने जागरूकता अभियान के प्रसार के लिए सोशल मीडिया का भी उपयोग किया.
इसी कड़ी में देश भर में छोटे और मध्यम स्तर के सैकड़ों किसान संगठन अस्तित्व में आए. डिजिटल मीडिया का उपयोग करते हुए, उन्होंने संगठनात्मक ढांचे का निर्माण किया और आंदोलन से ‘अंदरूनी’ – जो पूर्णतया ग्रामीण क्षेत्रों में केंद्रित हैं – और ‘बाहरी’- जिनका शहरी क्षेत्रों के साथ कनेक्शन है- दोनों ही तरह के नेताओं को जोड़ा गया. इस मिश्रण ने शहरों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में भी विरोध प्रदर्शनों के आयोजन को संभव किया.
दिल्ली और अन्य जगहों पर आयोजित किसानों के बड़े प्रदर्शन विभाजित और स्थानीय प्रकृति के आंदोलन को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान करने में किसान नेताओं और संगठनों की भूमिका को रेखांकित करते हैं.
राष्ट्रीय स्तर के गठबंधन का निर्माण
मंदसौर की 2017 की घटना के बीते कुछ ही दिन ही हुए थे कि देशभर के करीब 70-80 संगठनों ने मिलकर अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआईकेएससीसी) के नाम से एक अखिल भारतीय गठबंधन बना लिया. इसमें अब 20 राज्यों के 250 संगठन शामिल हो चुके हैं. ये संगठन छोटे, मध्यम और बड़े किसानों के अलावा खेतिहर मज़दूरों का भी प्रतिनिधित्व करते हैं. ये तथ्य ही अपने आप में असाधारण है कि पहचान, हितों और विचारधाराओं संबंधी मतभेदों के बावजूद ऐसा संगठन न सिर्फ स्थापित हुआ बल्कि इतने दिनों से सक्रिय भी हैं.
एआईकेएससीसी भारत में किसानों की अलग तरह की राजनीतिक का प्रतिनिधित्व करती है. विरोध प्रदर्शन आयोजित करने के अलावा इसकी रणनीति में विधायी प्रयास भी शामिल रहे हैं. उदाहरण के लिए 2017 में एआईकेएससीसी ने संसद में पेश करने के लिए दो विधेयकों का मसौदा तैयार किया था. इन किसान मुक्ति विधेयकों में किसानों की दो पुरानी मांगों – कर्ज़ से मुक्ति और उपज की उचित कीमत – को लेकर एक सुसंगत नीतिगत एजेंडा पेश किया गया है.
एआईकेएससीसी ने 2018 में इन्हें लोकसभा में निजी सदस्य बिल के रूप में पेश करने से पहले इस पर 21 राजनीतिक दलों (भाजपा को छोड़कर) का समर्थन जुटाने का काम किया था. वैसे तो सदन की कार्यवाही के समयपूर्व स्थगन के कारण इस पर चर्चा नहीं हो सकी, लेकिन किसान संगठन तभी से इस एजेंडे के इर्दगिर्द गोलबंद हो गए हैं.
परस्पर विरोधी एजेंडा
जब विपक्षी दलों के समर्थन से किसान अपने एजेंडे को सड़क से संसद तक लाने में सफल हो गए, तो मोदी सरकार के पास किसानों के मुद्दे पर नए सिरे से अपना दावा जताने के अलावा और कोई चारा नहीं रह गया. लेकिन भाजपा द्वारा हड़बड़ी में पारित कृषि विधेयकों ने किसानों के एजेंडे को दरकिनार किया है.
इन विधेयकों में उपज को स्थानीय ज़िलों या राज्यों की मंडियों से बाहर भी बेचने का प्रावधान किया गया है और ठेका खेती (कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग) को बढ़ावा दिया गया है. इनमें से कोई भी प्रावधान किसानों पर कर्ज के बोझ को दूर करने के प्रयासों के तहत नहीं आता है. न ही इन विधेयकों के कारण निकट भविष्य में किसानों की आमदनी पर कोई प्रभाव पड़ने की उम्मीद है.
सकारात्मक दृष्टि से भी देखें तो किसानों के लिए ये विधेयक सुदूर भविष्य के लिए एक अनिश्चित वादा भर हैं, जबकि आलोचनात्मक नज़रिए से देखने पर ये झूठी उम्मीद भर नज़र आते हैं जिनके ज़रिए किसानों के प्रयासों का उपहास किया गया है. इसलिए अचरज की बात नहीं है कि किसान संगठनों ने इन विधेयकों का ज़ोरदार विरोध किया है.
संभावना यही है कि आगे भी किसान आंदोलन द्वारा तय एजेंडे से बेमेल सुधार प्रयासों को इसी तरह चुनौती मिलती रहेगी. किसानों की राजनीति एक राष्ट्रव्यापी सामाजिक आंदोलन के सहारे आगे बढ़ी है, और अब राजनीतिक दलों को उनके मुद्दों और एजेंडों के अनुरूप अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना होगा.
(लेखक कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, सांता बारबरा में पीएचडी के छात्र हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)
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