मुंबई: चलन में आने वाली मुद्रा (सीआईसी) में वित्त वर्ष 2020-21 में 9.8 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है जो कि इसी अवधि में पिछले वर्ष 2.6 प्रतिशत थी. 4 सितंबर तक सीआईसी में साल दर साल की वृद्धि 22.6 प्रतिशत थी जो कि पिछले साल इसी तारीख को ये 13 प्रतिशत थी. भारतीय रिजर्व बैंक के ताज़ा आंकड़ों से ये जानकारी मिली है.
सीआईसी में आई वृद्धि इस साल मार्च के आंकड़ों से भी पता चलती है जो कि तब 14 प्रतिशत थी.
विशेषज्ञों का कहना है कि मुद्रा के अधिक चलन में आने का कारण ये है कि कोरोना के कारण लगे देशव्यापी लॉकडाउन के बाद से ही लोग अपने पास नकदी जमा करने लगे. इस तरह के अनिश्चित समय में ये प्रवृत्ति आम हो जाती है क्योंकि लोगों के बीच इससे एक सुरक्षा की भावना पैदा होती है.
केयर रेटिंग्स के मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस ने कहा, ‘मुद्रा के चलन में आई तेज़ी इस बात को दिखाती है कि लोगों के बीच अभी भी कैश एक सुरक्षात्मक उपाय है. अनिश्चित समय में लोग अधिक करेंसी अपने पास रखते हैं क्योंकि ये उन्हें सुरक्षा की भावना देता है.’
सबनवीस ने दिप्रिंट से कहा, ‘अनिश्चित समय में जैसा कि अभी चल रहा है, ऐसे में भविष्य को लेकर चिंता बनी रहती है इसलिए लोग करेंसी को अपने पास रखते हैं. इसी तरह इस बीच डिजिटल ट्रांजेक्शन में भी तेज़ी आई है. कार्ड से ट्रांजेक्शन, मोबाइल वॉलेट ट्रांजेक्शन में भी बढ़ोतरी देखी गई है.’
आमतौर पर आर्थिक विकास की रफ्तार जब तेज़ होती है तब मुद्रा का चलन बढ़ता है. हालांकि अभी की स्थिति वैसी नहीं है.
स्टैंडर्ड चाटर्ड बैंक की साउथ एशिया इकोनॉमिक रिसर्च की प्रमुख अनुभूति सहाय ने कहा, ‘मुद्रा के चलन में आई तेज़ी को सुरक्षात्मक उपाय की तरह देखा जा सकता है और इस महामारी के बीच लोग एटीएम और बैंक जाने से बचने के लिए भी ऐसा कर रहे हैं. करेंसी के प्रचलन और नोमिनल जीडीपी विकास के बीच सामान्य सकारात्मक संबंध इस बार टूट गया है.’
राष्ट्रव्यापी तालाबंदी ने देश को मंदी में धकेल दिया है क्योंकि चालू वित्त वर्ष के लिए आर्थिक वृद्धि निगेटिव हो गई है. चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही के लिए वास्तविक जीडीपी में 23.4 प्रतिशत की गिरावट आई है.
बैंकरों के अनुसार, नकदी के लिए एहतियाती मांग में काफी वृद्धि हुई है, जो कि पिछले वर्ष की तुलना में दोगुनी है. जिस बात ने उन्हें चौंका दिया है वह यह है कि न केवल घरों में बल्कि कंपनियां भी नकदी को जमा कर रही है.
एक बड़े सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ‘कंपनियां पूंजी में निवेश नहीं कर रही हैं… वे सिर्फ नकदी जमा कर रही है. वे अपने विक्रेताओं, आपूर्तिकर्ताओं को भुगतान न करके नकदी को जमा कर रहे हैं.’
उन्नत अर्थव्यवस्थाओं को भी कोविड महामारी के बीच इस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है जहां निवेशक अपनी संपत्ति बेचकर नकदी का स्टॉक कर रहे हैं.
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2000 रुपए के नोटों की भारी मांग
बैंकरों ने कहा कि महामारी से पहले भी 2,000 रुपये के नोट की भारी मांग रही है. हालांकि आरबीआई ने 2,000 रुपये के कुछ नोटों को प्रचलन से हटा दिया है जिसके परिणामस्वरूप पिछले वर्ष की तुलना में वित्त वर्ष 2020 में उस विशेष मूल्यवर्ग की मात्रा में गिरावट आई है.
वित्त वर्ष 2020 में 2,000 रुपये मूल्यवर्ग के नोट की संख्या 27,398 लाख थी, जो कुल मात्रा का 2.4 प्रतिशत था. 2018-19 में 2,000 रुपये के नोट की संख्या 32,910 लाख थी जो मात्रा के संदर्भ में कुल नोटों का 3 प्रतिशत था.
2,000 रुपये के नोट का चलन अन्य मूल्यवर्ग के बैंक नोटों के विपरीत है.
उदाहरण के लिए 500 रुपये का नोट, वित्त वर्ष 2020 में कुल सर्कुलेशन का 25.4 प्रतिशत था जो पिछले वर्ष 19.8 प्रतिशत था.
2019-20 के दौरान सर्कुलेशन में बैंकनोट्स का मूल्य और मात्रा क्रमशः 14.7 प्रतिशत और 6.6 प्रतिशत बढ़ी है.
मूल्य के संदर्भ में 500 और 2,000 रुपये के नोटों की एक साथ हिस्सेदारी मार्च 2020 के अंत में कुल सर्कुलेशन का 83.4 प्रतिशत थी. जिसमें 500 रुपये के बैंक नोटों के शेयर में तेज वृद्धि देखी गई. आरबीआई ने वित्त वर्ष 2020 की अपनी वार्षिक रिपोर्ट में यह जानकारी दी है.
2,000 रुपये का नोट नवंबर 2016 में हुई नोटबंदी के बाद जारी किया गया था जिसमें पुरानी श्रृंखला वाले 500 रुपये के नोट और 1,000 रुपये के नोट को प्रचलन से हटा लिया गया था.
बैंकरों ने कहा कि 2,000 रुपये के नोट की मांग बढ़ी है. विडंबना यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने विमुद्रीकरण (नोटबंदी) करने के पीछे का एक कारण नकद मांग को कम करना बताया था.
एक और कारण काले धन का पता लगाना था. बैंकरों ने कहा कि केंद्रीय बैंक छोटे नोटों की आपूर्ति बढ़ाते हुए 2000 रुपये के नोटों की आपूर्ति कम कर सकती है क्योंकि 2,000 रुपये के नोटों की जमाखोरी की संभावना है.
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