नई दिल्ली: 14 वर्षीय पायल, राष्ट्रीय राजधानी के सराय काले ख़ां इलाक़े में, पांच सदस्यों के अपने परिवार के साथ, एक आश्रय घर में रहती हैं, जहां दर्जनों दूसरे लोग भी रहते हैं. हर सुबह वो 2 घंटे के लिए बाहर निकलती है, एक ऑनलाइन ज़ूम क्लास में हिस्सा लेती है, अपना होमवर्क पूरा करती है, और फिर रोज़मर्रा के काम में, परिवार का हाथ बटाने के लिए, वापस घर आ जाती है.
पायल उन बहुत से बच्चों में से हैं, जिनके परिवार रोज़गार की तलाश में, दूसरी जगहों से दिल्ली आए हैं, और आश्रय घरों में, सड़कों पर, या स्लम्स और पुनर्वास बस्तियों में रहते हैं.
सराय काले ख़ां से थोड़ी दूर है वाल्मीकि बस्ती, एक स्लम जहां इसी तरह के मुश्किल हालात में मोहन रहता है. मोहन एक छोटी सी झुग्गी में अपना मां और तीन भाई-बहनों के साथ रहता है, दोपहर में एक दूध की दुकान पर काम करता है, और सुबह ऑनलाइन क्लासेज़ करता है.
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पायल और मोहन भारत के उन अधिक भाग्यशाली स्कूली बच्चों में हैं, जिन्हें मार्च से कोविड-19 के कारण, स्कूलों के बंद रहने के बावजूद, पढ़ने का अवसर मिल रहा है. ये दोनों, सड़कों और निम्न आय वर्ग के, उन 350 बच्चों में हैं, जिन्हें नई दिल्ली में चाइल्डहुड इनहेंसमेंट थ्रू ट्रेनिंग एंड एक्शन (चेतना) नाम की एक ग़ैर-मुनाफा संस्था पढ़ा रही है.
चेतना बच्चों को ज़ूम क्लासेज़ के जॉरिए ऑनलाइन पढ़ाकर, उन्हें व्हाट्सएप पर होमवर्क देकर, और ज़रूरत पड़ने पर उन्हें फोन पर भी गाइड करके, उनकी सहायता कर रही हैं. एनजीओ उन्हें बेसिक स्टेशनरी और किताबें भी देती है, और सबसे अहम ये कि हर महीने उनके इंटरनेट कनेक्शन्स का पैसा देती है.
एक हज़ार से अधिक बच्चे चेतना के साथ पंजीकृत हैं, जिनमें सरकारी स्कूलों और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओपन स्कूलिंग (एनआईओएस) के छात्र भी शामिल हैं. लेकिन लॉकडाउन के बाद, उनमें से बहुत से बच्चों का पता नहीं चल पाया, और संस्था आख़िरकार उनमें से, 350 बच्चों को ढूंढ़ पाई.
चेतना के निदेशक संजय गुप्ता ने दिप्रिंट से कहा, ‘हमारा मुख्य उद्देश्य बच्चों की पढ़ाई में मदद करना है, और हम कई तरीक़ों से ऐसा करते हैं, जैसे हम उन्हें स्टेशनरी और किताबें देते हैं, उन्हें पढ़ाते हैं और इंटरनेट एक्सेस के लिए, उनके फोन भी रीचार्ज कराते हैं’.
पढ़ने के लिए चुनौतियों पर क़ाबू पाना
उनकी ज़ूम क्लासेज़ के दौरान, दिप्रिंट ने उनमें से कुछ बच्चों से बात की.
पायल, जिसके पीछे से दूसरे बच्चे कैमरे में झांक रहे थे, ने कहा, ‘इतने सारे लोगों के आसपास होते हुए, मेरे लिए पढ़ना मुश्किल होता है, इसलिए मैं आश्रय घर से बाहर चली जाती हूं, क्लास में हिस्सा लेती हूं, अपना होमवर्क नोट करती हूं, और अपना काम पूरा करने के बाद ही वापस आती हूं. मुझे बस यही ख़ुशी है कि मैं पढ़ पा रही हूं…दो साल पहले, मैं भीख मांगती थी, और सड़क से बेकार पड़ी चीज़ें उठाती थी. मैं बहुत सारे बच्चों को जानती हूं, जिन्हें ये मौक़ा भी नहीं मिल रहा है’.
एनआईओएस में 8वीं की छात्रा पायल, पढ़ने के लिए अपने पिता का फोन इस्तेमाल करती है, और हर महीने इंटरनेट रीचार्ज करने में, चेतना उसकी सहायता करती है.
कॉल पर मौजूद शास्त्री कैम्प निवासी एक और बच्चे, सूरज ने कहा कि वो काम करके पांच सदस्यों के अपने परिवार की मदद करना चाहता है, लेकिन उसकी मां कहती है कि उसे अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए. काम पर जाते समय पिता फोन छोड़ जाते हैं, जिससे सूरज की कोई क्लास मिस न हो.
सूरज ने कहा, ‘मेरे मां-बाप मुझे सहारा देते हैं, इसीलिए मैं पढ़ पाता हूं. लेकिन मेरे आसपास ऐसे बच्चे हैं, जो जूता पॉलिश और टी-स्टॉल पर काम करते हैं. वो पूरे दिन काम करते हैं, उनके पास पढ़ाई के लिए न तो समय है, न साधन’.
बेशक सब कुछ ठीक ठाक नहीं है. कुछ बच्चों को एक अकेला फोन, तीन या चार भाई बहनों के साथ साझा करना पड़ता है, जबकि महामारी के बीच कुछ दूसरे बच्चों को, पड़ोस के घरों में जाकर, उनका फोन इस्तेमाल करना पड़ता है.
पश्चिमी दिल्ली के एक स्लम में रहने वाला मौसम, स्कूल के बारे में बात करने को लेकर उत्साहित था, लेकिन उसने ये भी कहा, ‘मुझे अपना स्कूल और अपने दोस्त याद आते हैं, लेकिन मैं ऑनलाइन क्लासेज़ से ख़ुश हूं. हमारे घर पर बस एक फोन है, जो मेरे दो भाई-बहन और मैं पढ़ने के लिए इस्तेमाल करते हैं. हम समय बांट लेते हैं, हर किसी को 2-2 घंटे के लिए फोन मिलता है’.
मौसम के दोस्त, जिनके घर पर स्मार्टफोन नहीं है, उस साप्ताहिक होमवर्क पर निर्भर हैं, जो उन्हें स्कूल से मिलता है. दिल्ली में बहुत से स्कूल, हफ्ते में एक दिन बच्चों को स्कूल बुलाकर, उन्हें एक हफ्ते का होमवर्क देते हैं. अगली बार जब वो स्कूल जाते हैं, तो अपनी वर्कशीट्स जमा कर देते हैं.
केंद्र सरकार ने भले ही स्कूलों को, आंशिक रूप से खोलने की अनुमति दे दी है, जिसमें 9वीं से 12वीं क्लास तक के छात्रों को स्कूल आने की इजाज़त मिल गई है, लेकिन बहुत से पैरेंट्स और टीचर्स, स्कूलों के फिर से खुलने के पक्ष में नहीं हैं. फिज़िकल क्लासेज़ न होने से, लगता है कि आने वाले महीनों में भी पढ़ाई आंशिक रूप से ही चलती रहेगी.
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