पिछले दस दिनों से ‘कूटनीतिक तथा सैन्य सूत्र’ मीडिया को वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर भारतीय सेना और चीनी सेना पीएलए के बीच टकराव को दूर करने और सेनाओं को पीछे हटाने के बारे में की ताज़ा जानकारियां दे रहे हैं. मीडिया कोई जांच करने की कोशिश किए बिना उन जानकारियों को खबर बनाकर प्रस्तुत करता रहा है.
14 जुलाई को चुशुल में कोर कमांडर स्तर की बातचीत हुई. सूत्रों के मुताबिक देप्सांग और पैंगोंग झील के क्षेत्र में सेनाओं को पीछे हटाने पर कोई सहमति नहीं हो पाई और यह कि सेनाओं को हटाने की कुल रफ्तार ‘बहुत सुस्त है, जो अगले कई महीनों तक चल सकती है.’ वार्ताओं में जो मसले उठाए जा रहे हैं उनकी समीक्षा सेना मुख्यालय और ‘चाइना स्टडी ग्रुप’ (सीएसजी) ने की है. इस ग्रुप में आला सरकारी अधिकारी, सेना और खुफिया तंत्र के लोग शामिल हैं. यह ग्रुप कार्यपालिका के नीतिगत सलाहकार के रूप में काम करता है.
सेना वापसी की अपारदर्शी प्रक्रिया
सूत्रों के आधार पर आई मीडिया रिपोर्टों को मानें तो गलवान घाटी और हॉट स्प्रिंग-गोगरा इलाकों में दोनों सेनाएं डेढ़-दो किलोमीटर पीछे हटी हैं और इस तरह बीच में एक ‘बफर ज़ोन’ बना है, जिसमें दोनों पक्ष न तो गश्ती कर सकते हैं और न सेना तैनात कर सकते हैं. इसका नतीजा यह होगा की भारत अपनी सड़क नहीं बना सकेगा. पैंगोंग झील के उत्तर में पीएलए फिंगर 4 से 8 तक के इलाके में जमी हुई है और इसके उत्तर में ऊंची पहाड़ियों पर भी बनी हुई है. देप्सांग के मैदानी इलाके में जो झड़प हुई थी उसके बारे में कोई भी जानकारी सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं है. गलवान घाटी और हॉट स्प्रिंग-गोगरा इलाकों के बारे में भी यह स्पष्ट नहीं है कि पीएलए एलएसी से पीछे हटी है या नहीं या केवल झगड़े वाली जगह से डेढ़-दो किमी पीछे हटी है.
रक्षा विशेषज्ञों ने जब यह सवाल उठाया कि बफर ज़ोन बनाने से तो ‘अपनी जमीन ही गंवानी पड़ी’ और ‘गश्ती का अधिकार’ भी छिन गया, तो ‘सूत्रों’ ने अपने पुराने बयान को वापस ले लिया. एक वरिष्ठ सैन्य कमांडर ने कहा, ‘कोई बफर ज़ोन नहीं बना है. दोनों पक्षों ने सिर्फ यह किया है कि वे अपनी-अपनी पिछली स्थिति में लौट गए हैं. ताकि कोई हादसा या झड़प न हो. पीएलए अपने ढांचों को तोड़ रही है, वाहनों को पारदर्शिता की खातिर दिन में हटा रही है. वह चाहती है कि भारतीय सेना उतना ही पीछे हटे, क्योंकि दोनों पक्षों के बीच विश्वास की कमी है. एक चिनगारी फिर आग लगा सकती है और सभी वार्ताओं की उपलब्धियों को नष्ट कर सकती है.
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11 जुलाई को ‘इंडियन ग्लोबल वीक 2020’ के दौरान प्रोग्राम संचालक के सवाल के जवाब में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा, ‘आपसी सहमति के आधार पर फौजों के पीछे हटाने और तनाव खत्म करने की प्रक्रिया चल रही है. यह शुरू हो चुकी है और काम में प्रगति हो रहा है. इस समय मैं इससे ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहूंगा.’ यह चीनी बयानों के उलट है, जिनमें ‘तनाव कम करने ‘ की कोई बात नहीं कही गई है, सिर्फ ‘फौजों को हटाने’ की बात पर ज़ोर दिया गया है.
एलएसी पर सैन्य स्थिति क्या है, इस पर कोई औपचारिक बयान न तो सरकार ने दिया है और न सेना ने. ऐसा लगता है कि हम इसी जाने-पहचाने चक्र में उलझ गए हैं. रणनीतिक और सामरिक स्तरों पर चीनी कारवाई से हम अचानक हैरत में पड़ते हैं. हम कहीं ज्यादा फौजी ताकत से जवाब देने की कोशिश करते हैं, घुसपैठ कहां-कहां हुई है और कितनी दूर तक हुई है इस बारे में कभी औपचारिक तौर पर खुलासा नहीं किया जाता, फ़ौजी और कूटनीतिक वार्ताओं और रियायतों का नतीजा यह निकलता है कि हम गश्त लगाने, सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने का अधिकार खो देते हैं और अपनी जमीन खो देते हैं लेकिन कुछ भी सार्वजनिक तौर पर बताया नहीं जाता, लेकिन यह दावा किया जाता है कि ‘हम जीत गए’ सरकार की रणनीति और अपनी बहादुर सेना की क्षमताओं का गुणगान किया जाता है. हाल के संकट में अपने 20 जवानों की शहादत एक अलग नुकसान है.
भारत और चीन के बीच सैन्य और आर्थिक क्षमताओं का जो अंतर है. उसके मद्देनज़र सरकार अगर रियायतें देकर या वैसे भी संकट को दूर करने के लिए कूटनीतिक उपायों का सहारा लेती है तो उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन सुम्दोरोंग चू संकट (1986-87) के बाद आज भारत को एलएसी पर जिस सबसे बड़े संकट का सामना करना पड़ रहा है उसके बारे में चुप्पी और अपारदर्शिता के कारण गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं. इससे भी गंभीर बात यह है कि इस तरह का भ्रम फैलाया जा रहा है कि भारत की मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति और फौजी ताकत के कारण चीनियों को पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा है, और यह भी कि कोई घुसपैठ नहीं हुई है और हमने कोई जमीन नहीं गंवाई है.
इस तरह का रुख न केवल चीन के दावों को मजबूत करता है बल्कि हमारे पड़ोसी और विश्व बिरादरी भी इसे हमारी कमजोरी के रूप में देखती है. यहां तक कि देश में भी इसकी पोल आज-न-कल खुल जाएगी. ‘डोकलाम विजय’ के दावे इसकी एक सही मिसाल हैं, जहां फ़ौजे हटाने की अपारदर्शी प्रक्रिया ने दरअसल चीनियों के लिए पूरे पठार पर कब्जा करना आसान बना दिया. इसे आप गूगल अर्थ पर देख सकते हैं. यह अंजाम हमें क्यों भुगतना पड़ा? अब हमने खुद को जिस रणनीतिक पचड़े में उलझा लिया है उससे उबरने का क्या उपाय है?
गलती कहां हुई?
व्यापक राष्ट्रीय शक्ति, खासकर आर्थिक और सैन्य मामलों में भारत और चीन के बीच जो बड़ी खाई है. वह हमें पारंपरिक युद्ध में उसकी बराबरी करने की छूट नहीं देती है. जिस तरह चीन ने दिसंबर 1978 के बाद से 30 साल तक तैयारी की, उसी तरह बेहतर यही होता कि हम भी समय का सदुपयोग करते. तंग श्याओ पिंग ने 24 शब्दों की जो रणनीति बनाई थी- ‘शांति से सब पर नज़र रखो, अपनी स्थिति मजबूत करो, मसलों का शांति से निबटारा करो, अपनी क्षमताओं को छुपाओ और अपना समय काटो, खुद को विनम्र दिखाने में महारत हासिल करो, कभी भी नेतागीरी करने का दावा मत करो’- उसने चीन को कृषि, उद्योग, विज्ञान-तकनीक, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे चार मोर्चों में आधुनिकीकरण पर ज़ोर देने का मौका दिया.
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हम अपनी सैन्य क्षमता का नैतिक मूल्यांकन करने में विफल रहे और जब यह किया भी, तो सम्पूर्ण सुधारों और जरूरी कोश के बीच की खाई को कम करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया. फौजी तंत्र ने सरकार को जमीनी हकीकत से अवगत कराने की जगह उसके राजनीतिक आख्यान का हिस्सा बनना कबूल कर लिया. इसमें शक नहीं कि सेना 1962 से बहुत आगे बढ़ आई है, लेकिन इसी बीच पीएलए ने हमसे कहीं ज्यादा बढ़त हासिल कर ली. इन स्थितियों में हमने चीन को विदेश नीति के व्यापक स्तर पर चुनौतियां पेश करने के अलावा अक्साई चिन के – जिसे पीएलए ने 1950 के दशक में कब्जे में ले लिया था- मामले में और दौलत बेग ओल्डी, हॉट स्प्रिंग-गोगरा तथा पैंगोंग झील के क्षेत्रों में अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर मजबूत करने की तेज कार्रवाइयों से उसकी भौगोलिक अखंडता को चुनौती दी.
इस चुनौती को चीन ने तब और बड़े खतरे के रूप में देखा जब हमने अपनी हारी हुई जमीन को वापस हासिल करने के राजनीतिक इरादे जाहिर किए. लेकिन हममें उन इलाकों को वापस हासिल करने की सैन्य क्षमता तो नहीं ही थी, हम संवेदनशील क्षेत्रों में सीमा पर जो सड़कें बना रह थे उनकी सुरक्षा के लिए अपनी सेना तैनात करने में विफल रहे. 1962 में भी युद्ध मुख्यतः इसलिए हुआ था कि चीन को अपनी जमीन पर भारत से खतरा महसूस हुआ था.
यही वजह है कि चीन ने भारत-चीन सीमा पर एलएसी के आसपास शांति बनाए रखने के 1993 के समझौते का उल्लंघन किया. उसने उभरते खतरे को पहले ही खत्म करने के लिए 1959 में किए गए दावे वाली रेखा तक के क्षेत्र पर एकतरफा कब्जा कर लिया. भारत को जाने-अनजाने राजनीतिक और सैन्य मोर्चे पर पहले ही शह दे दी गई. या तो हमें खुफिया जानकारी नहीं मिली या हमने उसकी अनदेखी करके स्थिति का गलत आकलन किया. इस तरह हम सामरिक क्षमता रखते हुए भी पीएलए को इन क्षेत्रों में रोकने का मौका गंवा बैठे.
इसके बाद चीन ने तनाव बढ़ाने का जिम्मा हम पर डाल दिया. सैनिक क्षमता में अंतर और बड़े झटके के जोखिम ने हमें तनाव बढ़ाने से रोक दिया.
भारत को अपने राजनीतिक लक्ष्य बदलने होंगे
अगर हम तनाव बढ़ाने पर आमादा नहीं हैं, तो रणनीतिक उदारता का तकाजा है कि हम अपने राजनीतिक लक्ष्य बदलें, कि हम अप्रैल 2020 से पहले की यथास्थिति बहाल करना चाहते हैं. मेरा आकलन है कि सरकार पहले ही यह कर चुकी है. दोनों देश अप्रैल 2020 से पहले वाली स्थित बहाल करने और बफर ज़ोन बनाने पर सहमत नज़र आते हैं. इन बफर जोनों में कोई गश्त नहीं होगी, कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं बनेगा. चीन को 1959 वाली रेखा हासिल होगी, हमें बफर ज़ोनों के साथ अप्रैल 2020 से पहले वाली स्थिति हासिल होगी. दोनों की लाज बच जाएगी.
लेकिन इस पर मेरी तीन शर्तें हैं. पहली, समझौते को औपचारिक रूप दिया जाए. दूसरी, सरकार विपक्ष और मीडिया को भरोसे में ले और जनता को मसले की पूरी जानकारी दे. मुझे विश्वास है कि जनता सरकार का समर्थन करेगी. अगर यह सब नहीं किया जाता तो यह चीन की जीत होगी और चीनी दार्शनिक का यह कथन सही साबित होगा कि ‘एक सौ लड़ाइयों में एक सौ जीत हासिल करना कोई चतुराई नहीं है. चतुराई तो इसमें है कि आप लड़े बिना दुश्मन को जीत लें.’
अंतिम मगर अहम बात यह है कि भारतीय सेना को चीन की पीएलए की बराबरी में लाने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था में सुधार करने के वास्ते रणनीति की नैतिक समीक्षा की जाए. यह मैं सेना में रहते हुए और उससे बाहर आने के बाद भी कहता रहा हूं कि सुधारों के लिए एक और 1962 जैसी भूल करें का इंतजार मत कीजिए. हालांकि हाल में ऐसी भूल छोटे स्तर पर कर दी है, लेकिन वक़्त आ गया है कि अब हम सुधार करने में जुट जाएं.
(ले. जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रिट.) ने भारतीय सेना की 40 साल तक सेवा की. वे उत्तरी कमान और सेंट्रल कमान के जीओसी-इन-सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. ये उनके निजी विचार हैं)
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