सुप्रीम कोर्ट ने न्यायपालिका पर की गई ट्वीट्स के लिए वकील प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी पाया है जोकि निराशाजनक है. कोई भी आलोचना इतने बड़े संस्थान को कमज़ोर नहीं कर सकती जितना उसके अतिसंवेदनशील होने का आभास. लोकतंत्र में असहमति का जश्न मनाया जाना चाहिए, न कि इसपर अंकुश लगाने की कोशिश. अवमानना कानून की समीक्षा की जानी चाहिए.
क्या प्रशांत भूषण सबसे ऊपर हैं ?
संवैधानिक संस्थाओं की आलोचना और उनकी अवमानना में अंतर, उसकी संविधान में मौलिक प्रावधानिक शक्ति स्थिति और सामान्य जनमानस में उसकी मानसिक स्वीकृति पर निर्भर करती है| प्रशांत भूषण मामले में संवैधानिक संस्थाओं की आलोचना को, सामान्य जनमानस की नज़र में उसके संवैधानिक शक्ति स्थिति को चूनौती के तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्त किया है| जो कि देश के किसी नागरिक की अभिव्यक्ति की आज़ादी के मौलिक अधिकार पर, किसी ऐसी संवैधानिक संस्था दवारा रुकावट पैदा करना है जिस संस्था पर सबसे ज्यादा उसकी रक्षा की संवैधानिक जिम्मेदारी है| लेकिन इस के साथ साथ प्रशांत भूषण जैसे एक वकील और जिम्मेदार नागरिक को भी अपने देश के प्रति कर्तव्यों का ध्यान रखना चाहिए.