नई दिल्ली: इस हफ्ते लद्दाख़ में वास्तविक नियंत्रण रेखा से मिली ख़बरों में, एक धमाके में एक तिब्बती शरणार्थी की मौत की रिपोर्ट भी शामिल थी. ये धमाका पैंगोन्ग त्सो पर हुआ था, जो भारत और चीन के बीच तनाव की एक जगह है.
29 और 30 अगस्त के बीच की रात हुई झड़प में, तेंज़िंन नीईमा की मौत और भारतीय व तिब्बती झंडों में लिपटे उसके शव की तस्वीरों ने, प्रशिक्षित पहाड़ी योद्धाओं के एक बेहद ख़ुफिया सुरक्षा बल की ओर ध्यान खींच लिया.
स्पेशल फ्रंटियर फोर्स (एसएफएफ) में मुख्य रूप से, तिब्बती शरणार्थियों को शामिल किया जाता है, जो अब भारत को अपना घर कहते हैं. इसका गठन 1962 के चीन दुद्ध के फौरन बाद किया गया था, जिसमें नई दिल्ली को मुंह की खानी पड़ी थी. इस बल ने कई सैन्य अभियानों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है- 1971 के भारत-पाक युद्ध से लेकर, 1999 के कारगिल युद्ध तक- लेकिन इसने काफी हद तक, छाया के नीचे ही काम किया है.
एसएफएफ इतनी ख़ुफिया रहती है, कि नीईमा की मौत के बाद, तिब्बत की निर्वासित संसद के एक सदस्य ने कहा, कि अब समय आ गया है कि भारत उनकी भूमिका स्वीकार करे.
ऐसा माना जाता है कि एसएफएफ सैनिक उन अतिरिक्त बलों में थे, जिन्हें चीन के साथ पांच महीने से चल रहे गतिरोध के बीच, सीमा पर भेजा गया था. चीन इन ख़बरों से बहुत ख़ुश नहीं है, चूंकि वो तिब्बत की निर्वासित सरकार, और आध्यात्मिक गुरू दलाई लामा के भारत में ठिकाना बनाने को लेकर बहुत होशियार रहता है, जो 1959 में चीनी क़ब्ज़े के विरोध में, एक नाकाम बग़ावत के बाद, बचकर भारत आ गए थे.
इस फोर्स के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है, लेकिन सैन्य एक्सपर्ट्स का कहना है, कि इसमें पुरुष और महिलाएं दोनों शामिल होते हैं, और उन्हें वही ट्रेनिंग मिलती है, जो एलीट कमांडोज़ को दी जाती है.
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एसएफएफ का जन्म
एसएफएफ, जिसे शुरू में एस्टेब्लिशमेंट 22 कहा जाता था, का गठन भारतीय सेना के एक अधिकारी, मेजर जनरल सुजान सिंह ऊबन ने किया था. इंडिया टुडे को दिए एक इंटरव्यू में तिब्बत विशेषज्ञ क्लॉड अर्पी ने बताया, कि ये फोर्स इंटेलिजेंस ब्यूरो के पूर्व डायरेक्टर बीएन मलिक, और अमेरिकी ख़ुफिया एजेंसी सीआईए के दिमाग़ की उपज थी
क़ब्ज़े का घाव अभी ताज़ा था, इसलिए भारत से प्रस्ताव आने पर, बहुत से तिब्बती स्वेच्छा से इस बल में शामिल हो गए, और जल्द ही एसएफएफ की संख्या 6,000 पहुंच गई. अरपी ने ये इशारा भी किया, कि उस समय तिब्बत को आज़ाद कराने की एक योजना थी, लेकिन वो कभी परवान नहीं चढ़ी.
एसएफएफ यूनिट्स जिन्हें विकास बटालियंस भी कहा जाता है, सीधे कैबिनेट सचिवालय के अधिकार क्षेत्र में आती हैं, और संचालन के मामले में, सेना से जुड़ी होती हैं. फोर्स का प्रमुख एक मेजर जनरल रैंक का सेना अधिकारी होता है, जो एसएफएफ के महानिरीक्षक का काम करता है.
एसएफएफ उत्तराखंड के चकराता में स्थित है, और इसका प्रतीक है स्नो लायन. इस समय फोर्स की सही संख्या का पता नहीं लगाया जा सका.
अज्ञात रहने की शर्त पर, सुरक्षा अनुष्ठान के एक सूत्र ने दिप्रिंट से कहा, कि एसएफएफ के पुरुष और महिला सैनिक “दोनों बेहद प्रेरित और प्रशिक्षित सुरक्षा कर्मी होते हैं”. सूत्रों ने आगे कहा कि उनकी ट्रेनिंग उसी तरह की है, जो कमांडोज़ और स्पेशल फोर्सेज़ को दी जाती है.
सूत्र ने कहा, ‘उन्हें पहाड़ी युद्ध के अलग अलग पहलुओं की व्यापक ट्रेनिंग दी जाती है, और उन्हें ज़्यादातर चीन के खिलाफ, भारत की सुरक्षा में तैनात किया जाता है, लेकिन उनके अधिकतर ऑपरेशंस की डिटेल्स ख़ुफिया रहती हैं.’
एक पूर्व सैनिक अधिकारी ने, नाम न बताने की शर्त पर कहा, कि एसएफएफ कर्मी एक विशिष्ट बल होते हैं, जिन्हें अधिक ऊंचाई पर युद्ध लड़ने में प्रशिक्षित, और बेहतरीन पहाड़ी योद्धा माना जाता है.
इंटीग्रेटेड डिफेंस स्टाफ के पूर्व प्रमुख, ले.जन. सतीश दुआ (रिटा.) ने कहा, कि भारतीय सेना इस धारणा पर काम करती है, कि पहाड़ों और सीमावर्ती क्षेत्रों में, स्थानीय निवासियों से बनी स्काउट रेजिमेंट्स तैनात की जाएं.
उन्होंने आगे कहा, ‘ऐसा इसलिए है कि स्थानीय निवासी, कठोर जलवायु वाले ऊंचे और बीहड़ इलाक़ों में काम करने के लिए ज़्यादा उपयुक्त होते हैं.’
उन्होंने कहा, ‘वो इलाक़े के ज़मीनी हालात, रीति रिवाज और भाषा से परिचित होते हैं. अन्य के अलावा हमारे पास अरुणाचल स्काउट्स हैं, डोगरा स्काउट्स हैं. इसी तरह लद्दाख़ रीजन में भी हैं, क्योंकि वो अपने इलाक़े से अच्छे से वाक़िफ होते हैं. एसएफएफ के अंदर तिब्बती शरणार्थियों का प्रतिशत भी अच्छा ख़ासा है, जो स्वेच्छा से सेवाएं देना चाहते हैं, और उन इलाक़ों में लाभप्रद रोज़गार से लगे हैं, जहां के लिए वो उपयुक्त होते हैं’.
एसएफएफ के दोहरे कंट्रोल के बारे में पूछे जाने पर, उन्होंने कहा, “हमारे पास अलग अलग वर्टिकल्स में अलग अलग बल हैं. सीमा निगरानी के काम में लगे केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल, रक्षा मंत्रालय (एमओडी) के नहीं, बल्कि गृह मंत्रालय (एमएचए) के आधीन आते हैं. एसएफएफ का कंट्रोल अलग है, चूंकि इसमें तिब्बती शरणार्थी भी हैं, जिसकी वजह से एक अन्य देश शामिल हो जाता है. लेकिन, जब वो किसी ऑपरेशन में होते हैं, तो फिर एक दूसरे के साथ मिलकर काम करते हैं’.
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प्रमुख ऑपरेशंस
एसएफएफ ने जिन ऑपरेशंस में हिस्सा लिया है, उनमें सबसे प्रमुख 1971 का भारत-पाक युद्ध है, जो पूर्वी पाकिस्तान या आज के बांग्लादेश की आज़ादी के लिए लड़ा गया था. उस लड़ाई में एसएफएफ बटालियनें चिटगांव पहाड़ों के पास तैनात की गईं थीं- अपने नाम के अनुरूप एक ऐसा पहाड़ी इलाक़ा, जो पूर्वी पाकिस्तान के दक्षिणपूर्व में है. उन्हें दुश्मन की पोज़ीशंस पर हमले का काम दिया गया था, जिससे भारतीय सेना के ऑपरेशंस में सहायता हो सके.
उस अभियान में, जिसे ‘ईगल’ कोडनेम दिया गया था, वो छापामार अभियानों के लिए बांग्लादेश में घुस गए जहां उनका काम था, दुश्मन सैनिकों और सैन्य ढांचों पर हमला करना, और कम्यूनिकेशन लाइन्स काटना, और रसद, व हथियारों की सप्लाई रोकना.
दिल्ली स्थित थिंक-टैंक ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउण्डेशन (ओआरएफ) की वेबसाइट के एक पेपर के अनुसार, उन्होंने पाकिस्तानी सैनिकों को बच निकलकर, म्यांनमार में भी नहीं जाने दिया.
आर्टिकल में लिखा है, ‘उनकी पूरी भागीदारी, जिसका रॉ के आशीर्वाद से खंडन किया जा सकता था, का मक़सद बंगाली स्वतंत्रता सेनानियों को प्रशिक्षित करना, और मिज़ो व नागा विद्रोहियों के खिलाफ, विशेष अभियान चलाना था’.
एसएफएफ सैनिकों को, 1971 के युद्ध में उनकी भूमिका व बहादुरी के लिए, पुरस्कृत किया गया.
विकास बटालियनों ने 1984 के ऑपरेशन ब्लू-स्टार में भी, एक अहम रोल निभाया- जब भारतीय सेना ने सिक्ख आतंकवादियों के ख़िलाफ, अमृतसर के स्वर्ण मंदिर की घेराबंदी की- और 1984 में ही सियाचिन ग्लेशियर पर क़ब्ज़े में भी. इसके अलावा 1999 का कारगिल युद्ध भी था.
इसके वजूद को सार्वजनिक रूप से 1965 में तब स्वीकार किया गया, जब चीन के परमाणु हथियारों के परीक्षण पर नज़र रखने के लिए, एसएफएफ सैनिकों ने सीआईए के साथ मिलकर, माउंट नंदा देवी पर एक परमाणु संचालित उपकरण लगाने के, नाकाम अभियान में हिस्सा लिया.
‘देश के लिए लड़ना’
जिस धमाके ने एसएफएफ ट्रूपर नीईमा की जान ली, उसमें फोर्स का एक और सदस्य भी घायल हुआ.
Exclusive: What happened at #BlackTop when Indian Army launched an operation. Listen to Teshi Tenzin whose son was injured in a mine blast. Tenzin says he’s proud that his son was wounded in battlefield
pic.twitter.com/BQ7A2GUPNk— Abhishek Bhalla (@AbhishekBhalla7) September 5, 2020
घायल सदस्य के पिता तेशी तांज़िन ने बाद में इंडिया टुडे से कहा, कि अधिकतर तिब्बती नौजवान रक्षा बलों में शामिल होने की कोशिश में रहते हैं. उन्होंने कहा, ‘इसके पीछे एक कारण और उद्देश्य है…देश के लिए लड़ना’.
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