नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी, द हिंदू ग्रुप के पूर्व अध्यक्ष एन राम और अधिवक्ता प्रशांत भूषण द्वारा ‘अदालत की निंदा’ करने के लिए आपराधिक अवमानना की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका को वापस लेने की इजाजत दे दी.
याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, बी.आर. गवई और कृष्ण मुरारी की बेंच को बताया कि याचिका में उठाए गए मुद्दे ‘महत्वपूर्ण’ हैं लेकिन वे इन्हें अभी नहीं उठाना चाहेंगे.
हालांकि, धवन ने बाद में ‘शायद दो महीने या उसके बाद’ इसी तरह की याचिका दायर करने के लिए स्वतंत्रता की मांग की. पीठ ने याचिका को वापस लेने की अनुमति ये कहते हुए दी कि इसे किसी अन्य उपयुक्त मंच के समक्ष पहले दायर करें जैसे कि उच्च न्यायालय लेकिन सुप्रीम कोर्ट में नहीं.
इस याचिका में चुनौती दी गई थी कि न्यायालय अधिनियम 1971 की धारा 2(सी)(आई) ‘औपनिवेशिक मान्यताओं और वस्तुओं में निहित है, जिसका लोकतांत्रिक संवैधानिकता और रखरखाव के लिए कानूनी आदेशों में कोई स्थान नहीं है.’
याचिका दायर करने में विवाद
इस याचिका की लिस्टिंग ने पिछले हफ्ते बड़े स्तर पर ध्यान खींचा था, जब सुप्रीम कोर्ट के अधिकारियों से याचिका की ‘गलत लिस्टिंग’ पर स्पष्टीकरण मांगा गया था.
अधिकारियों ने याचिका को न्यायमूर्ति डी.वाई चंद्रचूड़ और केएम जोसेफ की पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किया था. हालांकि जस्टिस मिश्रा की अगुवाई वाली पीठ भूषण के खिलाफ दो अवमानना कार्यवाही की सुनवाई कर रही थी.
भूषण, राम और शौरी द्वारा दायर याचिका में इन कार्यवाही पर रोक लगाने की भी मांग की गई.
सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री के सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया था कि यही कारण था कि इस याचिका को भूषण के खिलाफ अवमानना मामलों की सुनवाई करने वाली उसी पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किया जाना चाहिए था, क्योंकि शीर्ष अदालत की एक पीठ अदालत की एक अन्य समन्वय पीठ के समक्ष लंबित कार्यवाही को रोक नहीं सकती.
इसके बाद याचिका को उसी पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किया गया, जिसने भूषण के खिलाफ दो अवमानना कार्यवाही की सुनवाई की- एक 2009 के तहलका साक्षात्कार से संबंधित है, जहां उन्होंने भारत के पिछले मुख्य न्यायाधीशों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगाए और दूसरा, दो ट्वीट्स के जरिए पिछले और वर्तमान सीजेआई की निंदा करने के मामले में.
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फ्री स्पीच के खिलाफ है प्रावधान: याचिका
अब वापस ली गई याचिका में कहा गया था कि यह प्रावधान, ‘असंतुष्टों और आलोचकों को धमकाने का प्रभाव’ और ‘वैध आलोचना को मौन करता है और लोकतंत्र के स्वास्थ्य में गिरावट करता है’.
धारा 2 (सी)(आई) आपराधिक अवमानना को ‘प्रकाशन (चाहे शब्दों द्वारा, बोले, लिखित या संकेतों द्वारा, या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा, या अन्यथा) के रूप में परिभाषित करता है, चाहे वह किसी भी अदालत के अधिकार को कम करता है.
याचिका में यह भी आरोप लगाया गया था कि प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 और 19 का उल्लंघन करता है.
यह तर्क दिया गया था कि धारा 2 (सी)(आई) अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत गारंटीकृत अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है और मुक्त भाषण पर एक ‘चिलिंग प्रभाव’ बनाता है.
याचिका में यह भी कहा गया था कि प्रावधान ‘अस्वाभाविक रूप से अस्पष्ट’ है, जिसके कारण ‘व्यक्तिपरक और बहुत अलग रीडिंग और एप्लिकेशन हैं. यह आगे दावा करता है कि ‘जिस तरह से कानून लागू होता है, उसमें अनिश्चितता मनमाने ढंग से प्रकट होती है और समान उपचार के अधिकार का उल्लंघन करती है.’
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