केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को पुराने फिल्मी गाने बहुत पसंद हैं. लेकिन उनके पसंदीदा गाने कौन-से हैं, यह आप नहीं जान सकते, क्योंकि वे एक उत्सुक रिपोर्टर को झिड़क चुके हैं कि ‘मेरी पर्सनल लाइफ से आपको क्या?’ लेकिन अगर आप वसुंधरा राजे से इस बारे में अटकलें लगाने को कहें तो वे शायद शमशाद बेगम के गाए ‘सीआइडी’ फिल्म के इस गाने का जिक्र करेंगी—‘कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना/ जीने दो ज़ालिम, बनाओ न निशाना...’ राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को इस गाने में शमशाद बेगम की शोख आवाज़ शायद उतनी नहीं चुभेगी, जितने इसके गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी के बोल चुभेंगे.
राजस्थान के मौजूदा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ बगावत करने वाले कॉंग्रेस नेता सचिन पाइलट की पीठ पर भाजपा जिस तरह अपना हाथ रखती दिखी, वह पूरा ‘प्लॉट’ इतना जाना-पहचाना हो चुका है कि अब उबाऊ हो गया है— एक और महत्वाकांक्षी कांग्रेस नेता बगावत करता है; विधायकों की कथित खरीद-बिक्री का खेल शुरू हो जाता है; और एक और गैर-भाजपा/एनडीए शासित राज्य सरकार गिरने के कगार पर पहुंच जाती है. कथा में मामूली हेरफेर हो सकती है मगर पूरी पिक्चर लगभग देखी हुई-सी लगती है.
लेकिन उपकथाएं ज्यादा दिलचस्प होती जा रही हैं. दो सिंधियाओं में जंग छिड़ गई है, और उधर वसुंधरा राजे ने भाजपा आलाकमान के निर्देश की अवज्ञा करते हुए गहलोत-पाइलट जंग में कूदने से मना करके अपना नुकसान किया है. शनिवार को उन्होंने छोटा-सा ट्वीट जारी करके जो नसीहत दी कि ‘जनता के बारे में सोचिए!’, वह दरअसल इस कोरोना संकट के दौरान राजस्थान की कांग्रेस सरकार को गिराने की कोशिशों के लिए अपनी ही पार्टी को बड़ी बारीकी से दी गई झिड़की जैसी ही थी.
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शाही जंग
राजे अपनी पार्टी के साथियों को मजरूह का यह गाना राजस्थान में बजाते हुए क्यों देख सकती हैं, यह जानने से पहले हम पहले वाले प्लॉट पर नज़र डाल लें यानी दो सिंधियाओं की जंग पर. ग्वालियर के पूर्व राजघराने के वंशज यों तो जायदाद के विवाद में लंबे समय से उलझे हुए हैं मगर चुनाव में वे कभी एक-दूसरे के खिलाफ प्रचार नहीं करते. पहली बार वे 2018 में मध्य प्रदेश के कोलारस उपचुनाव में एक-दूसरे के आमने-सामने आए थे. ज्योतिरादित्य सिंधिया वहां कॉंग्रेस उम्मेदवार के लिए प्रचार कर रहे थे, तो उनकी बुआ यशोधरा राजे वहां भाजपा उम्मीदवार के लिए प्रचार कर रही थीं. मार्च में जब ज्योतिरादित्य भाजपा में शामिल हो गए तो यशोधरा राजे ने यह ट्वीट करके उनका स्वागत किया कि राजमाता (विजया राजे सिंधिया) के खून ने राष्ट्रहित में फैसला किया और ‘अब मिट गया हर फासला‘.
राजस्थान की जंग में एक ओर हैं ज्योतिरादित्य, जो कांग्रेस में अपने पुराने साथी सचिन पायलट की परदे के पीछे से मदद कर रहे थे; तो दूसरी तरफ हैं उनकी बुआ वसुंधरा राजे, जिनका राजनीतिक भविष्य बगावत कर रहे पायलट के विजेता बनने पर बिगड़ सकता है वसुंधरा एक पक्की भाजपा नेता हैं मगर राज्य की कांग्रेस सरकार को गिराने की अपनी पार्टी की कोशिशों से उन्होंने खुद को अलग रखा है. राज्य के पूर्व उप-मुख्यमंत्री पायलट भाजपा में शामिल होकर या अपनी अलग पार्टी बनाकर भाजपा के समर्थन से अगर मुख्यमंत्री बन गए तो यह दो बार मुख्यमंत्री रह चुकीं वसुंधरा के लिए एक झटका होगा. पिछले दो दशकों से वे और अशोक गहलोत ही इस गद्दी पर बारी-बारी से बैठते रहे हैं. एक अलग विकल्प उभरे, वह भी भाजपा आलाकमान के समर्थन से, तो यह वसुंधरा के लिए खेल बिगड़ने वाली बात होगी.
सिंधिया घराने की इन दो शाखाओं के रिश्तों में कितनी बर्फ जमी है यह कोई रहस्य नहीं है, हालांकि वे जब कभी आमने-सामने हो जाते हैं तब एक-दूसरे के प्रति पूरा सम्मान प्रदर्शित करते हैं. ज्योतिरादित्य और उनके फुफेरे भाई दुष्यंत (वसुंधरा के पुत्र) वर्षों से सांसद हैं मगर उन दोनों को कभी आपस में दुआ-सलाम करते या सेंट्रल हॉल में अगल-बगल बैठते नहीं देखा गया. लुटिएन्स की दिल्ली में होने वाली पार्टियों में भी घराने की इन दोनों शाखाओं के सदस्यों को शायद ही कभी एक साथ देखा गया हो.
जाहिर है कि ज्योतिरादित्य राजस्थान में वही कर रहे हैं, जो उनकी पार्टी भाजपा चाहती है. अब इससे उनकी बुआ के हितों को चोट पहुंचती है तो वे क्या कर सकते है!. गहलोत और पायलट की जंग का जो भी नतीजा निकले, या तो जीत बुआ की होगी या भतीजे की.
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राजस्थान में भाजपा बनाम वसुंधरा
भाजपा आलाकमान और खासकर अमित शाह से पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा के रिश्ते कैसे ठंडे-से हैं यह कोई रहस्य नहीं है. प्रदेश इकाई में अगली कमान किसे सौंपनी है इस बारे में भाजपा आलाकमान की योजना के तहत लंबे समय से वसुंधरा के विरोधियों को आगे बढ़ाया जा रहा है. उनमें से एक, केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ज्योतिरादित्य के साथ मिलकर वसुंधरा को दरकिनार करने में जुटे हुए हैं.
उधर पायलट और भाजपा की सहयोगी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के हनुमान बेनीवाल वसुंधरा पर खुलकर निशाना साधते रहे हैं और उन पर गहलोत को बचाने के आरोप लगा रहे हैं. वसुंधरा पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से निशाना साधने वालों में एक राजपूत (शेखावत), एक गुर्जर (पायलट), और एक जाट (बेनीवाल) शामिल हैं. वसुंधरा खुद एक राजपूत की बेटी, जाट की बहू, और गुर्जर की समधन (उनके पुत्र की शादी गुर्जर परिवार में हुई है) हैं, और उन्हें अपने ऊपर हमला करने वालों के जातीय समीकरण का बखूबी पता है. उन्हें यह संदेह करने के पर्याप्त कारण हैं कि भाजपा नेतृत्व अगर राजस्थान में सत्ता हथियाना चाहता है, तो इसके साथ वह उन्हें भी निशाना बना रहा है— कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना.
लेकिन ऐसा लगता है कि वह वसुंधरा को कमतर आंक रहा है. एक तो, राजस्थान में वे निर्विवाद रूप से एक जननेता का कद रखती हैं और प्रदेश भाजपा में उनकी टक्कर का कोई नहीं है. भाजपा आलाकमान राजस्थान में जिन गजेंद्र सिंह शेखावत को उनके विकल्प के रूप में आगे बढ़ा रहा है, वे दो बार लोकसभा चुनाव ‘मोदी लहर’ के बूते ही जीत पाए हैं और जोधपुर के बाहर उन्हें शायद ही ज्यादा लोग जानते हैं. दूसरे, वसुंधरा के राजनीतिक कौशल को दिल्ली में बैठे उनके साथी काफी कम करके ही आंकते हैं. 2002 में जब वे प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनकर जयपुर आई थीं तब हर कोई यही मानता था कि वे तब के दिग्गज भाजपा नेता, साम-दाम-दंड-भेद की नीति में माहिर भैरोंसिंह शेखावत के साये में ही रहकर काम कर पाएंगी. उनके करीबी लोग उनके बारे में दिलचस्प कहानियां सुनाते हैं.
बाइपास सर्जरी करवाने के बाद एक बार शेखावत कुछ पत्रकारों के साथ बैठे थे कि एक डॉक्टर आया. शेखावत पान पराग के जबरदस्त शौकीन थे और उसका पाउच उनके बगल की टेबल पर पड़ा रहता था. डॉक्टर ने इस पर आपत्ति की तो वे बोले, ‘मैं दशकों से इसका आदी रहा हूं, इसे छोड़ने में समय लगेगा.’ डॉक्टर ने पूछा कि आप रोज कितने पाउच इस्तेमाल करते हैं तो उन्होंने कहा, दो पाउच. डॉक्टर ने कहा, ‘ठीक है, आज से इसे घटाकर एक कर दीजिए.’ शेखावत राजी हो गए. डॉक्टर के जाने के बाद वे हंसने लगे, ‘अरे, मैं तो रोज एक ही पाउच इस्तेमाल करता हूं. अगर मैंने यह बताया होता तो वह आधा करने के लिए कहता.’ वहां बैठे लोगों ने इससे यही सबक लिया कि ये राजपूत नेता ऐसे सियासतदां हैं जो डॉक्टर से भी सीधी बात नहीं करते. उनके बारे में कहानियां बताई जाती हैं कि वे संभावित असंतुष्टों की ‘फाइल’ रखा करते थे.
लेकिन प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनीं वसुंधरा चंद महीनों के भीतर शेखावत से आगे बढ़ गईं. शेखावत को अपने दामाद नरपत सिंह रजवी को मंत्री बनवाकर संतोष करना पड़ा था और वसुंधरा से सुलह करनी पड़ी थी. तब के एक और दिग्गज नेता जसवंत सिंह को भी उनसे जल्दी ही सुलह करनी पड़ी थी. आगे चलकर वसुंधरा आरएसएस का वरदहस्त रखने वाले कई भाजपा नेताओं की चुनौतियों को भी निरस्त करके डटी रहीं. इन नेताओं में ब्राह्मण नेता घनश्याम तिवाड़ी (अंततः पार्टी से रुखसत हुए), गुलाब चंद कटारिया (वर्तमान विपक्ष के नेता), और ओम माथुर सरीखों के नाम लिये जा सकते हैं.
राजस्थान विधानसभा के 2003 के चुनाव में उनकी ‘परिवर्तन यात्रों’ को भारी समर्थन मिल रहा था, इसके बावजूद कई नेता यही कह रहे थे कि ‘रानी साहिबा’ कुछ खास नहीं कर पाएंगी. उस समय उनके करीबी सहायक चंद्रराज सिंघवी अपने नेता के सुर में सुर मिला रहे थे. मैं उस समय ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के लिए काम कर रहा था, और तब हमारे पास मोबाइल नहीं, पेजर होते थे. सिंघवी लैंडलाइन पर फोन जब-तब करते, मैं उठाता तो उधर से गुनगुनाती हुई आवाज आती—’एक सौ बीस…’, और फिर एक हंसी. यानी 200 विधानसभा सीटों में से उन्हें 120 मिल रही हैं. यह अक्सर होता. प्रायः मेरा जवाब होता, ‘आपके लिए तो बढ़िया है सिंघवी साहब...’
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जब नतीजे आए, भाजपा को पूरी 120 सीटें मिली थीं, न एक कम और न एक ज्यादा. यह बड़ी जीत थी. शेखावत के जमाने में तो भाजपा स्पष्ट बहुमत तक नहीं हासिल कर पाई थी. 2013 के चुनाव में उसकी सीटें बढ़कर 163 हो गईं. 2018 में जब वे घटकर 73 हो गईं तब भाजपा हलके में यही कहा जाता था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता ने पार्टी को इससे भी बुरे नतीजे से बचा लिया. यह और बात है कि 2003 या 2013 में तो वहां नहीं थे. जनप्रिय नेता होना मोदी-शाह की भाजपा में अच्छी बात नहीं है. यकीन न हो तो बी.एस. येदियूरप्पा, शिवराज सिंह चौहान, या रमन सिंह से पूछ लीजिए.
(यहां व्यक्त विचार निजी हैं)
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