scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतभारतीय मुसलमानों और उदारवादियों के बीच की वो कड़ी अब टूटती जा रही है जिसने अल्पसंख्यक राजनीति को गहरा किया

भारतीय मुसलमानों और उदारवादियों के बीच की वो कड़ी अब टूटती जा रही है जिसने अल्पसंख्यक राजनीति को गहरा किया

मुसलमान हिंदू उदारवादियों से सशर्त प्रेम करते हैं और साथ मिलकर मामूली संख्या वाले मुस्लिम उदारवादियों से बिना शर्त नफरत करते हैं.

Text Size:

भारत में मुसलमानों और उदारवादियों के बीच गलबहियां खत्म हो रही हैं. देश में उदारवादी संवाद अल्पसंख्यकवाद के मौन तुष्टिकरण को लेकर सिद्धांतविहीन होने की वजह से न केवल दक्षिणपंथी बल्कि निरपेक्ष मध्यमार्गियों की तरफ से तीखी आलोचना के घेरे में है, जो बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदायों के बीच खाई और चौड़ी कर सकता है जिसमें पहला पक्ष हमेशा हावी होने वाला होता है और दूसरे के पास कोई चारा नहीं होता.

अक्सर कहा जाता रहा है कि अल्पसंख्यकों को मुख्यधारा में लाने की प्रतिबद्धता जताते रहने के बावजूद उदारवादियों ने अल्पसंख्यकवाद को संस्थागत बनाने में मदद की. इसने उदारवादियों को एक अगुआ के तौर पर स्थापित कर दिया.

स्थिति तब और विकट हो गई जब मध्यम जातियों पर रहने वाला चुनावी जोर मुस्लिम वोट पर केंद्रित हो गया. ओबीसी और अल्पसंख्यक राजनीति को धर्मनिरपेक्षता के आधार पर एकजुट किया गया. यह सुविधा के लिए किया गया गठबंधन था.

उदारवाद इस स्थिति में कैसे आया जबकि यह पूरी तरह प्रगतिशील, मानवतावादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, सुधारवादी और परिवर्तनकारी होने का पर्याय था और मूलत: रुढ़िवादिता, प्रतिगमन और अधिनायकवाद के खिलाफ है? यह इन कारणों से है कि मौजूदा राजनीति में तथाकथित उदारवादियों के साथ भारतीय मुसलमानों के संबंधों में गिरावट आने लगी है. या तो उदारवाद में कुछ बदलाव आ गया है या रिश्ते नए सिरे से निर्धारित हो रहे हैं, अथवा मुस्लिम समुदाय ने खुद अपने उदारवादियों की ओर रुख करना शुरू कर दिया है.


यह भी पढ़ें: कन्हैया कुमार वाले मुद्दे को पीछे छोड़ आगे बढ़ी आरजेडी और सीपीआई, बिहार चुनाव एक साथ लड़ने की तैयारी


विभिन्न ट्रेजेक्टरी

लेकिन उभरती हिंदुत्ववादी राजनीति उदारवादियों को राजनीतिक अवसरवादिता और सांस्कृतिक क्षरण के लिए कैसे दोषी ठहरा सकती है? आश्चर्य की बात तो यह है कि ये आरोप स्थायी हो गए हैं. इसे समझने के लिए इसकी ट्रेजेक्टरी को जानना होगा.

परिवर्तनवादियों और यथास्थिति के समर्थकों के बीच द्वंदात्मक टकराव एक सजग समाज की पहचान है. जैसे औपनिवेशिक आवेग ने भारत को एक नया जीवन दिया, आधुनिक शिक्षा में हिंदुओं की पहली पीढ़ी ने खुद को धार्मिक और सामाजिक सुधार के प्रति समर्पित किया. इसने भारत में एक उदार राष्ट्रवादी राजनीति की नींव रखी.

मुसलिम ट्रेजेक्टरी एकदम अलग है. उन्होंने आधुनिक शिक्षा की ओर देरी से कदम बढ़ाया और जो आया भी धार्मिक आलोचना और सामाजिक सुधार छोड़ने की कीमत पर. अपने नैतिक और बौद्धिक मूल्यों के बिना एक सतही आधुनिकता पुनरुत्थानवाद का उपयुक्त साधन हो सकती है. बुनियादी तैयारियों की जिस जमीन पर हिंदू और मुसलिम खड़े थे, वो अलग होने के कारण दोनों अलग-अलग राजनीतिक दिशा में चले गए. जहां एक का उद्देश्य भारत को एक राष्ट्र बनाना और इसके लिए स्वतंत्रता हासिल करना था वहीं दूसरा मुस्लिम समुदाय के लिए एक अलग राष्ट्र चाहता था.

हालांकि, उदारवादी राजनीतिक वर्ग की मूलभूत ईमानदारी और उपनिवेशवाद के खिलाफ एकजुटता की अतिशयता ने इसे समग्र क्षेत्रीय राष्ट्रवाद के लिए अलगाववादी प्रवृत्तियां समायोजित करने में सक्षम बनाया. यह खाका एक सदी तक बना रहा. इसमें कुछ ऐसे विरोधाभास थे जिन्होंने मुसलमानों को उदारीकरण की जरूरत नहीं समझने दी.


यह भी पढ़ें: कांग्रेस हमेशा से वंशवादी नहीं थी, इंदिरा गांधी के जमाने में आया हाईकमान कल्चर


सदियों से कायम है विरोधाभास

मुस्लिम शासन का इतिहास स्पष्ट करने में मौलिकोडलिंग इसका पहला उदाहरण था. इतिहास की किताबों में सांस्कृतिक मेल-मिलाप की एक मनोहर तस्वीर चित्रित करने के क्रम में जियाउद्दीन बरनी, अब्दुल मलिक इसामी और फरिश्ता जैसे समकालीन क्रांतिकारियों की गवाहियों की अनदेखी हुई. धर्मनिरपेक्षता को नुकसान पहुंचाने के लिए मंदिरों को तोड़े जाने, जजिया कर लगाने और जबरन धर्म परिवर्तन आदि को धार्मिक कट्टरता की जगह राजनीतिक आवश्यकताओं से प्रेरित बताया गया होगा. यह ऐसा था मानो राजनीतिक कारणों से अपवित्रता कम अप्रिय होगी. इसने शासन के ऐसे सिद्धांत को क्लीन चिट दे दी, जो ऐसे विध्वंसक कार्यों को अनुमति देगा भले ही यह बहाना क्यों न हो.

यद्यपि यह भले ही इस अच्छे इरादे से किया गया हो कि अतीत की बातों का बुरा साया वर्तमान पर न पड़े लेकिन पूरी तरह से व्हाइट वाशिंग ने लोगों में अतीत का सामना करने और इसमें हुई गलतियां पहचानने की समझ विकसित नहीं होने दी. कोई भी अपने वास्तविक या दत्तक पूर्वजों के किए कामों के प्रति जवाबदेह नहीं है लेकिन वह अतीत को जानकर ही उसके प्रति अपना दृष्टिकोण बनाते हैं. अगर किसी को इसकी अच्छाइयों पर गौरव होता है तो उसे इसके बुरे पक्ष का भी हिस्सा बनना होगा.

दूसरा विरोधाभास इस्लाम का एक समतावादी धर्म और मुस्लिमों का एक जातिविहीन समाज के रूप में रूमानीकरण किया जाना था. इस्लाम में परिवर्तन का श्रेय मुस्लिम समाज में समानता को दिया गया. हालांकि, तथ्य यह है कि लोग नए धर्म में भी अपनी जाति के साथ ही आए और पहले की तरह ही बने रहे. मुस्लिम शासक वर्ग ने जाति व्यवस्था को अपनाया और खुद को शीर्ष पर रखा. वास्तव में उनके विदेशी वंश की श्रेष्ठता पर जोर देने से इसमें एक नया नस्लीय तत्व भी शामिल हो गया.

हिंदू समाज में जाति के अलावा जेंडर का मुद्दा सामाजिक सुधार का मुख्य आधार था. यह सही है कि मुस्लिमों में सती जैसी प्रथा नहीं थी लेकिन अन्य हर तरह के पितृसत्तात्मक भेदभाव वहां भी थे. वास्तव में हिंदू उच्च वर्ग के बीच पर्दा प्रथा मुसलमानों का प्रभाव का नतीजा थी.

यह सामान्य भाव बन गया था कि मुसलमानों को आत्मनिरीक्षण, सुधार या उदारीकरण की जरूरत नहीं है. और इसलिए, जब स्वतंत्र भारत का सबसे महत्वाकांक्षी सामाजिक सुधार कार्यक्रम शुरू हुआ और हिंदू कोड बिल पेश किया गया तो मुस्लिम पर्सनल लॉ इस दलील के कारण अछूता छोड़ दिया गया कि सुधारों की शुरुआत मुस्लिम समुदाय के भीतर से होनी चाहिए. यह कभी नहीं हो पाया और इसके बजाए पहचान की राजनीति का आधार बन गया जैसा शाहबानो और तीन तलाक मामलों के दौरान देखा गया.


यह भी पढ़ें: महिलाओं और छात्राओं की शिक्षा की दिशा में नई शिक्षा नीति मील का पत्थर साबित हो सकती है


केवल रणनीतिक सहयोगी

इतिहास में छेड़छाड़ ने पहले खुद को एक त्रासदी के तौर पर दोहराया और फिर हास्यापद रूप में सामने आया. त्रासदी यह कि बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि मामले में उदारवादी तर्क था कि अयोध्या में मस्जिद को मंदिर तोड़कर बनाए जाने का कोई सबूत नहीं है. इस बारे में कतई नहीं सोचा गया कि स्पष्ट रूप से ध्वस्त मंदिरों पर बनाई गई मस्जिदों के संदर्भ में इसका क्या निहितार्थ होगा. और, विभाजन के संशोधनवादी इतिहासलेखन में इस तथ्य को नज़रअंदाज कर दिया जाना हास्यास्पद है कि वह मुस्लिम लीग थी जिसने पाकिस्तान की मांग उठाई और इसे पाया भी. इस तरह का इतिहासलेखन वही पुराना घातक कथानक पुनर्जीवित करने में मददगार बना.

बहरहाल यह धारणा कि अदूरदर्शिता भरी थी कि अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता कम घातक है क्योंकि इस तथ्य की अनदेखी कर दी गई कि यह बहुसंख्यकवाद की भावना भड़का सकती है. उदारवादियों के पैटर्नलिस्टिक अल्पसंख्यकवाद ने इसे एक समान ज्वलंत मुद्दा बना दिया. इसलिए, एक तरह के बम धमाके में आतंक का कोई धर्म नहीं था लेकिन दूसरे में, यह होता है. ‘आहत भावना’ का आलाप करना अब एकदम सामान्य बात है क्योंकि जब तब किसी किताब पर पाबंदी और किसी फिल्म पर रोक की मांग होती रहती है. दक्षिणपंथियों ने तेजी से सीखा और कैसे.

इन सबके बावजूद, उदारवादियों और मुसलमानों के बीच कोई भी स्वाभाविक रिश्ता विकसित नहीं हो सका. दोनों ने एक-दूसरे को वैचारिक सहचर के बजाए रणनीतिक सहयोगी माना. मुस्लिमों की तरफ से मौजूदा व्यवस्था को लेकर अपनी शिकायतें दर्शाने वाली सूची में शायद एक ही चीज है जिस पर 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के बाद से अब तक उदारवाद का ठप्पा नहीं लगा है (सर सैयद अहमद खान का 16 मार्च 1888 को मेरठ में दिया भाषण). इस्लाम खतरे में होने का नारा, हिंदुओं के हावी होने को लेकर उन्माद, उर्दू की उपेक्षा, सेवाओं में कम प्रतिनिधित्व, राज्य मशीनरी के व्यवहार में पक्षपात, विशेषकर दंगों के दौरान पुलिस का पक्षपाती रवैया और भेदभाव जैसी असंख्य शिकायतें सदियों से चली आ रही हैं.


यह भी पढ़ें: मोदी का जापान दौरा एक ऐसा मौक़ा है जिसका इस्तेमाल भारत को चीन के ख़िलाफ खेल में करना चाहिए


आत्मनिर्भर मुसलमान

मुसलमान हिंदू उदारवादियों से सशर्त प्रेम करते हैं और साथ मिलकर मामूली संख्या वाले मुस्लिम उदारवादियों से बिना शर्त नफरत करते हैं. मुसलमानों को उदारवादी पसंद हैं क्योंकि वह उनके आख्यानों पर सवाल नहीं उठाते और उदारवादी मुसलमानों को तरजीह इसलिए देते हैं क्योंकि वही उनका एकमात्र आधार बचे हैं. एक ऐसे भारत में जहां दो तरह के हिंदू इस पर बहस कर रहे हैं कि मुस्लिमों के साथ कैसे जुड़ना है, उदारवादी इस पर बिना कोई सवाल उठाए उनका प्रतिनिधित्व करते हैं कि मुसलमान खुद का प्रतिनिधित्व क्यों नहीं कर पा रहे और क्या 200 साल से ज्यादा समय से सार्वजनिक स्तर पर उदारवादियों की लंबी-चौड़ी बयानबाजी इसकी कोई जिम्मेदारी लेती है.

मुसलमानों का तब तक कोई उद्धार नहीं हो सकता जब तक वे अपने खुद के उदारवादी बुद्धिजीवी तैयार नहीं करते हैं और तब तक उदारवादियों के पास नहीं लौटते जब तक वे अपने स्वीकृत सिद्धांतों के प्रति ईमानदार नहीं हो जाते. यह सच है कि राष्ट्रीय स्तर पर सभी क्षेत्रों में मुसलमानों को उनकी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व हासिल नहीं है. यह न केवल आधुनिक शिक्षा में उनके पिछड़ेपन को बल्कि कार्पोरेट जीवन में आगे बढ़ने और पहल की कमी को भी दर्शाता है.

लगभग 20 करोड़ मुस्लिम आबादी इतनी बड़ी है कि इसके शिक्षित और संपन्न लोगों का एक छोटा-सा हिस्सा भी बड़े सामाजिक बदलाव के लिए जनांदोलन तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. लेकिन ऐसा न हो पाने का एक कारण उनका प्रतिनिधित्व के लिए उदार इस्टैब्लिश्मेन्ट पर पूरी तरह निर्भर होना है.

मुसलमान आधुनिक राष्ट्र शासन के ढांचे में अपना प्रतिनिधित्व कर सकते थे, बशर्ते अपने खुद के उद्धरण तैयार करें और अपनी शब्दावली गढ़ें. ऐसा करना पूरी तरह संभव है. एक आत्मनिर्भर मुसलमान एक आत्मनिर्भर भारत का गौरव बन सकता है.

(लेखक आईपीएस अधिकारी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: वित्तीय हालत बिगड़ रही- Fiscal Deficit के लक्ष्यों को छोड़ ‘अर्थशास्त्र’ को पारदर्शी बनाए सरकार


 

share & View comments

2 टिप्पणी

  1. Musalman kabhi bhi kuran ke aage nahi soch or dekh sakta ..or yahi inke pichadepan ka Karan hai…..bo log sadio se ek hi sanche Mai chijo ko dekh or sun or soch rahe….to aage kaise badenge…….unke liy aaj ki politics sirf bjp or modi virodhi or tiki hai…..iske alava bo na kuch dekhna or sochna chate……

  2. यह लेख कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित है, इसमें हिन्दू मुस्लिम के नाम पर बहुसंख्यक को कट्टर और गलत बताया जा रहा है, इस्लामिक कट्टरता और जिहाद जो एक सच्चाई है,और जिस इस्लामिक कट्टरता का प्रतिनिधित्व मुगल शासक, करते थे उनको बड़ी धूर्तता से सामान्य बताया गया है, पर इस लेख का समर्थन सिर्फ बचे खुचे कम्युनिस्ट और तथाकथित माइनॉरिटी ही करेगी, वैसे भी अब ये माइनॉरिटी नहीं 2nd majority community ban गई है

Comments are closed.