अर्थव्यवस्था के लिए मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं. वित्त नीति पर तमाम तरह के आंकड़ों का दबाव बढ़ता जा रहा है— जून वाली तिमाही में खर्चे आमदनी से 5.4 गुना ज्यादा हुए. बृहस्पतिवार को साफ हो गया कि मुद्रा नीति में कुछ करने की गुंजाइश नहीं बच गई है क्योंकि पॉलिसी दरें असल में (यानी मुद्रास्फीति का हिसाब करने के बाद) ऋणात्मक हो चुकी हैं. सरकार और रिज़र्व बैंक अपने हाथ बंधे हुए महसूस कर रहे हैं, तो अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए उपलब्ध संसाधनों का संकट पैदा हो गया है क्योंकि अनुमान यही है कि जीडीपी 5 प्रतिशत से ज्यादा सिकुड़ने वाली है. खबर है कि पिछली तिमाही में कॉर्पोरेट मुनाफे में करीब 30 फीसदी की गिरावट आई और परिवारों को रोजगार छिनने के कारण संकट झेलना पड़ रहा है. इसलिए, ग्रोथ को आधार प्रदान करने वाली बचत और निवेश का मैक्रो-इकोनोमिक अनुपात गिर रहा है. इसलिए सरकार उपलब्ध बचत में ज्यादा हाथ डालने वाली है.
इन समस्याओं के जल्दी गायब होने की उम्मीद नहीं है, बल्कि जून वाली तिमाही के आंकड़े एक खाई का संकेत देते हैं. सुधार शुरू होगा मगर किस स्तर तक गिरावट के बाद? उदाहरण के लिए, जून वाली तिमाही सरकारी राजस्व में पचास फीसदी की कमी आई है. सितंबर वाली तिमाही में अगर इसमें दोगुनी वृद्धि भी हो तो भी इस साल के वित्तीय घाटे का जो 8 ट्रिलियन का लक्ष्य तय किया गया था उसमें आधा साल बीतते तक भारी इजाफा हो चुका होगा. अगर वर्ष की दूसरी छमाही में राजस्व के बारे में काफी उदार अनुमान भी लगाया जाए तब भी घाटा जीडीपी के 6.4 प्रतिशत से भी ज्यादा के बराबर हो चुका होगा, जो कि 2009-10 में लगाए गए सबसे ऊंचे (या शायद नीचे) अनुमान के बराबर होगा. इसका अंदाजा लगाते हुए सरकार ने वर्ष के लिए उधार की जरूरत में 50 फीसदी वृद्धि करके इसे 12 ट्रिलियन तय किया है. लेकिन उसे इससे भी ज्यादा की जरूरत पड़ेगी और मुद्रा नीति पर दबाव और बढ़ेगा क्योंकि रिज़र्व बैंक सरकार के बैंकर की भूमिका निभा रहा होगा.
इस तरह हम नीतियों को वापस लेने तक पहुंचेंगे. मान लें कि भारी वित्तीय सहायता ही एकमात्र समाधान है, जैसा कि तब हुआ था जब विश्वव्यापी वित्तीय संकट के कारण वित्तीय घाटा जीडीपी के 2.5 प्रतिशत से बढ़कर 6.5 प्रतिशत के बराबर पहुंच गया था. इसके बाद हालात में तेजी से सुधार हुआ था, कुछ लोग उसे काफी तेज सुधार कह सकते हैं. लेकिन तब और अब में अंतर है. तब, घाटा और सार्वजनिक उधार छोटा था इसलिए विशाल वित्तीय सहायता और विस्तृत सार्वजनिक उधार की गुंजाइश थी. आज, आंकड़े इतने दबाव में हैं कि सरकार को बेमन से ही, नोट छापने पड़ सकते हैं. घाटे को नोट छाप कर स्वतः पूरा करने की नीति फिर लागू करनी पड़ सकती है. यह नीति 1990 के दशक में खारिज कर दी गई थी.
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इस बीच, रिजर्व बैंक ने बुरे ऋणों का जो अनुमान लगाया है उसके समुद्र में गोते लगाएंगे और उन्हें अतिरिक्त 4 ट्रिलियन की पूंजी की जरूरत पड़ेगी. चूंकि वह पूंजी उपलब्ध नहीं हो सकती और ज्यादा कंपनियां घाटे में जा सकती हैं, इसलिए वित्तीय तथा कॉर्पोरेट सेक्टरों को दोहरी बैलेंसशीट के जरिए सक्रिय रखने का एकमात्र उपाय दूसरे मोर्चे पर रॉलबैक पॉलिसी लागू करना हो सकता है. रिजर्व बैंक ने ऐसा अभी हाल में ही कर्ज के रीस्ट्रक्चरिंग की खारिज की जा चुकी चाल को फिर से लागू करके किया है.
अगर मैक्रो-इकोनोमिक मैनेजमेंट पर इतना दबाव है कि रॉलबैक मजबूरी ही बन जाए, तो लंबी अवधि वाली पॉलिसी का क्या होगा? सरकार ने अब तक केवल श्रम नीति को आसान बनाने (राज्यों के जरिए), नये सेक्टरों (मसलन, कोयला खनन) में विदेशी निवेश आमंत्रित करने, निर्यात के विकल्प को बढ़ावा देने, और परिवहन के ढांचे में सुधार का ही काम किया है. इससे फर्क तो पड़ेगा मगर इन सबका अच्छा ही नतीजा मिले यह जरूरी नहीं. चीन से आयात (जो कि तेल के अलावा दूसरी चीजों के व्यापार में कमी का बड़ा हिसा है) को वापस करने की बात तो समझ में आती है, लेकिन खुला व्यापार भारत के लिए फायदेमंद है, इस विश्वास में कमी के कारण सरकार ने खारिज की जा चुकी कांग्रेसी नीति को अपना लिया है, हालांकि वह कांग्रेस के अवशेषों को दफन कर देना चाहती है. इसलिए दो और नीतियां वापस लौटी हैं- ऊंची टैरिफ की नीति और आयात लाइसेंस की नीति.
खारिज की जा चुकी नीतियों को वापस लागू करने के नतीजे अच्छे न मिले हों, यह कोई पहली बार नहीं हुआ है. यह सरकार सोचती है कि वह बेहतर नतीजे हासिल कर लेगी. उसके लिए शुभकामनाएं लेकिन ऐसा लगता है कि कोविड-19 की मार दैवीय कृपा के बिना रूकने वाली नहीं है. उसने उथल-पुथल की शुरुआत की और उसे जारी रखा है. काश धर्म लोगों के लिए सरकारी अफीम की भूमिका निभाने से ज्यादा कुछ कर पाती.
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