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Wednesday, 18 December, 2024
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दिल बेचारा: सुशांत सिंह राजपूत का आख़िरी काम दिल को छू लेता है, लेकिन इसे बेहतर लिखा जा सकता था

दिल बेचारा में सुशांत सिंह राजपूत और संजना सांघी दोनों ने अच्छा काम किया है, लेकिन वो फिल्म को इसके स्क्रीनप्ले के ख़ालीपन से नहीं बचा पाए.

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एक नौजवान सितारा जो जल्दी चला गया और ऐसी कहानी जो पल भर की ज़िंदगी की बात करती है. उम्मीद है कि दिल को छू लेने वाली अदाकारी के साथ, सुशांत सिंह राजपूत की आख़िरी फिल्म, दिल बेचारा, वो क्लोज़र दे पाएगी जो उसकी मौत से हिला हुआ देश चाह रहा है.

जॉन ग्रीन्स की किताब, ‘द फॉल्ट्स इन आवर स्टार्स’ पर आधारित फिल्म, दिल बेचारा एक ऐसे नौजवान जोड़े की कहानी है, जो कैंसर की काली घटा के बीच उम्मीद की किरन तलाश रहा है. किज़ी बासु (अपनी पहली फिल्म में संजना सांघी) एक कॉलेज छात्रा हैं, जो अकेली और इंट्रोवर्ट क़िस्म की इंसान है. उसे थायरॉयड कैंसर भी है, जिसकी वजह से सांस लेने के लिए, उसे ऑक्सीजन टैंक के सहारे रहना पड़ता है. उसकी ख़ामोश ज़िंदगी में एक दिन भूचाल आ जाता है, जब उसका सामना इमैनुअल राजकुमार जूनियर या मैनी (सुशांत सिंह राजपूत) से हो जाती है, जिसने कुछ साल पहले उसी के कॉलेज से पास किया है, और जो ख़ुद भी एक कैंसर सरवाइवर है. उसकी अजीब-अजीब हरकतें और बॉलीवुड का जुनून, शुरू में किज़ी को परेशान करता है, लेकिन किज़ी से मोहित होकर मैनी जब उसका पीछा करता है, तो वो उसकी तरफ सॉफ्ट हो जाती है. दोनों में प्यार हो जाता है, लेकिन फिर उनकी ज़िंदगी उन्हें झटका देती है क्योंकि उनकी बीमारी जानलेवा है.

फिल्म की कहानी काफी हद तक, अपनी जड़ों और उसके हॉलीवुड रूपांतर पर क़ायम रहती है- ज़ाहिर है इसमें बॉलीवुड की कुछ छाप भी है. लेकिन भारत के हिसाब से ढाला गया ये वर्जन, एक छोटी दुखद कहानी को अच्छे से पेश करने की कोशिश की गई है.

लेकिन जो चीज़ अखरती है वो है इसका लेखन, जो कुछ ख़ास नहीं है. इसके पात्र अच्छे तो लगते हैं, लेकिन उन्हें बैक-स्टोरीज़ के साथ ठीक से तराशा नहीं गया है. बहुत से दृश्य और सेकेण्डरी कैरेक्टर्स बिना किसी परिचय या जानकारी के सामने आ जाते हैं. मिसाल के तौर पर, शुरू के सीन में किज़ी को किसी अजबनी के अंतिम संस्कार में शामिल होते दिखाया गया है, और बताया गया है कि वो अकसर ऐसा करती हैं. लेकिन इस आदत का आगे कोई ज़िक्र नहीं है, न ही इसे समझाया गया है. ये बहुत दुखद है क्योंकि इससे हीरोइ के चरित्र और कहानी दोनों को कुछ नई गहराई मिल सकती थी, जिसकी इसमें कई जगह  बहुत ज़रूरत महसूस होती है.

फिल्म की ख़ूबी ये है कि ये छोटी है और कसी हुई है, और कहीं पर भी ज़्यादा ठहरती नहीं है. ड्रामाई दृश्यों की अवधि बिल्कुल सही है, बस इतनी लंबी कि आपके दिल को छू जाए, इतनी नहीं कि आप बोर होने लगें. किज़ी और मैनी के बीच के युवा रोमांस को भी अच्छे से दर्शाया गया है. प्यार में गिरफ्तार युवा जोड़ा जो छोटी छोटी बेवक़ूफियों पर हंसता है, और एक दूसरे से दूर नहीं रह सकता, जिसे देखकर आप मुस्कुराते हैं, और आपके पेट में कुछ कुछ होता है. ज़ाहिर है कि ये काफी हद तक राजपूत और सांघी की अदाकारी की वजह से है.

पात्र में प्रेरणा न होने के बावजूद, इस जोड़ी ने अच्छी आदाकारी पेश की है. इससे साफ ज़ाहिर है कि राजपूत, इमैनुअल के किरदार में अंदर तक समा गया, और उसकी कोशिश नज़र भी आती है- वो हमेशा हंसता रहने वाला, हंसमुख स्वभाव का ब्राइट मैनी है. सांघी ने भी एक संकोची और शर्मीली लेकिन मज़ाक़िया किज़ी का किरदार ख़ूबसूरती से निभाया है. साश्वता चटर्जी और स्वास्तिक मुखर्जी ने, किज़ी के सरपरस्त और चाहने वाले पेरेंट्स के तौर पर, भारतीय माता-पिता के किरदार का एक ताज़ा चित्रण किया है.

इस कहानी से हम सब वाक़िफ हैं, लेकिन फिर भी ये फिल्म हमारे दिल को छू लेती है. इसके किसी भी पहलू में अति नहीं की गई, और ये उस दर्द में मरहम का काम करती है, जिसे हम सबने पिछले हफ्ते महसूस किया.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में भी पढ़ा जा सकता है, यहां क्लिक करें)

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