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Friday, 22 November, 2024
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कोविड में कमी न आने से बढ़े एंग्जाइटी डिसऑर्डर्स, डॉक्टर्स ने कहा- ठीक हुए मरीज़ फिर हो रहे बीमार

काउंसलर और मनोचिकित्सकों का दावा कि कोविड-19 के बढ़ने के बाद से एंग्जायटी डिसआर्डर्स के मरीज उनके पास आ रहे साथ ही इनकी संख्या बढ़ी है.

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नई दिल्ली: ऐसा माना जा रहा है कि कोरोनावायरस वैश्विक महामारी, जिसे 5 महीने हो गए हैं, और अभी भी चल रही है, लोगों में एंग्ज़ाइटी डिसऑर्डर्स यानी घबराहट को बढ़ा रही है. ये लोगों को फिर से बीमार कर रही है और ऐसे लोगों को भी चपेट में ले रही है, जिन्होंने इसे पहले कभी अनुभव नहीं किया.

भारत के अलग-अलग शहरों के सलाहकारों और मनोचिकित्सकों का दावा है कि महामारी शुरू होने के बाद से उनके पास आने वाले ऐसे मरीज़ों की संख्या बढ़ रही हैं, जो ऑबसेसिव कम्पल्सिव डिसऑर्डर (ओसीडी) और पैनिक डिसऑर्डर जैसे एंग्ज़ाइटी डिसऑर्डर्स से ग्रसित हैं.

एक ने इस इज़ाफे को 20-25 प्रतिशत बताया, जबकि दूसरे ने कहा कि हर 10 मशवरे जो वो देते हैं, उनमें लगभग 6, बढ़ी हुई बेचैनी और ओसीडी से जुड़े हैं.

ऐसा लगता है कि ये इज़ाफा डर से पैदा हुआ है- ऐसी बीमारी के संपर्क में आने का डर, जिसने दुनियाभर में 7.6 लोगों की जान ले ली है और जो कम होती नज़र नहीं आ रही.

पुणे स्थित सेंटर फॉर मेंटल हेल्थ लॉ एंड पॉलिसी के सीनियर रिसर्च फेलो, डॉ कौस्तभ जोग ने कहा, ‘ऑबसेसिव कम्पल्सिव डिसऑर्डर के मरीज़ों के लक्षण फिर से उभर रहे हैं, और वो ज़्यादा गंभीर लक्षणों के साथ वापस आ रहे हैं’.

उन्होंने आगे कहा, ‘नया नॉर्मल अब सफाई है (चूंकि कोविड रोकथाम का ये एक प्रमुख उपाय है), लेकिन ओसीडी मरीज़ों के साथ सफाई लगभग एक कर्मकांड का रूप ले लेती है. जहां आप अपने हाथ एक बार धोते हैं, वो अपने हाथ 10-15 बार धोते हैं’.

ओसीडी को समझाते हुए उन्होंने कहा, ‘ये डिसऑर्डर दो शब्दों से मिलकर बना है- ऑबसेशन (जुनून), जिसमें किसी चीज़ का ख़याल बार-बार आता है, कोई इमेज या कोई विचार, जो डर या बेचैनी पैदा करता है. कम्पल्शंस (विवशताएं) वो बर्ताव हैं जो इस बेचैनी को शांत करते हैं’.

‘इसलिए ओसीडी वाले लोगों में, ये एक चक्र पैदा करते हैं, जब वो विचार बार-बार आता है, तो उसके नतीजे में किया गया काम, इन शंकाओं को शांत करता है. इसलिए इस डिसऑर्डर के मरीज़, अपने डर को शांत रखने के लिए, इन बर्तावों को दोहराते रहते हैं’.

उन्होंने बताया कि ये बर्ताव एक विकार तब बनता है, जब मरीज़ की हरकतें इतनी ज़्यादा बढ़ जाएं कि उसका रोज़मर्रा का कामकाज प्रभावित होने लगे.


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‘उस बीमारी की नक़ल करना जिससे आप चिंतित हैं’

जोग का कहना है कि महामारी के बाद से, जितने ओसीडी मरीज़ वो देख रहे हैं, उनकी संख्या में 20-25 प्रतिशत का इज़ाफा हुआ है.

उन्होंने कहा, ‘बेचैनी की विस्तृत श्रेणी में, ओसीडी के अलावा पैनिक डिसऑर्डर के मामले भी बढ़ गए हैं. इसके मनोवैज्ञानिक प्रभाव, जिनसे अधिकांश लोग वाक़िफ हैं, चिंता पैदा करते हैं लेकिन इसके फिज़िकल प्रभाव ज़्यादा चिंताजनक होते हैं, जिनमें मरीज़ उसी बीमारी वाला बर्ताव करने लगता है, जिसकी उसे चिंता होती है’.

‘इसलिए, बेचैनी के शिकार मरीज़, इन दिनों सांस का फूलना, और सीने में खिंचाव महसूस करते हैं और बंद नाक की शिकायत करते हैं. वो ये नहीं समझ पाते कि ये बेचैनी के लक्षण हैं, जिन्हें वो कोविड से जोड़ लेते हैं. इससे उनकी बेचैनी और बढ़ जाती है’.

कोविड-19 महामारी के बीच ओसीडी के लक्षणों में इज़ाफे का सुझाव, सबसे पहले जून में, इटली में की गई एक स्टडी में दिया गया था.

‘ओसीडी के मरीज़ों में कोविड-19 का प्रभाव: एक शुरुआती प्राकृतिक अध्ययन में क्वारंटाइन से पहले, दूषण लक्षणों और छूट की अवस्था का असर’ नामक स्टडी में पता चला कि इसमें हिस्सा लेने वाले 30 में से 13 प्रतिशत लोगों ने महामारी और उससे जुड़ी मीडिया कवरेज की वजह से फिर से वही लक्षण महसूस किए.

रिपोर्ट में कहा गया, ‘कुल मिलाकर, महामारी के उभरने के बाद से जुनून और विवशता की गंभीरता में इज़ाफा हुआ. दूषण लक्षणों में ये इज़ाफा ज़्यादा देखा गया. टीवी, रेडियो, और सोशल मीडिया पर तबाही की निरंतर ख़बरों और सफाई की टिप्स ने मिलकर, इस कमज़ोर वर्ग के लिए शायद एक तनाव की स्थिति पैदा कर दी, ख़ासकर उनमें, जिनके अंदर दूषण के लक्षण पहले से मौजूद थे’.

बॉम्बे अस्पताल के एक मनोचिकित्सक डॉ मिलन बालकृष्णन ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान उनके पास आने वाले 60 प्रतिशत मरीज़, ‘बेचैनी के शिकार’ हैं, जो पहले से 50 प्रतिशत ज़्यादा है.

बालकृष्ण ने कहा, ‘ओसीडी के दो ग्रुप हैं’.

उन्होंने आगे कहा, ‘एक वो है जिसे हम ऑबसेसिव कम्पल्सिव पर्सनैलिटी डिसऑर्डर कहते हैं, जिसमें बीमारी से व्यथित हुए बिना ही, मरीज़ उसकी चिंता में घुलते रहते हैं. ऐसे लोगों के व्यक्तित्व में एक ख़ास गुण होता है, जो उन्हें ऐसे बर्ताव की तरफ धकेलता है, लेकिन इनके अंदर कमज़ोर करने वाला वो डर नहीं होता, जो बेचैनी के शिकार ओसीडी मरीज़ों में होता है’.

उन्होंने कहा कि बेचैनी से जुड़ा ऑबसेसिव कम्पल्सिव डिसऑर्डर वो अवस्था है, जिसमें ‘हमने लक्षणों को बिगड़ते, तथा मरीज़ों और उनके बाहर की दुनिया (साथी और परिवार) के बीच निरंतर टकराव से, उनके जीवन को टूटते देखा है’.

वडोदरा के धीरज अस्पताल में एक क्लीनिकल साइकॉलोजिस्ट सूज़न क्रिस्टी ने बताया कि पड़ोसी राजस्थान और मध्य प्रदेश से, कुछ मरीज़ लॉकडाउन के दौरान भी उनके पास आते रहे. ‘ये मरीज़ वो थे जिनकी हालत पलट गई थी, या वो थे जिनमें महामारी की वजह से, चिंता से जुड़े विकार फिर से बर आए थे’.

लेकिन, उन्होंने आगे कहा कि उनके कुछ मरीज़, उनके पास तभी आते हैं जब उनके लक्षण बहुत ज़्यादा बढ़ जाते हैं.

उन्होंने आगे कहा, ‘इलाज में लंबा अंतराल होने की वजह से मेरे पास कुछ मरीज़ ऐसे आ रहे हैं, जिनका केस इतना बिगड़ गया होता है कि मैं उन्हें वापस भेजकर उनके परिवार को सलाह देती हूं कि पहले उन्हें एक महीने दवा खिलाएं. ऐसे मरीज़ों का इलाज करना बहुत मुश्किल होता है’.


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ये पूछे जाने पर कि महामारी की वजह से, एंग्ज़ाइटी डिसऑर्डर्स में इतना उछाल क्यों आया है, क्रिस्टी ने कहा कि बहुत से लोग ‘उप-नैदानिक स्तर पर एक मानसिक बीमारी का शिकार हैं, जिसमें वो समझ नहीं पाते कि उनकी मामूली समस्याएं, किसी बीमारी का संकेत हैं’.

उन्होंने ये भी कहा, ‘इस महामारी में ये समस्याएं अचानक सक्रिय हो सकती हैं. ऐसी कंडीशंस के तेज़ी से बढ़कर ऊपर आने के लिए, आज जैसी डरावनी स्थिति, एक बिल्कुल सही सेटिंग मुहैया कराती है’.

एक्सपर्ट्स का कहना है कि एक और कारण ये है कि आइसोलेशन जैसे रोकथाम के उपायों ने, मरीज़ों से वो चीज़ ले ली जो उनका ध्यान बहला सकती थी, जैसे लोगों से मिलना. क्रिस्टी ने कहा, ये (महामारी) और ज़्यादा नए मामले क्लीनिकल स्तर पर लाएगी’.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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