गैंगस्टर विकास दुबे की मौत से उत्तर प्रदेश के अस्थिर राजनीतिक समुद्र में मंथन शुरू हो गया है और ऐसा प्रतीत होता है कि समाजवादी पार्टी नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इसमें विधानसभा चुनावों के लिए अपना अभियान शुरू करने का अवसर ढूंढ लिया है. राज्य में चुनाव दो साल से भी कम दूर रह गए हैं. टीवी समाचार चैनलों के बीच टीआरपी की आपाधापी के कारण सप्ताह भर तक चली दुबे की अपराध गाथा ने उन मुद्दों को सुर्खियों में लाने का काम किया है जो कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में मायने रखती है- कानून व्यवस्था की समस्या से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार के निपटने के तरीके से लेकर पुलिस-नेता-बाहुबली गठजोड़ तक- और इसके कारण अखिलेश को वो मौका मिल गया जिसका कि वह 2019 लोकसभा चुनावों में पार्टी की बुरी हार के बाद से ही इंतजार कर रहे थे.
योगी सरकार पर अखिलेश का तीखे हमले भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को परेशान कर सकते हैं और वह अपनी राजनीतिक ऊर्जा पूर्व मुख्यमंत्री और उनकी पार्टी पर केंद्रित करने के लिए मजबूर हो सकती है.
क्या वह मौक़े का इंतज़ार कर रहे थे?
राजनीतिक लड़ाइयां नेताओं और दलों को थका देती हैं और जब जनता की याददाश्त बिल्कुल अल्पकालिक हो, तो ऐसे में अपनी लड़ाइयों का वक्त अपने हिसाब से चुनना समझदारी की निशानी मानी जा सकती है.
अखिलेश 2019 के लोकसभा चुनावों में हार के बाद से ही शांत बैठे रहे हैं. कहा जाता है कि वह यूपी में अगले चुनाव से इतना पहले अपनी राजनीतिक ऊर्जा और संसाधन खर्च नहीं करना चाहते हैं. लेकिन मध्यावधि का दौर आ चुका है. विधानसभा चुनाव 2022 में होने हैं. इसलिए उनके लिए राजनीतिक सक्रियता बढ़ाने और मुखर होने का ये सही मौका है. राजनीतिक पहचान के संकट से गुजर रहे अखिलेश को एक संदेहास्पद मुठभेड़ में विकास दुबे की मौत के रूप में अंतत: जनता के समक्ष भाजपा को शर्मसार करने के लिए एक वाजिब मुद्दा मिल गया है.
उल्लेखनीय है कि मायावती और कांग्रेस से गठबंधन के अलावा भाजपा ही मुख्य रूप से सपा नेता के राजनीतिक पतन के लिए जिम्मेवार रही है. इसीलिए विकास दुबे के कॉल रिकॉर्ड को सार्वजनिक करने की उनकी मांग राजनीतिक रूप से उचित लगती है, जो कि स्वत: ही उन्हें एक ऊंचे पायदान पर पहुंचा दे रही है जहां से वह अपनी ईमानदार नेता की छवि निर्मित करने का प्रयास कर सकते हैं. यदि वह इस वक्त ज़ोर लगाते हैं तो उन्हें 2020 के चुनावों के लिए ज़रूरी संवेग मिल सकेगा, खासकर जब मायावती की बहुजन समाज पार्टी को कोई ओर-छोर हाथ नहीं लगता दिख रहा हो.
योगी की घेराबंदी
भारत में हमेशा से उत्तर प्रदेश की अराजक राज्य की छवि रही है, जहां आज भी बाहुबलियों, माफियाओं और गोली चलाने पर उतारू दबंग पुलिसकर्मियों की चलती है. उत्तर प्रदेश में नेता-अपराधी-पुलिस गठजोड़ की कल्पना करना आसान है. विकास दुबे का मामला इसका क्लासिक उदाहरण है.
दुबे के मामले से साफ हो जाता है कि क्यों कोई भी राजनीतिक दल इस गठजोड़ का हिस्सा नहीं होने का दावा नहीं कर सकता. अखिलेश को भी विरासत में मिले गुंडाराज के भारी बोझ को हटाना है. उनके पिता ने जो कि अब सक्रिय नहीं हैं, कई बाहुबलियों को संरक्षण दिया था. अखिलेश पहले भी अपने पिता और चाचा से अलग हो चुके हैं. वह यूपी में अराजकता को मुद्दा बनाकर एक बार फिर ऐसा कर सकते हैं और अपनी खुद की विरासत को आगे बढ़ा सकते हैं.
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‘कड़क संत’ योगी आदित्यनाथ 2017 में इस वादे के साथ सत्तासीन हुए थे कि वह कांग्रेस, सपा और बसपा के हाथों बर्बादी झेलने वाले उत्तर प्रदेश को अपराध मुक्त बनाएंगे. लेकिन वास्तविकता इस आदर्श वादे से कहीं अलग है. योगी सरकार के कार्यकाल के पहले साल 2017-18 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के समक्ष आए मानवाधिकार उल्लंघन के 78,000 मामलों में से 38,000 अकेले उत्तर प्रदेश के थे.
जबकि 2018 में राज्य में अपराध खत्म करने की आदित्यनाथ की ‘मुठभेड़ नीति’ को अखिलेश ने ‘ठोक दो नीति’ करार दिया था.
आगे चलकर अखिलेश का इस मुद्दे से ध्यान भटक गया ना सिर्फ लोकसभा में अपनी जीत के अतिविश्वास- डेटा आधारित अनुमान जो गलत निकले- के कारण बल्कि इसलिए भी कि महागठबंधन में अपनी हैसियत को लेकर वह कुछ ज़्यादा ही आश्वस्त हो गए थे. आज सपा नेता अकेले अपने दम पर हैं और उनके पास खोने को कुछ नहीं है क्योंकि यूपी की राजनीति में अनकी अब तक की सबसे कमज़ोर स्थिति है. यहां से आगे उनके लिए करो या मरो की स्थिति है.
ठाकुर-विरोधी भावना
अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में बढ़ रही ठाकुर-विरोधी भावना का भी फायदा उठा सकते हैं. कथित ठाकुरवाद के तहत उत्तर प्रदेश में ऊंची जाति के हिंदुओं का पुनरोत्थान देखा जा रहा है, जोकि पूर्व की सरकारों में एससी, एसटी, ओबीसी और मुस्लिम समुदायों के तुष्टिकरण के कारण उपेक्षित महसूस करते थे. उत्तर प्रदेश विधानसभा में ऊंची जाति के हिंदुओं का प्रतिनिधित्व 2012 के 32.7 प्रतिशत से बढ़कर 2017 में 44.4 प्रतिशत हो गया. उस साल के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने जहां अपने 48.2 प्रतिशत टिकट ऊंची जाति के उम्मीदवारों को दिए थे. वहीं ओबीसी और जाट उम्मीदवारों को मात्र 31.2 प्रतिशत टिकट दिए गए थे. उनमें भी गैर-जाटव और गैर-यादव जातियों को प्रतिनिधित्व का नाममात्र का अवसर दिया गया था.
केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी के क्रीमी लेयर श्रेणी के लिए वार्षिक आय सीमा 6 लाख रुपये से बढ़ाकर 8 लाख रुपये किए जाने से यह भावना और गहरी हुई है. अखिलेश के पास इस वर्ग के असंतोष को भुनाने का भी मौका है.
वैसे तो निचली जातियों के मतदाताओं के एक यादव पर भरोसा करने की संभावना कम ही है. लेकिन, हाल के महीनों में बसपा नेताओं के अपनी पार्टी छोड़कर सपा में शामिल होने के चलन के मद्देनज़र अखिलेश को इसका फायदा उठाना चाहिए. उन्हें इसके अनुरूप अपनी छवि गढ़ते हुए निचली जाति के वोटरों के बीच बसपा की घटती लोकप्रियता का लाभ उठाने की ज़रूरत है.
एक आखिरी प्रयास के रूप में अखिलेश को ‘उत्तर प्रदेश की अराजकता का प्रतीक बने विकास दुबे’ के मामले को आगे खींचने की ज़रूरत है और यदि वह जनता को ये समझाने में कामयाब हो गए कि यूपी एक टाइम-बम पर बैठा है जो कि अव्यवस्था के रूप में फट सकता है, तो वैसे में योगी सरकार को मौजूदा राजनीतिक मंथन में निकले अधूरे वायदों और भ्रष्टाचार के विष को पीना पड़ेगा.
अखिलेश जब 2012 में पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तो भारत और खासकर यूपी, मोदी लहर से अछूता था. वह अपने पिता मुलायम सिंह यादव के साये से बाहर निकले थे. आज उनका सामना मोदी और योगी से है. जबकि मुलायम परिदृश्य से लगभग बाहर हैं. ऐसे समय में ‘विकास दुबे’ वो फॉर्मूला साबित हो सकता है जिसकी कि उन्हें तलाश थी.
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Sham on u ….u r wright a negative campaign against bjp….Muslim always hated Hindu and bjp….u r also always anti Hindu and anti bjp……u r agenda is to Hindu fights with another Hindu……but now we Hindu United against ur zihadi propegenda…..
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Jo mnn me aya apne se likh diya, tm unki image kharab karne me lagi ho . Sold journlist