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Friday, 22 November, 2024
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‘हम निशाने पर हैं’—जम्मू-कश्मीर गांव के निर्वाचित प्रतिनिधियों ने बताया जान का खतरा लेकिन सरकार के हाथ बंधे

बांदीपुरा में स्थानीय भाजपा नेता की हत्या के बाद जम्मू-कश्मीर प्रशासन पर निर्वाचित प्रतिनिधियों को सुरक्षा मुहैया कराने का दबाव बढ़ गया है, प्रतिनिधियों का कहना है कि वादे पूरे नहीं किए जा रहे.

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श्रीनगर: केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में सरकार एक बार फिर इस बात को लेकर खासी दुविधा में है कि पंच और सरपंच समेत तमाम स्थानीय प्रतिनिधियों की सुरक्षा पर खतरे से कैसे निपटे, जिन पर नरेंद्र मोदी सरकार की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने का जिम्मा है.

उत्तरी कश्मीर के बांदीपोरा जिले में कांग्रेस के सरपंच को गोली मार दिए जाने के एक माह बाद ही एक स्थानीय भाजपा नेता की हत्या से केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासन और पुलिस बल पर दबाव बढ़ गया है.

कश्मीर, जहां सुरक्षा स्थिति को लेकर अनिश्चितता कायम है, में सरकारी अधिकारियों ने दिप्रिंट को बताया कि सभी मौजूदा पंचों और सरपंचों को सुरक्षा प्रदान करना मुश्किल हो सकता है, उन लोगों को तो छोड़ दें जो निकट भविष्य में खाली सीटों पर पुन: चुनाव की निर्धारित प्रक्रिया के तहत चुने जाने वाले हैं.

कश्मीर में कुल 19,582 पंच और सरपंच सीटें हैं. आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 2018 शहरी स्थानीय निकाय और पंचायत चुनावों में इन पदों में से केवल 7,528 पर चुनाव लड़ा गया था. लेकिन जम्मू में 148 ब्लॉक के 18,182 पदों में से केवल 93 रिक्त हैं.

नाम न देने की शर्त पर एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने कहा, ‘इन चुने हुए प्रतिनिधियों के अलावा, प्रशासन को पूर्व मंत्रियों, राजनेताओं, कार्यकर्ताओं और यहां तक कि पत्रकारों को भी सुरक्षा प्रदान करनी होती है, जो कथित धमकी की स्थिति का सामना कर रहे हैं. यह सब केंद्रशासित प्रदेश सरकार के कामकाज को और अधिक चुनौतीपूर्ण बना देता है.

सीधी बात है खतरे की आशंका के आधार पर सुरक्षा की अपेक्षा करने वाले हर व्यक्ति को सुरक्षा मुहैया कराने के लिए 35,000 से अधिक विशेष पुलिस अधिकारी (एसपीओ) और 90,000 से अधिक जम्मू-कश्मीर पुलिस बल के अन्य कांस्टेबल पर्याप्त नहीं है.’

अधिकारी ने कहा, ‘केंद्रीय अर्धसैनिक बल भी तमाम लोगों की सुरक्षा में लगे हैं लेकिन मुख्यधारा की राजनीति या सरकार से जुड़े इन महिलाओं और पुरुषों की जान बचाने की हमारी हरसंभव कोशिश ज्यादा प्रभावी आतंकवाद रोधी अभियान होगी.’

अधिकारी ने कहा, ‘बांदीपुरा में मारे गए राजनीतिक नेता की सुरक्षा में 10 एसपीओ तैनात थे, लेकिन वह भी आतंकियों को हमले से नहीं रोक पाए. इसलिए, स्थिति से निपटने के लिए हर नागरिक की सुरक्षा में पुलिसकर्मी को तैनात करने बजाए बहुआयामी उपाय अपनाने होंगे.’

पिछले हफ्ते आतंकी संगठनों की तरफ से मिली धमकियों के कारण भाजपा को अपने सदस्यों, जिसमें पंच और सरपंच शामिल थे. को पुलिस सुरक्षा में कश्मीर के विभिन्न सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाना पड़ा.

स्थानीय नेताओं में भय

इन घटनाओं के बाद स्थानीय निकाय से जुड़े नेताओं में भय का माहौल है, जिन्हें पिछले दो वर्षों में घाटी के जमीनी स्तर के नए नेताओं के तौर पर पेश किया गया, खासकर अनुच्छेद 370 खत्म किए जाने के बाद.

मुख्य क्षेत्रीय ताकतों नेकां और पीडीपी के बहिष्कार के बीच 2018 के चुनावों में निर्वाचित इन स्थानीय प्रतिनिधियों को अधिकार और इससे भी ज्यादा बढ़कर सुरक्षा देने का वादा किया गया था.

अब, अधिकांश पंच और सरपंच ने दिप्रिंट से बातचीत के दौरान उनके चुनाव के बाद से जम्मू-कश्मीर प्रशासन द्वारा किए जा रहे व्यवहार को लेकर असंतोष जताया. राजनीतिक विचारधारा से परे सभी नेताओं ने असुरक्षा की भावना जताई, भाजपा और कांग्रेस दोनों से ही जुड़े पंच और सरपंच जम्मू-कश्मीर सरकार के साथ-साथ नरेंद्र मोदी सरकार को जिम्मेदार ठहराते हैं.

प्रतिनिधियों ने वादों पर अमल न होने, वरिष्ठ नौकरशाही की तरफ से अनदेखी और इस तरह की घटनाओं से आतंकी समूहों से अपनी जान को खतरा बढ़ने की शिकायत की.

‘आतंकी सरकार के प्रतीकों पर हमला कर रहे’

पिछले हफ्ते भाजपा नेता वसीम बारी की उनके पिता और भाई के साथ हत्या कर दिए जाने की घटना बेहद अलग किस्म की थी क्योंकि यह घटना न केवल बांदीपोरा पुलिस स्टेशन और सीआरपीएफ के एक ठिकाने से कुछ ही मीटर की दूरी पर हुई, बल्कि 10 विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) की मौजूदगी के बावजूद हुई जो उनकी सुरक्षा में लगे थे.

यह वारदात दक्षिण कश्मीर के लारीपोरा के लुकबावन गांव से कांग्रेस पार्टी के सरपंच अजय पंडिता को आतंकवादियों द्वारा गोली मार दिए जाने की घटना के कुछ ही हफ्ते बाद हुई है.

इन मामलों के बाद से स्थानीय पंचों और सरपंचों को यह लगने लगा है कि जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने 2018 के चुनावों से पहले किए गए सुरक्षा के वादे को पूरा नहीं किया है.

बडगाम जिले के एक निर्दलीय सरपंच शेख जावेद ने कहा, ‘आतंकवादी किसी खास (व्यक्ति) पर हमला नहीं कर रहे हैं. वे सरकार के प्रतीकों को निशाना बना रहे हैं, वह जहां भी मौजूद हों और हम सरकार का चेहरा हैं, जमीनी स्तर के नेता हैं.’

उन्होंने कहा कि बांदीपुरा में राजनीतिक नेता की हत्या, जबकि वह किसी भी आधिकारिक पद पर नहीं थे, ने सभी दलों के नेताओं के बीच भय का माहौल बना दिया है. जावेद ने कहा, ‘हम निशाने पर हैं’

अशांत क्षेत्र पुलवामा के एक सरपंच और भाजपा के जिलाध्यक्ष साजिद रैना उन सैकड़ों निर्वाचित पंचों और सरपंचों में शामिल हैं जिन्होंने श्रीनगर के सुरक्षित होटलों में रहने के लिए 2018 में चुनाव होने के पहले ही अपना घरों को छोड़ दिया था।

चुनाव जीतने और हारने वालों दोनों के लिए होटल में रहने की व्यवस्था कराई गई थी. लगातार आतंकी खतरों के कारण ये अब भी अपने घर लौटने में असमर्थ हैं.

रैना ने बताया, ‘मैं पुलवामा का एक सरपंच हूं और अपने गांव और अपने जिले में नहीं रह सकता. हम यह नहीं कह रहे हैं कि हमें दर्जनों पीएसओ मुहैया कराएं ताकि हम घर वापस जा सकें और अपने कर्तव्य निभा सकें… लेकिन सरकार कम से कम इतना तो सुनिश्चित करे कि हमारे पास कुछ सुरक्षा हो ताकि हमारा भरोसा बढ़ सके.’


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कोई हमारी बात नहीं सुनता’

आरएसएस से संबद्ध मुस्लिम राष्ट्रीय मंच से जुड़े खाग के एक अन्य सरपंच राशिद भट ने एक और बड़ी समस्या की ओर ध्यान आकृष्ट किया—‘स्वीकार्यता का अभाव’

भट ने कहा, ‘किन्हीं कारणों से प्रशासन हमें निर्वाचित प्रतिनिधियों के तौर पर नहीं मानता है, जिससे हमारी स्थिति और अधिक कमजोर हो जाती है. हमारे लिए केवल सुरक्षा खतरे का सामना करना ही पर्याप्त नहीं होगा बल्कि हमें नौकरशाही में कायम लालफीताशाही से भी निपटना होगा.’

उन्होंने कहा, ‘उदाहरण के तौर पर मेरे अपने क्षेत्र में हमारे लिए पानी के साथ-साथ बिजली भी बड़ी समस्या है. मैंने इन मुद्दों को संबंधित सरकारी विभागों के समक्ष उठाया. यद्यपि जल विभाग ने कई महीनों बाद आखिरकार मेरे अनुरोध पर कुछ काम किया लेकिन उसकी जानकारी मुझे देने की जहमत नहीं उठाई, वहीं बिजली विभाग ने तो कई जवाब तक नहीं दिया. हम एक साल से अधिक समय से बिजली के ट्रांसफार्मर की मांग कर रहे हैं लेकिन यहां कुछ नहीं होता.’

हालांकि, एक सरकारी अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि फरवरी 2019 में पुलवामा हमले के बाद से ‘लगातार उथल-पुथल’ मची है. अधिकारी ने कहा, ‘अनुच्छेद 370 हटाना और महामारी (कोविड-19) के कारण कुछ शिथिलता आई है लेकिन हम सही रास्ते पर बढ़ रहे हैं.’

चुनाव से पहले क्या हुआ

1993 में संविधान के 73 वें संशोधन के जरिये पूरे भारत में त्रिस्तरीय पंचायत प्रणाली की शुरुआत की गई थी. लेकिन यह जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं थी.

2018 में तत्कालीन जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक की अध्यक्षता वाली राज्य प्रशासनिक परिषद (एसएसी) ने जम्मू-कश्मीर पंचायती राज अधिनियम, 1989 में संशोधन किया, जिससे स्थानीय प्रतिनिधियों को अपने क्षेत्र में केंद्र प्रायोजित विभिन्न विकास योजनाओं पर सीधे अमल और कुछ सरकारी कार्यालयों और स्कूलों की निगरानी का जिम्मा मिला.

राज्य की दो प्रमुख राजनीतिक पार्टियों, पीडीपी और नेकां ने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म करने की मोदी सरकार की योजनाओं के विरोध में बहिष्कार की घोषणा की.

इससे उपजी सियासी शून्यता को भाजपा या कांग्रेस में शामिल होने वाले ऐसे लोगों ने तुरंत भर दिया जिन्हें घाटी के राजनीतिक परिदृश्य में अपनी अहमियत बढ़ने की उम्मीद थी. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया.

नेताओं ने कहा, प्रशासन को हमारी परवाह नहीं

एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी के मुताबिक, प्रतिनिधियों को नरेगा, स्वच्छ भारत मिशन और प्रधानमंत्री आवास योजना सहित केंद्र सरकार की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से विकास कार्य कराने के लिए धन दिया जाता है।

अधिकारी ने कहा, ‘ मैं यह नहीं कहूंगा कि सरपंचों और सरकारी अधिकारियों के बीच कोई शत्रुता हैं लेकिन कभी-कभी हम गतिरोध में अटक जाते हैं क्योंकि इनमें से अधिकांश प्रतिनिधि पहली बार निर्वाचित हैं जिन्हें आधिकारिक पद संभालने का कोई अनुभव नहीं होता है. उनका इरादा नेक हो सकता है लेकिन ये कार्यान्वयन की पेचीदगियों को नहीं समझते हैं.’

हालांकि, ग्राम प्रधानों का कहना है कि सरकारी धन प्राप्त करने की प्रक्रिया, जो कि किस्तों या चरणों में होती है, सुचारू नहीं है. जावेद ने कहा. ‘मुझे बताया गया था कि धन नौ चरणों में आएगा. चौथे चरण तक मुझे धनराशि मिलती रही और काम भी पूरा हुआ, लेकिन पिछले साल के बाद से धन नहीं आया है.’

रैना कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि केंद्र धन भेजने के लिए अनिच्छुक है. रैना ने कहा, ‘बात इतनी है कि यहां की नौकरशाही हम पर विश्वास नहीं करती है या फिर सोचती है कि हम ज्यादा अक्लमंद हैं.’ उन्होंने नौकरशाही पर समस्याओं के संदर्भ में भेज गए प्रस्तावों और अनुरोधों पर कछुए की चाल से आगे बढ़ने का आरोप भी लगाया.

रैना ने कहा, ‘मुझे लगता है कि मेरी बात कतई नहीं सुनी जा रही है. मैं भले ही अपने घर लौटने में सक्षम नहीं हो सकता लेकिन जहां भी रहूं वहीं से अपने लोगों के लिए काम करना चाहूंगा।‘

दिप्रिंट टिप्पणी के लिए रैना के क्षेत्र के उपायुक्त राघव लंगर के पास पहुंचा, लेकिन यह रिपोर्ट प्रकाशित होने तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली.


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‘प्रशासन अपने मन की करता है’

बीरवाह के सरपंच और ऑल जेएंडके पंचायत कांफ्रेंस के प्रांतीय अध्यक्ष (कश्मीर प्रभाग) मुश्ताक खान ने केंद्रशासित प्रदेश प्रशासन पर सुरक्षा प्रदान करने में मनमाना रवैया अपनाने का आरोप लगाया।

खान ने कहा, ‘मैं 1994 से कांग्रेस से जुड़ा हुआ हूं और मेरे जीवन पर खतरों को देखते हुए एक पीएसओ दिया गया लेकिन सैकड़ों अन्य निर्वाचित प्रतिनिधियों का क्या. अजय पंडिता की हत्या के बाद जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल ने हमें मिलने का समय तक नहीं दिया.’

उन्होंने आगे कहा, ‘जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक की तरफ से किए गए वादे के मुताबिक निर्वाचित पंचों और सरपंचों को सुरक्षा दी जानी चाहिए. बांदीपोरा की घटना के बाद से सुरक्षा की मांग को लेकर हर दिन मेरे पास पंचों और सरपंचों से 50 फोन आ रहे हैं लेकिन मैं क्या कर सकता हूं? खुद को असहाय महसूस कर रहा हूं।‘

पिछले सितंबर में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने केंद्रशासित क्षेत्र में प्रत्येक पंच और सरपंच को सुरक्षा और 2 लाख रुपये का जीवन बीमा कवर देने का आश्वासन दिया था.

मागम में कांग्रेस के पंच मोहम्मद अब्दुल्ला के मुताबिक बीमा का कोई बहुत मतलब नहीं है. उन्होंने कहा, ‘मैंने सब कुछ ऊपर वाले पर छोड़ दिया है। मेरा कोई दुश्मन नहीं है और मैं केवल ऊपर वाले से अपनी सुरक्षा की दुआ करता हूं. मुझे यहां की सरकार पर भरोसा क्यों करना चाहिए?’

दिप्रिंट ने ग्रामीण विकास और पंचायती राज सचिव शीतल नंदा से टिप्पणी के लिए संपर्क किया लेकिन रिपोर्ट प्रकाशित करने के समय तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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