कोरोना महामारी के दौरान वरिष्ठ नागरिकों और बुजुर्गो की उपेक्षा और उनकी देखभाल का मुद्दा लगातार चिंता का कारण बना है. इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने भी हस्तक्षेप किया,लेकिन परिवारों में बुजुर्गों की स्थिति में बहुत अधिक सुधार के संकेत नहीं मिल रहे हैं. कभी बहू द्वारा सास को पीटे जाने का वीडियो वायरल होता है तो कभी एक ऐसी बुजुर्ग महिला की बजबजाते नाले के करीब फोटो सामने आती है जिसके बेटे-बहू, पोता पोती सरकारी महकमें में उच्च पदों पर कार्यरत हैं. अब सवाल उठ रहा है कि आखिर क्या वजह है कि हमारे देश के वरिष्ठ नागरिक और बुजुर्ग इस हालात में पहुंच गए हैं.
वरिष्ठ नागरिकों के हितों और सम्मान की रक्षा के लिये कानून बनाये जाने के बावजूद इस समस्या का निदान किया है? आखिर आधुनिक समाज में बुजुर्ग माता-पिता और अन्य वरिष्ठ नागरिकों को परिवार मे बोझ क्यों समझा जा रहा है?
ये सवाल उठने का कारण न्यायालय के हस्तक्षेप के बावजूद कोरोना महामारी के दौरान भी देश में माता-पिता और बुजुर्गो के अनादर, उनसे मारपीट करने, उनका परित्याग करने या फिर जबरन बेघर करने जैसी कई घटनाओं का सामने आना है.
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देश में युवा के बाद सबसे अधिक होंगे बुजुर्ग
देश में 2011 की जनगणना के आधार पर देश में वरिष्ठ नागरिकों की आबादी10.38 करोड़ थी जो 2026 में 17.30 करोड़ हो जाने की संभावना है. ऐसी स्थिति में सरकार के लिये वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण की ज्यादा से ज्यादा योजनायें ही बनाना जरूरी है बल्कि संतानों के दुर्व्यवहार का शिकार हो रहे बुजुर्गो के लिये प्रत्येक शहर में कम से कम एक वृद्धाश्रम का निर्माण करना होगा.
वृद्ध माता-पिता और परिवार के बुजुर्गो की लगातार हो रही उपेक्षा का मामला कांग्रेस के नेता और पूर्व कानून मंत्री अश्विनी कुमार उच्चतम न्यायालय के संज्ञान में लाये. न्यायालय ने दिसंबर, 2018 में इस मामले में अपने फैसले में सरकार को अनेक निर्देश दिये और उससे प्रगति रिपोर्ट मांगी.
इसके बाद ही सरकार हरकत में आयी और उसने वरिष्ठ नागरिकों और बुजुर्गा के हितों की रक्षा के लिये 12 साल पुराने ‘माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण तथा कल्याण कानून’ में संशोधन करने के इरादे से एक विधेयक 11 दिसंबर, 2019 को लोकसभा पेश किया था जिसे 23 दिसंबर, 2019 को संसद की स्थाई समिति को सौंपा गया था. लेकिन ऐसा लगता है कि यह विधेयक भी कोरोना महामारी की चपेट में आ गया.
इस स्थाई समिति को तीन महीने भीतर अपनी रिपोर्ट संसद को सौंपनी थी लेकिन अभी तक यह रिपोर्ट संसद को नहीं सौंपी गयी है. यह रिपोर्ट मार्च तक तैयार होनी थी लेकिन ऐसा नहीं हो सका. इस विधेयक पर विचार करने वाली संसद की स्थाई समिति का कार्यकाल पहली बार जून, 2020 के अंतिम सप्ताह तक बढ़ाया गया और दूसरी बार 12 सितंबर, 2020 तक कर दिया गया.
माता पिता और वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण तथा कल्याण कानून संशोधन विधेयक पर विचार कर रही संसद की स्थाई समिति का कार्यकाल दो बार बढ़ाया जा चुका है लेकिन ऐसा लगता है कि कोविड-19 की वजह से इस मामले में बहुत अधिक प्रगति नहीं हुयी. उम्मीद की जानी चाहिए की सितंबर में शुरू होने वाले मानसून के सत्र के दौरान स्थाई समिति की रिपोर्ट सरकार को मिल जायेगी और शीतकालीन सत्र में इसे पारित करायेगी.
कोविड-19 के दौरान बुजुर्गो की दयनीय स्थिति के बारे में कई खबरें सामने आयी हैं. वृद्धाश्रमों में रहने वाले वरिष्ठ नागरिकों के बारे में शीर्ष अदालतने निर्देश भी दिये थे.
इसी तरह, कोरोना काल के दौरान मुंबई के बांद्रा स्टेशन पर मिली 70 साल की लीलावती और उप्र के कानपुर जिलेके पुखरायां निवासी 65 साल के बुजुर्ग कमलेश कुमार और उनकी पत्नी पुष्पलता की कहानी भी सुर्खियों में रहीं. इसी तरह, पिछले सप्ताह ही हरियाणा के सोनीपत में एक बहू द्वारा अपनी82 साल की सास की पिटाई करने और उन्हें गालियां देने का वीडियो वायरल होने पर आरोपी बहू, जो पेशे से नर्स है, को गिरफ्तार किया गया.
ये घटनायें बूढ़े माता पिता और वरिष्ठ नागरिकों की दयनीय स्थिति बयां कर रही हैं. बूढ़े माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों की दयनीय स्थिति को देखते हुये ही मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने 2007 में माता पिता और वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण तथा कल्याण कानून बनाया.
उम्मीद की जा रही थी कि इस कानून के माध्यम से वरिष्ठ नागरिकों के हितों की रक्षा होगी और उनके परिजन इन बुजुर्गो का सम्मान करेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ. लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. स्थिति यह हो गयी कि वरिष्ठ नागरिकों के हितों की रक्षा और उनके सम्मानूपर्ण तरीके से जिंदगी जीने के अधिकार सुनिश्चित करने के लिये न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ा. कई मामलों में अदालत के हस्तक्षेप से निर्लज्ज संतानों को माता पिता और दूसरे वरिष्ठ नागरिकों की गाढ़ी कमाई से बनाये गये आवास से बाहर निकाला गया.
परिवारों में माता पिता और दूसरे बुजुर्गो को बोझ समझ कर उनका परित्याग करने या घुट घुट कर मरने के लिये छोड़ देने की घटनाओं के मद्देनजर इस कानून में वृद्ध माता पिता और दूसरे बुजुर्गो की देखभाल के बारे में प्रावधान किये गये. इस कानून के तहत वृद्ध माता पिता या बुजुर्गो के परित्याग को दंडनीय अपराध बनाया गया लेकिन इसके बावजूद स्थिति में सुधार होता प्रतीत नहीं हो रहा है.
सरकार ने इस कानून में संशोधन कर इसका दायरा बढ़ाने का निश्चय किया और इसके तहत न सिर्फ ‘संतान’ की परिभाषा का विस्तार करने बल्कि बुजुर्गो के अनादर और उनके परित्याग करने जैसे अपराध की सजा को अधिक कठोर बनाने का फैसला किया.
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छह महीने की कैद और 10,000 जुर्माना
मौजूदा कानून के दायरे में सिर्फ पुत्र, पुत्रियां और पौत्र-पौत्रियां ही आते हैं लेकिन प्रस्तावित संशोधित कानून में बच्चों, दामादों, पुत्र वधुओं, पौत्र पौत्रियों और उन अवयस्कों को इसके दायरे में लाया जा रहा है जिनका प्रतिनिधित्व उनके कानूनी वारिस करते हैं. इस तरह, प्रस्तावित कानून में माता-पिता की परिभाषा का भी विस्तार किया गया है.
मौजूदा कानून के तहत वरिष्ठ नागरिकों का परित्याग करने के अपराध में तीन माह की कैद और पांच हजार रूपए जुर्माने की सजा का प्रावधान है. लेकिन संशोधन विधेयक में छह महीने की कैद या दस हजार रूपए जुर्माना या दोनों की सजा का प्रावधान है.
कानून में माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण भोषण के दायरे में भोजन, कपड़े, आवास, चिकित्सा सुविधा और इलाज भी शामिल किया गया है. लेकिन अब इसका विस्तार करके इसके दायरे में चिकित्सा देखभाल, सुरक्षा और गरिमा के साथ जीवन यापन को भी शामिल किया गया है.
बुजुर्ग माता पिता और वरिष्ठ नागरिकों की देखभाल के लिये उन्हें गुजारा भत्ते के रूप में दस हजार रूपए प्रतिमाह तक देने की सीमा खत्म करने का प्रावधान किया गया है. ऐसा नहीं करनेवाली संतानों के लिये कानून में कठोर सजा का प्रावधान है.
देश में वरिष्ठ नागरिकों और बूढ़े माता पिता की दयनीय स्थिति को लेकर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ओर पूर्व कानून मंत्री अश्विनी कुमार ने शीर्ष अदालत में जनहित याचिका दायर की थी. इसी याचिका पर 13 दिसंबर, 2018 को न्यायमूर्ति मदन बी लोकूर और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की पीठ ने केन्द्र सरकार को विस्तृत निर्देश दिये थे. इसके बाद से ही 2007 के कानून में संशोधन की उम्मीद की जा रही है.
शीर्ष अदालत के निर्देशों के बाद सरकार ने हालांकि देश में वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ाने के इरादे से इस कानून में संशोधन करके नया प्रावधान करने निश्चय किया. संशोधित कानून के तहत राज्य सरकारों द्वारा वृद्धाश्रमों की स्थापना के प्रावधान के स्थान पर सरकार या निजी संगठनों द्वारा वरिष्ठ नागरिकों की देखभाल के आवासों के निर्माण का प्रावधान किया. सरकार ने इसके लिये न्यूनतम मानक भी निर्धारित किये हैं. लेकिन अभी भी देश में पर्याप्त संख्या में वृद्धाश्रम नहीं हैं.
नहीं हैं वृद्धाश्रम
एक अनुमान के अनुसार इस समय देश में करीब 730 वृद्धाश्रम हैं. इनमें से 325 वृद्धा श्रम नि:शुल्क हैं जबकि 95 वृद्धाश्रमों में भुगतान करके रहने की सुविधा है. इसी तरह116 वृद्धाश्रमों में नि:शुल्क और भुगतान करके रहने की सुविधा है जबकि देश में 278 वृद्धाश्रम अस्वस्थ लोगों के लिये और 101 आवास सिर्फ महिलाओं के लिये हैं.
देश में 60 साल से अधिक आयु के नागरिकों की तेजी से बढ़ती आबादी को देखते हुये केन्द्र और राज्य सरकारों को बुजुर्गो के हितों की रक्षा के लिये अधिक गंभीरता से कदम उठानें की ओर सोचना होगा ताकि वे अपने ही घर परिवारों में बेगाने न हो जाएं और जब वह कुछ करने की स्थिति में न रह जाएं तो उनके साथ दुर्व्यवहार न किया जाए और मार-पीट जैसे अपराध न दोहराए जाएं.
हालांकि, सोशल मीडिया पर ऐसी किसी घटना के सामने आने पर नीति निर्माता से लेकर कानून बनाने वाले तक विरोध के स्वर तो उठाते हैं, आनन फानन में कार्रवाई भी होती है लेकिन विडंबना ये है कि कठोर कार्रवाई का आभाव अभी भी नजर आता है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं.)