प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण में नेशनल डिजिटल हेल्थ मिशन (एनडीएचएम) शुरू करने की घोषणा की. इसके अंतर्गत, भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था में मरीजों के रेकॉर्ड और डेटा की कमी को लेकर गंभीर चिंताओं को दूर करने की कोशिश की जाएगी.
राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधिकरण (एनएचए) की अगुआई में चलाया जाने वाला यह मिशन नागरिक को केंद्र में रखकर चलाई जाने वाली स्वास्थ्यसेवा व्यवस्था बनाने की दिशा में भारत का बड़ा कदम साबित हो सकता है. इसमें हर व्यक्ति के स्वास्थ्य से संबंधित जानकारियां डिजिटल स्वास्थ्य रेकॉर्ड के रूप में दर्ज करने के लिए विशेष हेल्थ आइडी बनाए जाएंगे.
जब मरीजों के रेकॉर्ड के लिए नियम तय किए जा रहे हैं और डिजिटल व्यवस्था बनाई जा रही है, तब डेटा की गोपनीयता से संबंधित कानूनी और प्रवर्तन से जुड़े मसलों पर भी ध्यान देना जरूरी है.
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डिजिटल स्वास्थ्य रेकॉर्ड की जरूरत
भारत में स्वास्थ्य रेकॉर्ड्स की हालत वैसी ही बिखरी हुई है जैसे यहां का स्वास्थ्य सेवा बाज़ार बिखरा हुआ है. सरकारी और निजी अस्पतालों की तकनीकी क्षमता में प्रायः अंतर होता है. सरकार ‘क्लीनिकल एस्टेब्लिशमेंट एक्ट 2010’ जैसे मौजूदा कानूनी ढांचों के अंतर्गत मानकों और सुझावों की अधिसूचनाएं जारी करती रही है ताकि तमाम अस्पताल खुद ही डिजिटल हेल्थ रेकॉर्ड्स रखना शुरू करें. लेकिन कोई खास फायदा नहीं हुआ है.
नियंत्रक एवं महा लेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्टों में प्रायः यह दर्ज किया जाता रहा है कि सरकारी अस्पतालों में रेकॉर्ड-कीपिंग की व्यवस्था लचर है. उदाहरण के लिए, सीएजी ने 2019 में उत्तर प्रदेश के अस्पतालों के कामकाज की जो ऑडिट रिपोर्ट दी थी उसमें कहा गया था कि अस्पतालों में मरीजों को परामर्श देने और उनकी बीमारी के निदान की तारीख और समय जैसी बुनियादी बातों का भी रेकॉर्ड नहीं रखा जाता. प्रायः सारे सरकारी अस्पताल मरीज के इलाज के दौरान उसे दी गई सेवाओं का समान रेकॉर्ड भी नहीं रख पाते. स्वास्थ्य संबंधी सूचनाओं की कमी के कारण असुविधाएं होती हैं, निदान और परामर्श में दोहराव होता है, इलाज में देरी होती है और खर्च बढ़ता है. रेकॉर्ड न होने और देरी होने से गलत निदान भी हो सकता है और मरीज को दूसरे नुकसान हो सकते हैं.
उदाहरण के लिए, कोविड-19 के कारण मौतों की संख्या मरीजों की दूसरी बीमारियों (मसलन हाइपरटेंसन या डाइबिटीज़) के कारण बढ़ती है. मरीजों के अपर्याप्त या शून्य हेल्थ रेकॉर्ड के कारण डॉक्टर कोविड की उनकी जांच के आधार पर उनके इलाज को प्राथमिकता नहीं दे पाते. एक डॉक्टर वाले क्लीनिकों, नर्सिंग होम, कॉर्पोरेट अस्पतालों वाले प्राइवेट हेल्थ केयर बाज़ार में डिजिटाइजेशन की अलग-अलग दरें चल रही हैं. मैक्स, अपोलो, फोर्टिस जैसे कॉर्पोरेट अस्पतालों ने इलेक्ट्रोनिक हेल्थ रेकॉर्ड के भारत सरकार द्वारा अधिसूचित मानकों को अपना तो लिया है लेकिन किसी मरीज के लिए अपने हेल्थ रेकॉर्ड्स डिजिटल माध्यम से एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भेजना संभव नहीं है.
रेकॉर्ड्स को हस्तांतरित न कर पाना मरीज को उस अस्पताल से बांध देता है, जहां वह पहले पहुंचता है, या उस अस्पताल से जहां वह बार-बार जाता है. अगर वह खर्च की वजह से या बेहतर इलाज के लिए दूसरी स्वास्थ्य सेवा का लाभ उठाना चाहे तो वह अपने स्वास्थ्य रेकॉर्ड्स नहीं हासिल कर पाता. वह डॉक्टर की पर्चियों और जांच रिपोर्टों के कागज किसी प्लास्टिक की थैली में रखकर एक से दूसरे डॉक्टर तक चक्कर लगाने को मजबूर होता है.
केंद्रीकृत डिजिटल हेल्थ रेकॉर्ड्स को अपनाने की पहली कोशिश 2018 में एनएचए के तहत ‘आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना’ (‘एबी-पीएमजेएवाइ’) के लिए की गई. लेकिन भारत सरकार ने हेल्थ रेकॉर्ड्स के डिजिटलीकरण के दायरे को राष्ट्रीय स्तर तक बढ़ा दिया. इसके बाद अक्तूबर 2019 में ‘नेशनल डिजिटल हेल्थ ब्लूप्रिंट’ (एनडीएचबी) सार्वजनिक विचार-विमर्श के लिए जारी किया गया.
विशेष डिजिटल हेल्थ आइडी मरीजों, सरकार और स्वास्थ्य सेवादाताओं के लिए ऐसे हेल्थ रेकॉर्ड के जरिए स्वास्थ्य सूचनाओं का एकल स्रोत बनेगा जिस रेकॉर्ड को दूसरे लोग भी ऑपरेट कर सकते हैं. शोध बताता है कि इलेक्ट्रोनिक हेल्थ रेकॉर्ड्स को अपनाने से मरीजों को बेहतर उपचार उपलब्ध हो सकता है, जबकि इन सेवाओं की लागत घट सकती है. लेकिन देश में डेटा सुरक्षा के लिए कानूनी व्यवस्था के अभाव ने डिजिटलीकरण से जुड़े जोखिमों को बढ़ा दिया है.
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डेटा की सुरक्षा और एनएचए की भूमिका
निजी डेटा सुरक्षा बिल में शर्तों को लेकर भारत में दो साल से बहस चल रही है. इस बिल के मुताबिक, स्वास्थ्य, वित्त, जीनेटिक्स आदि के डेटा को ‘संवेदनशील निजी डेटा’ माना गया है, जिन्हें सार्वजनिक किए जाने पर संबंधित व्यक्ति और संस्था को नुकसान हो सकता है.
इस नुकसान का खतरा पहले बैंकिंग और वित्त सेक्टर में देखा जा चुका है. उदाहरण के लिए, 2016 में विभिन्न बैंकों ने डेटा में सेंध लगने के कारण 32 लाख डेबिट कार्डों को रद्द कर दिया था. इसी तरह, 2019 के सितंबर में रिजर्व बैंक ने अधिसूचित किया था कि गैर-बैंकिंग वित्त कंपनियां (एनबीएफसी) अगर अपने उपभोक्ताओं के डेटा फिन-टेक स्टार्टअप समेत ‘नियमन से मुक्त संगठनों’ से साझा करेंगी तो उसे गैरकानूनी माना जाएगा.
स्वास्थ्य संबंधी रेकॉर्ड्स को लेकर इन चिंताओं को दूर करने के लिए राष्ट्रीय नीतियां बनाई जा रही हैं. एनएचए के सीईओ डॉ. इंदु भूषण ने आश्वस्त किया कि ये नीतियां संसद तथा सुप्रीम कोर्ट में उठाए गए सवालों को ध्यान में रखते हुए बनाई जा रही हैं. डेटा सुरक्षा कानून के बगैर एनडीएचएम तुरंत लागू करने के लिए नीति निर्माताओं ने स्वास्थ्य व्यवस्था, और निजी स्वास्थ्य रेकॉर्ड्स की गोपनीयता से संबंधित दो नीतियां तय करने का फैसला किया है. इन नीतियों के तहत दुनिया भर में मान्य मानकों का पालन किया जाएगा, जो आगामी डिजिटल हेल्थ रेकॉर्ड ईकोसिस्टम के निर्माण में डिजाइन और जोखिम प्रबंधन द्वारा गोपनीयता और ज़िम्मेदारी के सिद्धांतों के पालन सुनिश्चित करेंगे. इसके लिए उपयुक्त तकनीकी, कानूनी और संस्थात्मक व्यवस्था की जरूरत होगी.
एनएचए इन नीतियों के निर्धारण और एनडीएचएम के प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. यह एनडीएचएम के सरकारी रेगुलेटर के तौर पर स्वास्थ्य सेवा बाज़ार का नियमन और उपभोक्ताओं की सुरक्षा करेगा. भारत में डिजिटल हेल्थ रेकॉर्ड्स के वास्तविक रेगुलेटर के तौर पर कम करते हुए उसे पारदर्शिता तथा उत्तरदायित्व के सिद्धांतों पर चलना होगा. ‘एबी-पीएमजेएवाइ’ के लिए स्वास्थ्य सेवा एकोसिस्टम के साथ करने का अनुभव इस एजेंसी को एनडीएचएम के लिए अगले कदम तय करने में मदद करेगा. उदाहरण के लिए, एनएचए ‘एबी-पीएमजेएवाइ’ स्कीम के लिए डेटा के खुलासे, अस्पतालों को मान्यता देने के नियमों से संबंधित घपलों की रिपोर्ट देने की पहल कर चुका है.
जाहिर है, कानूनी तथा नियमन संबंधी व्यवस्थाएं तय करने में व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों, निजता के अधिकार की रक्षा के साथ ही सरकार को भारत में बीमारियों से संबंधित समस्याओं का विश्लेषण एवं आकलन भी करने की जरूरत होगी.
(इला पटनायक नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं और हरलीन कौर नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में कंसलटेंट हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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