एक समय था जब अमिताभ बच्चन हैरान हो गए थे कि दाढ़ी रखने के उनके फैसले पर कोई अखबार संपादकीय तक लिख सकता है. जी हां, यह दो दशक पहले की बात है. उनके वर्तमान और पूर्व राजनीतिक संरक्षक—नरेंद्र मोदी और गांधी परिवार (या उनके उत्तराधिकारी)— भी आज उतने ही हैरान होंगे कि इस कोरोना महामारी के दौरान उन्होंने अपनी छवि में जो बदलाव किया है उस पर सोशल मीडिया में इतनी चर्चा क्यों हो रही है.
प्रधानमंत्री मोदी की थोड़ी बढ़ी हुई दाढ़ी और बढ़ी हुई मूंछों को लेकर, जो नीचे से थोड़ी मुड़ी हुई नज़र आती हैं, ट्विटर पर दिलचस्प बातें लिखी जा रही हैं. कोई सलाह दे रहा है कि वे महाभारत के भीष्म की तरह लहराती दाढ़ी-मूंछ बढ़ा लें, तो किसी को उनमें छत्रपति शिवाजी की छवि दिख रही है. अमेरिकी लेखिका नोरा रोबर्ट्स ने कहा है, ‘ज़िंदगी एक मूंछ जैसी है. वह निराली भी हो सकती और भद्दी भी, लेकिन वह हमेशा गुदगुदाती है.’ ऐसा लगता है, मोदी की घनी मूंछें आज कई लोगों की कल्पनाओं को गुदगुदा रही हैं.
पिछले शुक्रवार को बांग्लादेश के नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री मोहम्मद यूनुस से बातचीत करते राहुल गांधी जिस तरह सफाचट चेहरे में दिखे उसने ‘ट्विटराटियों’ का ध्यान उनके नए हेयरकट पर टिका दिया और कुछ लोग सवाल करने लगे कि कहीं वह पुराना वीडियो तो नहीं था, या यह उन्हें ‘रीपैकेज करके लॉन्च’ करने की कोशिश तो नहीं थी?
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अपने नेताओं के चेहरे पर बालों को कुछ शुद्धतावादी लोग भले मामूली चीज़ मानते हों, मगर उसको लेकर बेतुकी हाय-तौबा मचाने का आरोप केवल भारत के लोगों पर ही नहीं लगाया जा सकता. अमेरिकी लोग भी डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता बेतो ओ’रुर्क की दाढ़ी को लेकर परेशान हैं. अमेरिका के टेक्सास के डेमोक्रेट नेता रुर्क ने पिछले दिसंबर में राष्ट्रपति पद की अपनी उम्मीदवारी वापस लेने के बाद अपने चिकने-चुपड़े चेहरे को छोड़कर दाढ़ी रखने का फैसला कर लिया था.
इसी तरह, कनाडा के लोग अपने प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो की खिचड़ी दाढ़ी पर फिदा हुए जा रहे हैं. दर्शनशास्त्र के एक प्रोफेसर ने ‘द ग्लोब ऐंड मेल’ अखबार में लिखा, ‘क्या ट्रूडो ज्यादा बुजुर्ग और ज्यादा विशिष्ट दिखने की कोशिश कर रहे हैं? या वे ज्यादा युवा और ‘हिप’ दिखने की कोशिश कर रहे हैं?’ शायद राहुल गांधी ऐसे सवालों के जवाब देने की बेहतर स्थिति में हैं. प्रोफेसर साहब ने इस विषय पर गहन मंथन करते हुए आगे यह भी बताया कि मानव सभ्यता में दाढ़ियों का इतिहास लंबा रहा है और उन्हें पौरुष तथा शक्ति का प्रतीक माना जाता रहा है, ‘आखिर दाढ़ी के बाल पौरुष के हारमोन की ही तो देन हैं!’
इसलिए, आइए हम मोदी और राहुल की नयी छवि के बारे में कुछ मीनमेख निकालें. सबसे पहली बात यह है कि दोनों एक-दूसरे के एकदम विपरीत छवि प्रस्तुत करते हैं. एक तो ज्ञानी, संत, सांसारिकता से विरक्त व्यक्ति की छवि प्रस्तुत करता है, तो दूसरा उत्साह से भरे, उत्सुक, और भोलेपन की हद तक मासूम व्यक्ति की छवि पेश करता है. उन दोनों का आज का रूप दरअसल उनकी सियासत को सबसे स्पष्ट रूप से परिभाषित करने और उनमें अंतर बताने वाले तत्व को उजागर करता है.
मोदी और राहुल के नये रूप उनके मन के आईने
हम नहीं जानते कि मोदी कब से दाढ़ी रखने लगे थे. सार्वजनिक तौर पर उनकी जो पुरानी तस्वीरें उपलब्ध हैं उनमें सबसे पहले हम उन्हें गुजरात भाजपा के संगठन सचिव के रूप में देखते हैं, जब वे 1990 में घनी काली दाढ़ी-मूंछ में लालकृष्ण आडवाणी के रामरथ पर विराजमान देखते हैं. धीरे-धीरे उनकी दाढ़ी-मूंछ खिचड़ी, और फिर सफ़ेद हो गईं.
मोदी ने 2002 में गुजरात दंगों से निपटने में वहां के मुख्यमंत्री के रूप में जिस तरह की भूमिका निभाई उसमें कई लोगों को खोट दिखती होगी मगर कोई भी उन पर यह आरोप नहीं लगा सकता कि अपनी वैचारिक और राजनीतिक मान्यताओं से वे विचलित हुए, जिन पर वे अपनी दाढ़ी-मूंछ की तरह स्थिर रहे. यहां तक कि वह उनकी शैली का बयान बन गई. कुछ लोग इसे उनकी सियासत का बयान भी कह सकते हैं. गौरतलब है कि मई 2019 में मोदी के 58 सदस्यीय मंत्रिमंडल में 18 मंत्री दाढ़ी वाले थे.
इसके विपरीत राहुल गांधी अपना रूप भी बदलते रहे हैं और अपनी धारणाएं तथा संदेश भी. कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रों की मानें तो वे अपनी खूंटी दाढ़ी रखने या उसे साफ करने का फैसला खास दिन के अपने राजनीतिक कार्यक्रमों के स्वरूप या मकसद के हिसाब से करते हैं. अगर वे खुद को ‘सिस्टम’ से लड़ने वाले क्रांतिकारी के रूप में पेश करना चाहते हैं तो चे ग्वेरा वाला ‘लुक’ ओढ़ लेते हैं— मसलन, 2010 में जब वे ओड़िशा के नियमगिरि में वेदांता की खनन परियोजना का विरोध कर रहे आदिवासियों के ‘सिपाही’ बनने गए थे, या 2103 में उन्होंने प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल के अध्यादेश की धज्जियां उड़ाने गए थे तब उनका ‘लुक’ ऐसा ही था.
फर्क सिर्फ यह है कि अर्जेंटीना के क्रांतिकारी चे ग्वेरा की ठुड्डी के नीचे उतनी चर्बी नहीं थी जितनी राहुल की है, और चे की मूंछें कहीं ज्यादा घनी और लंबी थीं. लेकिन असली मकसद तो खुद को ‘सिस्टम’ से लड़ने वाला, अपनी ‘इमेज’ आदि के मामले में बेतरतीब, बेपरवाह नेता के रूप में पेश करना है.
जब राहुल खुद को मोदी के सशक्त प्रतिद्वंद्वी, और मध्य वर्ग को रिझाने के लिए उसकी आकांक्षाओं की राजनीति करने वाले नेता के रूप में पेश करना चाहते हैं, तब वे बागी वाली खूंटीनुमा दाढ़ी से मुक्त फुर्तीले छैले वाले रूप में होते हैं. मसलन 2013 में उन्हें उद्योगों के संघ ‘सीआईआई’ के सदस्यों को संबोधित करते देख लीजिए या 2019 में चेन्नई के स्टेला मारिस कॉलेज के छात्रों के बीच देखिए या फिर संसद में गले लगाने और कनखी मारने की राजनीति करते देख लीजिए!
राहुल की अपनी नियमावली में इस तरह के रूपों और छवियों को संभवतः समाज के समर्थ से लेकर वंचित तबकों तक, कथित तौर पर परस्पर विरोधी हितों वाले समूहों का भरोसा जीतने वाले टोटके के रूप में दर्ज किया गया है. लेकिन ऐसा करके उन्होंने तमाम लोगों को उलझन में ही डाल दिया कि आखिर वे खुद किन विचारों में भरोसा करते हैं.
आखिर ये रूप कितने दिन के?
वैसे, राहुल को आप प्रायः खूंटीनुमा दाढ़ी में ही देख सकते हैं क्योंकि उन्हें चिर-क्रांतिकारी दिखना है, भले ही क्रांति का कोई लक्ष्य हो या न हो. पिछले सप्ताह कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्लूसी) की बैठक में उन्होंने अब तक अपने प्रति वफादार रहे राजीव साटव को पुराने पार्टी नेताओं के खिलाफ बोलने को उकसा दिया. साटव ने इन नेताओं से कहा कि वे जरा आत्ममंथन करें कि मनमोहन सिंह सरकार से जुड़े होने के कारण वे 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की भारी हार के लिए कितने जिम्मेदार हैं. याद रहे कि 2014 में सोनिया गांधी पार्टी अध्यक्ष थीं, जो आज भी पुराने नेताओं पर भरोसा करती हैं; जबकि 2019 में राहुल पार्टी अध्यक्ष थे.
और साटव जब युवक कांग्रेस अध्यक्ष थे, उसी दौरान पार्टी में लोकतंत्र बहाल करने का राहुल का प्रयोग विफल हुआ था और राहुल ने उनके लिए 2014 के लोकसभा चुनाव में ‘एनसीपी’ को किसी तरह राजी करके हिंगोली की सुरक्षित सीट की व्यवस्था की थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल के एक और चहेते केसी वेणुगोपाल ने अपनी अलप्पुझा सीट से चुनाव लड़ने से मना कर दिया. नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस महाराष्ट्र और केरल की इन दोनों सीटों पर हार गई, जिन पर राहुल के ये सिपाही पहले काबिज थे. इन दोनों को बाद में राज्यसभा सीट देकर पुरस्कृत किया गया.
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पार्टी के पुराने नेताओं के खिलाफ युद्धघोष करने वाले साटव और वेणुगोपाल सरीखे जनरलों के बूते तो लगता है कि पूर्व-व-भावी कांग्रेस अध्यक्ष के लिए लड़ाई लंबी ही होने वाली है. जाहिर है, अपनी पार्टी के भीतर के ‘सिस्टम’ से निपटने के बाद ही राहुल असली लड़ाई लड़ने— मोदी से मुक़ाबला करने— पर ध्यान दे पाएंगे. इसलिए, ऐसा लगता है कि भविष्य में आप राहुल को प्रायः दाढ़ी के साथ ही देखेंगे.
जहां तक प्रधानमंत्री मोदी की बात है, उनकी लटकती मूंछें और बढ़ी हुई दाढ़ी उन्हें संन्यासी वाली छवि प्रदान करती है, और ऐसा लगता है कि जब तक भारत के 130 करोड़ लोग तमाम तरह के संकटों से घिरे रहेंगे तब तक वे खुद को सजाने-संवारने पर शायद ही समय बर्बाद करेंगे. उनकी सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए उभरे तमाम खतरों, अर्थव्यवस्था और कोरोना महामारी की चुनौतियों से निपटने में जिस तरह निष्प्रभावी होती दिख रही है, उसके मद्देनजर एक कृपालु संन्यासी की छवि ही उनके लिए मुफीद होगी. 5 अगस्त को जब वे अयोध्या में राम मंदिर के लिए भूमि पूजन करेंगे तब यह उनकी इस छवि के आभामंडल को और चमक ही प्रदान करेगा.
आश्चर्य नहीं कि कल को संबित पात्रा मुझे मोदी के द्वारा लिये गए किसी ऐसे संकल्प के बारे में बताएं जिसके बारे में हम अभी तक अनजान हैं.
(लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)
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Tum jaise Congressi patrkar Rahul ko modi saman batakar jitni bhi Rahul ki Charan Vandana Kar lo…..lekin jab kisi gadi ke engin Mai hi dam nahi hai usko aap kitana hinsaza lo bo performance nahi degi….yahi bat Rahul or b lagu hoti hai…is desh ko apna baviys nirman karna hai to uske liy ek menati or pursharthi vyakti ki jarurat hai….aaj modi ji aisa kr rahe hai to janta unkr sath hai Kal koi or neta itani hi mahnet or lagan or deshbahkti se desh ki seva karega to janata usko support kaergi….samje chutiy….m
Totally absurd article. Shear waste of time. We have many important issues the country facing not Rahul beard.
???