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Wednesday, 20 November, 2024
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भारत में कोविड के कारण हर रोज मौत का आंकड़ा छह हफ्ते में दोगुने से ज्यादा हुआ, पॉजिटिव होने की दर भी बढ़ी

विशेषज्ञों का कहना है कि चिंता का कारण उम्र के आधार पर मौत का आंकड़ा है—मरने वालों में 47% की उम्र 60 साल से कम है, और यह इस बात का स्पष्ट संकेत हो सकता है कि भारत बुजुर्गों की मौत का आंकड़ा पता लगाने में चूक रहा है.

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नई दिल्ली: मोदी सरकार प्रति लाख जनसंख्या पर मामले/मौतें जैसे आंकड़ों का हवाला देकर बार-बार यह बताती रही है कि भारत कोविड-19 बीमारी के खिलाफ कितनी बेहतर स्थिति में है, लेकिन पिछले छह हफ्तों में, रोजाना होने वाली मौतों का आंकड़ा दोगुने से अधिक हो गया है–1 जून को 204 की तुलना में 12 जुलाई को यह 500 हो गया.

इसके अलावा पॉजिविटी रेट—कुल नमूनों की जांच में सामने आने वाले केस की दर—भी इस अवधि में तेजी से बढ़ी है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2-7 जून के बीच वाले हफ्ते में यह 7.14 फीसदी थी, जबकि 6-12 जुलाई के हफ्ते में पॉजिविटी की दर 9.8 फीसदी रही.

Graph by Soham Sen | ThePrint
ग्राफिक्स- सोहम सेन/दिप्रिंट

रोजाना मौत के आंकड़े में यह वृद्धि हर दिन तिगुने केस आने के साथ हुई जिससे भारत में मामलों के मुकाबले मौत की दर दुनिया के अन्य देशों के मुकाबल सबसे कम अनुपात में है, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि आयु के लिहाज से मौत के आंकड़े चिंता की वास्तविक वजह हैं.

यह एक तथ्य कि भारत में 47 प्रतिशत मौतें 60 साल से कम उम्र के लोगों की हुई हैं, जो इसका स्पष्ट संकेतक हो सकता है कि भारत में बुजुर्ग आबादी में मौत के मामले सामने नहीं आ रहे.

देश में कुल मामलों में मृत्यु दर मौजूदा समय में 2.6 प्रतिशत है, जबकि वैश्विक स्तर पर यह आंकड़ा 4.3 प्रतिशत है.


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हर रोज मौत के बढ़ते आंकड़े

1 जून को कोविड-19 से 204 मरीजों की मौत हुई थी. तब से, संख्या लगातार बढ़ रही है, हालांकि हर दिन यह वृद्धि एक मामूली अंतर वाली होती है. 16 जून को 2003 नई मौतों के आंकड़े के साथ एक अपवाद दिखा, जब एक लंबे राजनीतिक टकराव के बाद दिल्ली, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने उन मौतों को सूची में जोड़ा जो पहले हुई थीं और जिन्हें कोरोनावायरस के कारण होना नहीं माना गया था.

मौतें रोकना कोविड-19 की रोकथाम के उपायों का एक प्रमुख लक्ष्य रहा है क्योंकि सरकार और स्वास्थ्य अधिकारियों दोनों का कहना है कि चिकित्सा जरूरत वाले एक मरीज के लिए इलाज मिलने में देरी को घटाना ही अक्सर जीवन-मरण के बीच निर्णायक होता है.

हालांकि, महामारी विज्ञान विशेषज्ञ डॉ. जेपी मुलियिल का कहना है कि मृतकों की संख्या चिंता की उतनी बड़ी वजह नहीं है जितनी मरने वालों की प्रोफाइल.

उन्होंने कहा, ‘वायरस से संक्रमित लोगों की एक निश्चित अनुपात में मृत्यु होगी. हालांकि, अन्य देशों की स्थिति यह है कि सभी मरने वालों में 90 प्रतिशत बुजुर्ग होते हैं. यहां यह आंकड़ा सिर्फ 52 फीसदी है, जो मुझे इस संदेह की मजबूत वजह देता है कि हम मौतों, खासकर शहरी झुग्गियों में बुजुर्गों के मामले में, की संख्या कम रिपोर्ट कर रहे हैं.’

उन्होंने कहा, ‘क्या आपको लगता है कि एक शहरी झुग्गी में निमोनिया और सांस की बीमारी से जूझ रहा कोई गरीब, बूढ़ा व्यक्ति चिकित्सा सहायता मांगने आएगा? आपने क्वारंटाइन करने और घर सील करने जैसे उपायों से उस व्यक्ति के लिए यह सब बेहद मुश्किल बना दिया है. हम जिस आंकड़े से चूकने की बात कर रहे हैं वह शायद यही आबादी है. यही नहीं मौत के इन आंकड़ों को उच्च कुपोषण जैसे तर्कों से भी स्पष्ट नहीं किया जा सकता है क्योंकि हम उस तरह के कुपोषण से नहीं जूझ रहे हैं.

डॉ. मुलियिल, जो सीएमसी वेल्लोर के पूर्व प्रिंसिपल भी हैं, ने कहा, ‘मोटापा भी एक तरह बीमारी है, लेकिन अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों की तुलना में अपने यहां यह उतनी बड़ी समस्या नहीं है. फिर यहां इतनी अधिक संख्या में युवा लोग क्यों मर रहे हैं? क्योंकि हम बुजुर्गों की मौत के आंकड़े शामिल करने से चूक रहे हैं.’

इंटीग्रेटेड डिसीज सर्विलांस प्रोग्राम (आईडीपीएस) के आकलन में उम्र के आधार पर वर्गीकरण से पता चलता है कि मरने वालों में 0.54 प्रतिशत 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चे, 2.64 प्रतिशत 15-29 वर्ष उम्र वाले, 10.82 प्रतिशत 30-44 वर्ष के बीच की आयु वाले, 32.79 फीसदी 45-59 वर्ष की आयु वाले, 39.02 फीसदी 60-74 वर्ष आयु वर्ग वाले और 12.88 फीसदी 75 वर्ष से अधिक आयु वाले हैं,

राज्यों के बीच असमानता

स्वास्थ्य मंत्रालय की तरफ से संकलित आंकड़ों के मुताबिक 12 जुलाई तक, देश में कोविड के कारण हुई कुल मौतों—23,174 में से लगभग आधी अकेले महाराष्ट्र में हुई हैं.

शुरू से ही इस बीमारी से जूझ रहे इस राज्य में अब तक सबसे अधिक मौतें (10,289) हुई हैं, इसके बाद दिल्ली (3,371) और तमिलनाडु (1,066) का नंबर है. फिर पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में क्रमशः 934 और 932 मौतें हुई हैं.

डॉ. मुलियिल जहां मृतकों की उम्र के ब्योरे को लेकर सवाल खड़े कर रहे हैं, संक्रामक रोगों पर नजर रखने वाली केंद्रीय एजेंसी नेशनल सेंटर फॉर डिसीज कंट्रोल को मरने वालों में बिना दो या ज्यादा गंभीर रोगों से पीड़ित मरीजों की संख्या अधिक होने को लेकर गड़बड़ी का संदेह है. आईडीपीएस के विश्लेषण में यह आंकड़ा 43 फीसदी बताया गया है.

स्वास्थ्य अधिकारियों को इस पर संदेह है क्योंकि कोविड-पॉजिटिव मरीजों के बीच बड़ी संख्या में मरने वालों की मौत का कारण कोमोर्बिडिटी जैसे एक साथ गंभीर बीमारियों मधुमेह और हृदय रोग से पीड़ित होना बताया जा रहा. उन्हें लगता है कि यह भी मौत का आंकड़ा कम नजर आने का एक बड़ा कारण है.

स्वास्थ्य मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, डाटा बताता है कि मौत में एक बड़ा प्रतिशत उन लोगों का है जो कोमोर्बिडिटी के शिकार नहीं थे. हालांकि, ऐसा होने की वजह यह भी हो सकती है कि जब कोमोर्बिडिटी की स्थिति होती है तो कई राज्य गलत तरीके से मौत की वजह कोविड के बजाये कोमोर्बिडिटी को ही दर्शाते हैं, संभवत: आंकड़ों को कम ही रखने के लिए ऐसा किया जाता है. इसका मतलब यह भी है कि हम राष्ट्रीय अनुमानों में तमाम सारी मौतों के आंकड़े को छोड़ देते हैं. यही वजह है कि हम राज्यों से सभी मौतों के बारे में रिपोर्ट मंगाने पर जोर दे रहे हैं.


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पॉजिटिव मिलने की दर भी बढ़ी

भारत में नमूनों पर पॉजिटिव होने की दर जून के पहले हफ्ते में 6-7 फीसदी थी. समय के साथ केस पॉजिटिव होने की दर भी बढ़ती रही है, हालांकि इस दौरान टेस्ट कराए जाने की संख्या भी काफी बढ़ी है-यह संख्या 1 जून को 1,00,180 टेस्ट की तुलना में बढ़कर 12 जुलाई (सप्ताहांत में आमतौर पर कमी के बावजूद) को 2,19,103 हो गई.

2-7 जून वाले सप्ताह में औसत पॉजिटिविटी रेट 7.1 प्रतिशत था, 8-14 जून के बीच यह 7.6 प्रतिशत था. 15-21 जून के बीच यह 8.68 प्रतिशत, 22-28 जून के बीच 8.5 प्रतिशत, 29 जून से 5 जुलाई के बीच 9.5 प्रतिशत और 6-12 जुलाई के बीच यह 9.8 प्रतिशत था.

रविवार को कम टेस्टिंग के कारण अमूमन हर सोमवार को पॉजिटिविटी रेट बढ़ जाता है. उदाहरण के लिए, सोमवार (13 जुलाई) को यह आंकड़ा 13 प्रतिशत था, 5 जुलाई को यह 13.4 प्रतिशत था और 28 जून को यह 11.4 प्रतिशत था.

पॉजिटिव पाए जाने की दर को लेकर राज्यों के बीच व्यापक विसंगतियां हैं. हालांकि, विभिन्न सरकारी एजेंसियों के बीच एक सामान्य, अनौपचारिक सहमति है कि 10 प्रतिशत से अधिक पॉजिटिविटी रेट इस बात का संकेत है कि परीक्षण उतनी तेजी से नहीं हो रहे जितनी तेजी से बीमारी फैल रही है. भारत अब खतरनाक रूप से उस निशान के करीब पहुंच रहा है.

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ, बेंगलुरु में लाइफ-कोर्स एपिडमियोलॉजी के प्रमुख डॉ. गिरिधर आर. बाबू ने कहा कि डब्ल्यूएचओ और भारत सरकार दोनों की तरफ से पॉजिटिव केस मिलने की दर 5 फीसदी होने को आदर्श स्थिति माना गया है.

उन्होंने कहा, दोनों सलाह देते हैं कि पॉजिटिविटी रेट 5 प्रतिशत के पार नहीं जाना चाहिए, लेकिन यह वास्तव में आदर्श है. पॉजिटिविट रेट बीमारी की व्यापकता और टेस्ट होने की संख्या के बीच का एक संतुलन है. यदि इन दोनों से कोई एक ऊपर- नीचे होता है तो इसका असर पॉजिटिविटी रेट पर नजर आता है. उदाहरण के तौर पर तेलंगाना में पॉजिटिव आने के आंकड़े तेजी से बढ़े क्योंकि वे बहुत कम टेस्ट कर रहे थे और बीमारी तेजी से फैल रही थी. दिल्ली में भी यही स्थिति दिखी.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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