जनहित याचिकाओं और भ्रष्टाचार विरोधी केसों को लड़ने के लिए मशहूर वकील प्रशांत भूषण को अदालत की अवमानना यानि कंटेप्ट ऑफ कोर्ट के तहत सुप्रीम कोर्ट द्वारा दोषी पाए जाने के बाद से ही भद्र समाज के एक हिस्से में बवाल मचा हुआ है. लोकतांत्रिक और उदारवादी लोग इस फैसले से काफी चिंतित हैं. हजारों वकीलों और कई जजों तथा बुद्धिजीवियों ने खुलकर इस फैसले के खिलाफ आवाज़ उठाई है.
लेकिन तीन साल पहले जब कोलकाता हाई कोर्ट के जज जस्टिस कर्णन के खिलाफ अदालत की अवमानना मामले में फैसला आया था और जस्टिस कर्णन को छह महीने के लिए जेल भेजा गया था तो इन्हीं लोगों ने चुप रहना चुना था.
जस्टिस कर्णन भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के पहले जज हैं जिन्हें पद पर रहते हुए जेल की सजा हुई.
प्रशांत भूषण मामले में हंगामा और जस्टिस कर्णन मामले में चुप्पी के बीच फर्क इतना ज्यादा है कि उसे अलग से बताने की भी जरूरत नहीं है. मैं ये नहीं कह रहा हूं कि ऐसा सिर्फ इसलिए हुआ कि जस्टिस कर्णन दलित और प्रशांत भूषण सवर्ण हैं. ये पूरे मामले का सरलीकरण होगा जबकि मामला इतना सीधा भी नहीं है.
प्रशांत भूषण इलीट यानी भद्रलोक जमात के सदस्य हैं और उन्होंने जो सवाल उठाए हैं, उससे व्यवस्था यानि सिस्टम पर कोई सवाल नहीं उठता. वहीं, जस्टिस कर्णन भद्रलोक जमात के लिए बाहरी या अतिक्रमणकारी हैं और उनके सवाल भी पूरी व्यवस्था के खिलाफ थे और व्यवस्था को संदेह के दायरे में ला रहे थे.
इन दो मामलों को साथ रखकर देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि वैचारिक विरोध के बावजूद भारत के इलीट, साझा हितों के लिए किस तरह एकताबद्ध रहते हैं.
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जस्टिस कर्णन का पक्ष लोकविमर्श में नहीं आया
प्रशांत भूषण और जस्टिस कर्णन दोनों के ही मामले कंटेप्ट ऑफ कोर्ट एक्ट 1971 के तहत हैं. इस एक्ट में अधिकतम सजा छह महीने की जेल या/और 2000 रुपए का जुर्माना है. इस मायने में जस्टिस कर्णन को इस एक्ट के तहत अधिकतम सजा दी गई और अगर इसमें ज्यादा सजा का प्रावधान होता तो शायद उन्हें वही सजा मिलती.
जस्टिस कर्णन को छह महीने की जेल की सजा काटनी पड़ी और रिटायरमेंट के बाद उन्हें अपने पेंशन के लिए भी जूझना पड़ा. हालांकि उन्होंने संसद से लेकर तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से भी न्याय के लिए गुहार लगाई लेकिन हर मंच ने उन्हें निराश किया. किसी ने भी राहत देने की बात तो दूर उनकी शिकायतों को सुना भी नहीं. यहां तक कि उन्हें सजा सुनाए जाने से पहले उन्हें पद से हटाने के लिए महाभियोग की प्रक्रिया भी शुरू नहीं की गई, जिस वजह से उन्हें हाई कोर्ट का जज रहते हुए जेल में रहना पड़ा.
इस लेख का उद्देश्य जस्टिस कर्णन केस के विस्तार और गुण-दोष में जाना नहीं है, फिर भी संक्षेप में जान लेते हैं कि ये क्या मामला था. बीबीसी की उस समय की रिपोर्ट के मुताबिक ‘ये विवाद जनवरी 2017 में शुरू हुआ, जब जस्टिस कर्णन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर बताया कि 20 जज भ्रष्टाचार में लिप्त हैं.’
यहां से उच्च न्यायपालिका और जस्टिस कर्णन के बीच आरोप-प्रत्यारोप और अदालती फैसलों की एक ऋंखला शुरू होती है जिसका अंत सुप्रीम कोर्ट के सात जजों की बेंच द्वारा जस्टिस कर्णन को दोषी करार दिए जाने में होती है. बीबीसी की ही रिपोर्ट बताती है कि इस मामले में ‘सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया को आदेश दिया कि जस्टिस कर्णन के बयानों को न छापें और न ही दिखाएं.’
इस फैसले के बाद मीडिया ने जस्टिस कर्णन का कोई बयान या पक्ष नहीं छापा इसलिए हम नहीं जानते कि जस्टिस कर्णन का पक्ष क्या है या पूरा मामला क्या है. उस वक्त कई पत्रकारों ने मीडिया पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगाई गई पाबंदी का विरोध किया था.
अब विदेश मंत्रालय में नीतिगत सलाहकार के पद पर आसीन पत्रकार अशोक मलिक ने तब लिखा था कि– ‘अगर कोई अखबार जस्टिस कर्णन के पक्ष को छापता है तो क्या होगा? क्या सुप्रीम कोर्ट उस अखबार के संपादक और रिपोर्टर को जेल भेजेगा? किस कानून के तहत?’
Justice Karnan becomes first sitting HC judge to be sent to jail! But shouldn't SC at least allow him to speak? Why gag order? @IndiaToday
— Rajdeep Sardesai (@sardesairajdeep) May 9, 2017
So what if a newspaper reports Justice Karnan's statements? Does the Supreme Court send the editor and reporter to prison? Under which law?
— Ashok Malik (@MalikAshok) May 9, 2017
अदालत की अवमानना कानून से भारत का खास लगाव
कंटेप्ट ऑफ कोर्ट एक्ट औपनिवेशिक दौर का कानून है और इसे ब्रिटेन के कानून के अनुसार ही 1926 में बनाया गया था. इस कानून में बाद में कुछ बदलाव किए गए, हालांकि उसका मूल स्वरूप पहले जैसा बना रहा. अभी जो कानून लागू है, वह 1971 का संशोधित कानून है. दिलचस्प बात ये है कि जिस ब्रिटिश कानून की नकल में ये कानून बना है, उस ब्रिटेन में ये कानून समाप्त किया जा चुका है लेकिन भारत इस कानून से चिपका हुआ है.
लॉ कमीशन ने 2018 की अपनी रिपोर्ट में इस कानून को बनाए रखने के पक्ष में दो तर्क दिए हैं. पहला तर्क ये है कि जहां ब्रिटेन में 1931 के बाद इस कानून के तहत कोई मामला दर्ज नहीं हुआ, वहीं भारत में रिपोर्ट को लिखे जाते समय लगभग एक लाख मामले इस एक्ट के तहत चल रहे थे. दूसरा तर्क ये है कि ब्रिटेन में हालांकि इस एक्ट को खत्म किया जा चुका है लेकिन दूसरे कानूनों के तहत ऐसे मामलों में फिर भी केस चल सकता है.
खुद प्रशांत भूषण को भी इस कानून से कोई शिकायत नहीं है. जस्टिस कर्णन को जब इस कानून के तहत 2017 में सजा हुई थी, तो प्रशांत भूषण ने ट्वीट कर इस फैसले पर खुशी जताई थी और जस्टिस कर्णन को भला-बुरा कहा था. यहां तक कि इस बारे में अपने ट्वीट में भूषण ने जस्टिस कर्णन के नाम के आगे जस्टिस शब्द भी नहीं लगाया जबकि वे उस समय हाई कोर्ट के जज थे.
Glad SC finally jailed Karnan for gross contempt of court.He made reckless charges on judges &then passed absurd 'orders' against SC judges!
— Prashant Bhushan (@pbhushan1) May 9, 2017
मीडिया और ओपिनियन मेकर्स की चुप्पी
जस्टिस कर्णन को जब सजा हुई थी, तो भारत में मीडिया ने एकतरफा रुख अख्तियार कर लिया था. उस समय के अखबारों की रिपोर्ट, लेख और संपादकीय या फिर टीवी की बहस के आर्काइव पर सरसरी नज़र डालने से पता चलता है कि जस्टिस कर्णन के पक्ष को किसी ने भी नहीं रखा. कोई भी संपादकीय उनके पक्ष में नहीं लिखा गया. उनके पक्ष में उस समय सोशल मीडिया पर कोई अभियान भी नहीं चला.
मीडिया ने तो यहां तक खबर चलाई कि जस्टिस कर्णन संभवत: विदेश भाग गए हैं.
#BREAKING Reports: Justice Karnan flees India. Karnan may have crossed the border. Cops unable to locate him.
— Republic (@republic) May 11, 2017
एकतरफा मीडिया कवरेज से जस्टिस कर्णन इतने दुखी हुए कि उन्होंने मीडिया को एक खुला पत्र लिखा और कहा कि– मैंने कई बार बताया है कि मैं जाति उत्पीड़न का शिकार हूं…यह दुर्भाग्यजनक और राष्ट्रीय आपदा है कि इस मुद्दे पर नेशनल मीडिया में कभी कोई चर्चा नहीं हुई.’ उन्होंने मीडिया से ईमानदार और निष्पक्ष हो कर काम करने की अपील की. जाहिर है कि उनकी बात सुनी नहीं गई.
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जस्टिस कर्णन मामले में चुप्पी का राज़
अगर दोनों केस की बात करें तो एक फर्क साफ है. जस्टिस कर्णन ने अपनी शिकायत प्रधानमंत्री को बंद लिफाफे में भेजी. यानी उन्होंने कोई सार्वजनिक आरोप नहीं लगाया था. जबकि प्रशांत भूषण का जज के मामले में ट्वीट, सोशल मीडिया पर यानि सार्वजनिक था.
इसके बावजूद जस्टिस कर्णन को मीडिया और ओपीनियन मेकर्स ने दोषी मान लिया जबकि प्रशांत भूषण के पक्ष में बोलने वाले हजारों प्रभावशाली लोग सामने आ गए हैं. आखिर ऐसा क्यों हुआ?
इस फर्क को समझने का एक सरल तरीका तो ये कहना है कि जस्टिस कर्णन दलित हैं, इसलिए सवर्ण समुदाय द्वारा संचालित मीडिया और विश्लेषकों, जो ज्यादातर सवर्ण हैं, ने उनके पक्ष की अनदेखी की. जबकि प्रशांत भूषण सवर्ण हैं और इलीट यानि भद्र समाज का हिस्सा हैं.
ये गौर करने की बात है कि प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण देश के कानून मंत्री रहे हैं और प्रशांत भूषण और शांति भूषण को इंडियन एक्सप्रेस ने 2009 में सबसे असरदार भारतीयों की लिस्ट में 75वें स्थान पर रखा था.
मैं कवरेज में पक्षपात के लिए जाति और इलीट होने या न होने के तर्क का न समर्थन कर रहा हूं और न ही विरोध. लेकिन सिर्फ इतने भर से मामले को समझा नहीं जा सकता है. मेरी राय में जस्टिस कर्णन और प्रशांत भूषण के आरोपों में भी फर्क है और शायद यही सबसे बड़ी वजह है जिसके कारण एक मामले में चुप्पी होती है और दूसरे मामले में शोर.
जस्टिस कर्णन किसी एक जज के व्यक्तिगत आचरण की बात नहीं कर रहे थे. उनके आरोपों के दायरे में पूरी न्यायपालिका और इस तरह पूरी सत्ता संरचना थी. उनके आरोप जातिवाद और भ्रष्टाचार से संबंधित थे. एक दलित जज सवर्णों के वर्चस्व वाली न्यायपालिका को जांच के दायरे में लाए, ये बहुत बड़ा अपराध माना गया और इसे अपराध मानने वाले सिर्फ वे सात जज नहीं थे जिन्होंने कर्णन के खिलाफ फैसला सुनाया बल्कि समाज के हर प्रभावशाली आदमी ने इसे अपराध माना.
भारतीय न्यायपालिका में सवर्ण वर्चस्व एक स्थापित तथ्य है जिसे सांसद करिया मुंडा की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में स्थापित किया है और इस बारे में काफी चर्चा हो चुकी है. इस कमेटी ने पाया था कि हाई कोर्ट के 481 जजों में से सिर्फ 15 दलित और 5 आदिवासी हैं. ये स्थिति अब भी बदली नहीं है.
जस्टिस कर्णन के आरोपों को सुना जाता तो न्यायपालिका की जातिवादी संरचना पर विवाद खड़ा हो सकता था. सत्ता संरचना ऐसा कतई नहीं चाहती है.
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कर्णन सबकी आंखों में क्यों खटकते हैं?
साथ ही न्यापालिका में भ्रष्टाचार के बारे में जस्टिस कर्णन के आरोपों ने भी सत्ता संरचना को असहज कर दिया था. हम नहीं जानते हैं कि अगर प्रधानमंत्री ने जस्टिस कर्णन के आरोपों वाली चिट्ठी को सुप्रीम कोर्ट में भेजने की जगह उस पर कोई जांच आयोग बिठाया होता या संयुक्त संसदीय समिति को ये मामला सुपुर्द कर दिया होता तो उसका नतीजा क्या होता.
जस्टिस कर्णन के आरोपों की तुलना में प्रशांत भूषण कोई बुनियादी सवाल नहीं उठा रहे थे. उनका ट्वीट एक व्यक्ति विशेष यानि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एस.ए. बोबडे द्वारा एक सुपरबाइक पर सवार होने को लेकर था. ये ज्यादा से ज्यादा व्यक्तिगत नैतिकता का मामला है.
इसलिए भूषण को सत्ता संरचना के एक हिस्से का समर्थन हासिल है. भूषण सत्ता संरचना का हिस्सा हैं. जस्टिस कर्णन सत्ता संरचना के लिए बाहरी व्यक्ति हैं. इसलिए उन्हें इलीट समुदाय, मीडिया और ओपीनियन मेकर्स के बीच कोई समर्थन नहीं मिला.
(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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Very genuine views.
ये क्या फालतू लेख लिखा है ?
लेखक का लेख पूरी तरह से biased है. ये सिर्फ जातिवादी सोच पर ही लिखते हैं. इनके tweets और लेख एकतरफ़ा होता है. पत्रकार कम नेता वाली बात ज्यादा करते हैं.
जस्टिस karnan और प्रशांत भूषण को एक ही तराजू में सिर्फ जाति के आधार पर तौलने का काम किया है आपने लेख में
जबकि सर्वविदित है कि प्रशांत एक जुझारू व्यक्ति की तरह हर सत्ता या सिस्टम से लड़ते रहे हैं
प्रशांत भूषण गलत भी हो सकते हैं लेकिन ये लेख तो बहुत ही ज्यादा गलत है. कोई तथ्य नहीं हैं
ऐसे लोग यानी दिलीप मंडल जब पत्रकारिता के शीर्ष पर थे तब तो बहुत कम लिखते थे, आज जब वे मुख्यधारा की पत्रकारिता में नहीं है तो सिर्फ जहर उगलते हैं एक जाति के खिलाफ
एक पढ़ा लिखा और वरिष्ठ पत्रकार की इस तरह की भाषा नहीं हो सकती
प्रिंट के सम्पादक भी ऐसी सोच वाली लेख नहीं लिखते होंगे
आशा है ऐसे जातिवादी सोच रखने वाले पत्रकार के लेख को प्रकाशित न करें इससे प्रिंट की भी साख पर असर पड़ता है
अतिवादी सोच पर आधारित है उनका लेख. मंडल जी का ट्वीट भी देखिये हर
वक्त ट्रेंड कराने की मुहिम चलाते रहते हैं वो भी एक पक्ष के लिए
एक पत्रकार का ये काम नहीं होता ट्रेंड कराना
Jo svayam jativad me aakanth duba ho wo dusare ki sahi baat ko bhi jativadi nazar se hi dekhte hai. Lekhak ko sahi baat likhane ke liye sadhuvad
हम मौत को भी ठोकर मार के भगा देंगे,
मुर्दों को भी जीना सिखा देंगे !
जो बुझी शमा जिंदगी की तो उसे भी जला देंगे !!जिस दिन हम युवा एक हो गए !
अपने भारत को बाबा के सपनो का भारत बना देंगे
#JaiBhim ??
Indian system is a brahmnical based and miles away from natural justice. We need another Ambedkar to fight manuvad. People are being made fool by our godi media.
जब भी हम चुप नहीं रहे हमने तो बेबाकी से यह कहा कि जस्टिस करनन के साथ अन्याय हो रहा है
दिलीप मंडल जैसे फालतू के लोगो के विचारो को इस मंच पर स्थान ना दिया जाय।।।मैंने पहले भी बोला है यह सज्जन इस मंच के लायक कुछ भी ऐसा नहीं लिखते जिस से किसी पाठक को लाभ हो।।बस यह ऐसी बाते ही लिखते है जिस से समाज मै कटुता पैदा हो।।।।यह विचार किसी लेखक के ना होकर एक दिमागी रूप से कमजोर बायक्ती के है हो सकते है।
तब आप कहा थे सच के साथ रहो
निकल ले
unhone brahmno ke khilaf bola hai to wo apki nazar me pagal ho gaye agar brahmno ke hak bolte to unhe award milta ye baat bhi to kisi se nhi chupi hai ki brahman videshi hai
ऊपर लिखी टिपपणियों को देखकर लगता है कि समाज का नजरिया बदलना बेहद मुश्किल है।
It’s seems to me that in India, there is no fair system to judge the fact of corruption in judiciary. Justice karnan if exposed the corruption in judiciary system then it’s the duty of the govt agencies to investigate the matter, but the psyche of the system is biased and decided all the issues on the basis of caste and religion, befor 1947 the Britishiers also admitted that the high caste peoples of who occupied the top posts in judiciary didn’t deliver the fair justice to the other caste.
Article analyzed the facts in true spirit.
अनिश,
हमारे देश का ये दुर्भाग्य है ,
हमने तो हमारी जिंदगी जि ली ,
जीसमे हमारा कोई खास त्याग नही रहा
ये तो हमारे पूरखो का कमाल था ,
जिनके कमाल ने तस्बीरो को भी फूलो की
माला चढाने पर मजबूर किया,
ईस पीडी का कमाल तो ये हूआ के इन्हे
जीते जी घर से बाहर निकाला गया,
न्यायपालिका संविधान के अनुसार नहीं बल्कि जाति धर्म के आधार पर न्याय करती है,
It’s unfair to compare Karnan with Prashant. Karnan was an officiating judge when he made these allegations. There is no such binding on Prashant who by default is an activist.
यह लेखक एक नंबर का महामूर्ख घोर जातिवादी मालूम पड़ता है यह समाज में जातिवाद का जहर घोल रहा है ऐसी मुर्ख और बेवकूफ आदमी के लेखक को पढ़ा ना जाना चाहिए
जस्टिस कर्णन जातिवादी थे या उन पर कार्यवाही करने वाले ?
मोदी जी ने जांच क्यों नहीं कराई , njac,को सुप्रीम कोर्ट ने लागू क्यों नहीं किया ?
मंडल जी सही लिख रहे है ।
प्रशांत भूषण पर कार्यवाही क्यों ना हो जब जस्टिस कर्णन को जेल भेजा गया तब आप कहां थे?
Yes you are right, this country running in the hand of elite peoples , no one get justice only on Merritt, it is basis of social and money based,
Majority is granted here irrespective of true or false.
ऊपर लिखी टिपपणियों को देखकर लगता है कि समाज का नजरिया बदलना बेहद मुश्किल है।