अरुण जेटली, रविशंकर प्रसाद, नीतीश कुमार, लालू यादव, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, रामविलास पासवान, सीताराम येचुरी और प्रकाश करात- इन सभी नेताओं के बीच एक विशेष समानता है. इनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत आपातकाल के प्रतिरोध के दौरान हुई. यदि 2014 से सत्तासीन नरेंद्र मोदी सरकार उतनी ही निष्ठुर है जितनी उसके आलोचक बताते हैं तो क्या हम ऐसे राजनीतिक कद वाले किसी नेता का नाम बता सकते हैं जो पिछले 6 वर्षों के दौरान उभरा हो?
लोकतंत्र के लिए खतरा आज भी निश्चित तौर पर कम गंभीर नहीं है, बल्कि शायद कहीं ज्यादा खतरनाक है. योगेंद्र यादव के शब्दों में, हमारे लोकतंत्र पर ‘कब्जा’ कर लिया गया है और हमारा पहला संवैधानिक गणतंत्र जाने कब का खत्म हो चुका है. फिर भी, आप हमारे विपक्ष की हालत को देखते हुए इसका अंदाजा नहीं लगा पाएंगे जो लापरवाही और निष्चेष्टता की निशानी बन गया है. विपक्षी नेतृत्व का ऐसा अकाल, खासकर नए नेताओं की लगभग पूर्णत: अनुपस्थिति, और वो भी ऐसे समय जब हमें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है, क्या दर्शाता है?
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दो बड़े कारण नजर आते हैं.
लोगों को मोदी पर भरोसा
जब आपातकाल घोषित किया गया, इंदिरा गांधी पहले से ही लोकप्रियता गवां रही थीं, सत्ता में आठ साल हो चुके थे. भ्रष्टाचार, कुशासन और महंगाई के खिलाफ गुजरात और बिहार में लगभग दो साल से चल रहे आंदोलन व्यापक स्तर पर सरकार विरोधी जनभावना के परिचायक बन गए थे. कई युवा नेताओं ने जेपी मूवमेंट के दौरान एकदम चरम पर पहुंच गए जनाक्रोश को अपनी राजनीतिक पारी शुरू करने के मुफीद पाया. लेकिन आज लोक-सम्मत आमराय यही नजर आती है कि मोदी को उन हालात को बदलने के लिए और समय दिया जाना चाहिए जिसे वह साठ साल के कुशासन का नतीजा बताते हैं. नए भारत के निर्माण की गहन महत्वाकांक्षा के मद्देनजर लोग उन्हें अधिक अवसर देने को तैयार हैं, जो उनको दूसरी बार मिले जनादेश से साफ परिलक्षित होता है.
दूसरा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का संगठनात्मक समर्थन भी हासिल है, जिसने कांग्रेस-विरोधी आंदोलनों का आधार तैयार करने वाले प्रतिबद्ध कैडर की एक सेना मुहैया कराई थी. देश में एकमात्र राष्ट्रीय सामाजिक-राजनीतिक संगठन होने के नाते, इसकी धमक राष्ट्रीय स्तर पर अधिकांश बड़े राजनीतिक आयोजनों में- अयोध्या और मंडल विरोधी आंदोलन से लेकर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन तक में महसूस की जा सकी. संगठनों के बिना ऐसा कोई जनांदोलन खड़ा नहीं हो सकता जो नए राजनीतिक नेतृत्व की नींव रख सके. विपक्ष के पास आज ऐसे संगठन का नितांत अभाव है.
नेतृत्व मामले में विपक्ष जिस तरह नाकाम रहा है उस पर एक गहन विश्लेषण जरूरी है. हमें इस विफलता के छह कारण नजर आते हैं- चार आपूर्ति पक्षीय (प्रभावी विपक्षी नेतृत्व देने में राजनीतिक व्यवस्था की नाकामी) और दो मांग पक्षीय (ऊर्जावान विपक्षी नेतृत्व के लिए कोई लोकप्रिय आकांक्षा न होना)
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विपक्ष कहां पर चूका
पहला, आज बड़े जनाधार वाला ऐसा कोई अतुलनीय आंदोलन नहीं है जो राजनीतिक प्रतिभाओं को आगे लाने का माध्यम बन सके. नागरिकता संशोधन अधिनियम को लेकर आंदोलन एक दायरे तक ही सीमित रहा और किसी महत्वपूर्ण राजनेता के उभरने का अवसर नहीं बन पाया. पिछले छह वर्षों के दौरान उभरने वाले चार सबसे बड़े युवा नेताओं- चंद्रशेखर आजाद, जिग्नेश मेवानी, हार्दिक पटेल और कन्हैया कुमार- का प्रभाव अब तक एक निश्चित दायरे में ही है, और ये मोदी सरकार के लिए खास चुनौती नहीं खड़ी पाए.
दूसरा, मौजूदा राजनीतिक दल ऐसे हठधर्मी और अलोकतांत्रिक हो गए हैं, जिसमें (गैर-वंशवादी) युवा राजनीतिक प्रतिभाओं का उभरना एकदम नामुमकिन हो गया है. रोचक बात यह है कि उपरोक्त वर्णित सभी युवा नेता (कुछ हद तक कन्हैया को छोड़ दिया जाए तो) किसी पार्टी के ढांचे के बाहर ही अपना प्रभाव दिखा पाए हैं. अटल बिहारी वाजपेयी या लालकृष्ण आडवाणी जैसे मजबूत युवा नेता नजर नहीं आते हैं जो अपने संगठनों के अंदर उभरे और आपातकाल की मुखालफत की. कांग्रेस पार्टी में तो इंदिरा गांधी के समय से ही शीर्ष पदों के लिए कोई सार्थक आंतरिक चुनाव प्रक्रिया नहीं अपनाई जा रही. जाति/भाषा को आधार बनाकर खड़े हुए क्षेत्रीय दल (राजद, सपा, जद-एस, डीएमके) भी किसी एक परिवार की बपौती बनकर रह गए. आखिरी बड़ा आंदोलन जिसमें वास्तव में कोई जननेता उभरा तो वह इंडिया अगेंस्ट करप्शन मूवमेंट था जिसने हमें अरविंद केजरीवाल दिया.
तीसरा, मौजूदा विभेद के राजनीतिकरण के जरिये मोदी सरकार को चुनौती देने वाले नए जननेताओं का उभरना मुश्किल है। भाजपा ने जातीय समीकरणों की रि-इंजीनियरिंग का समुचित आकलन करके बेहद चतुराई से राजनीतिक भाषणों में जातीय वर्गीकरण से किनारा करके खुद को तीन दशक पुराने मंडल आंदोलन के लिए अनुकूल ढाल लिया है. मोदी और अमित शाह ने हाशिये पर पड़ी पिछड़ी जातियों को लुभाकर यादवों जैसे विपक्षी ओबीसी नेताओं का प्रभाव घटाने में कामयाबी हासिल की है. उन्होंने दलितों के मामले भी यही रणनीति अपनाते हुए दलित उप-जातियों को आगे खड़ा किया जो जाटवों जैसी अपेक्षाकृत सशक्त दलित उप-जातियों के आगे राजनीतिक और सामाजिक तौर पर मुख्यधारा से कटकर रह गए थे.
दूसरे शब्दों में, ऐसा कोई व्यापक ध्रुवीकरण नहीं है जिसे दमन के नाम पर किसी स्पष्ट और शक्तिशाली राजनीतिक आख्यान का आधार बनाया जा सके. बड़ी संख्या में पिछड़ी जातियों के युवाओं को उत्पीड़न के बजाये आकांक्षा और हिंदू एकीकरण के आख्यान लुभा रहे हैं. पूरी तरह परिवार के नियंत्रण वाली मंडल पार्टियों में नवनिर्धारित राजनीतिक आख्यानों के बलबूते इन वर्गों को फिर साधने के लिए कोई नई युवा प्रतिभा नहीं है. यह स्थिति भाजपा से एकदम उलट है. अपना राजनीतिक आधार खो चुके पुराने कर्णधारों (आडवाणी, कल्याण सिंह, मुरली मनोहर जोशी आदि) को दरकिनार करके और उनकी जगह मोदी और योगी आदित्यनाथ जैसे नेताओं को आगे लाकर पार्टी ने आकांक्षाओं, जनकल्याण और कानून-व्यवस्था की राजनीति के साथ हिंदुत्व को फिर से मजबूत किया है.
चौथा, जयप्रकाश नारायण जैसे कद वाला कोई नेता ही बिखरी विचारधाराओं वाले विभिन्न राजनीतिक दलों को जेपी आंदोलन और आपातकाल के प्रतिरोध दोनों के बीच गैर-कांग्रेसवाद के साझा मंच पर एक साथ ला सकता था. जेपी को सबसे व्यापक सम्मान हासिल था, और उन्होंने आजादी की लड़ाई से लेकर नेहरू सरकार में कैबिनेट बर्थ ठुकराने तक खासी लोकप्रियता हासिल की थी. मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व (या बाहर) में ऐसा कोई भी नजर नहीं आता जिसके पास भाजपा विरोधी साझा मंच के तहत विपक्ष को एकजुट करने की क्षमता हो. सोनिया गांधी सक्रिय राजनीति से किनारा कर चुकी हैं और राहुल गांधी को तो गंभीरता से अपनी पार्टी का नेतृत्व करने के लिए ही शायद किसी गिनती में रखा जा सके, संयुक्त विपक्ष की तो बात ही छोड़ दें.
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मोदी को लोकप्रिय जनसमर्थन हासिल
राजनीतिक नेतृत्व की कमी की व्याख्या करने वाले इन आपूर्ति पक्ष कारकों के अलावा, कुछ मांग पक्ष संबंधी बाधाएं भी हैं।
सबसे पहली बात, आपातकाल के विपरीत, मोदी सरकार ने एक लोकतंत्र की औपचारिक प्रक्रियाओं को बरकरार रखा है, ऐसे में विपक्षी नेताओं के लिए उदासीन भाव अपनाए बैठी जनता को स्थिति की गंभीरता समझाना आसान नहीं है. उदाहरण के तौर पर, मतदान कार्य, जिसे बेहद पवित्र और सार्वभौमिक स्तर पर महत्वपूर्ण माना जाता है, में किसी तरह की रोक-टोक नहीं है. तमाम आम लोग अपने रोजमर्रा के जीवन में अमूर्त स्वतंत्रता पर तब तक किसी तरह की पाबंदी महसूस नहीं कर सकते, जब तक वह देखें कि लोकतंत्र की बाहरी प्रक्रियाएं- नियमित और प्रतिस्पर्धी चुनाव, चुनाव प्रचार, मताधिकार की आजादी- सभी आसानी से चल रही हैं.
दूसरा, मौजूदा समय में तत्काल या चिंताजनक स्तर पर इसकी जरूरत इसलिए भी महसूस नहीं होती क्योंकि प्रधानमंत्री को व्यापक लोकप्रियता हासिल है। इस प्रकार, आपातकाल में अधिकारों के बेजा इस्तेमाल, जिसे जबरदस्ती और गैरकानूनी के तौर पर देखा गया, के उलट मौजूदा सरकार की लोकप्रियता और जबर्दस्त जनादेश ने संवैधानिक रूप से सवालों के घेरे में आने वाले और गैरलोकतांत्रिक कार्यों पर भी वैधता का पर्दा डाल रखा है. यहीं नहीं जनता के एक बड़े वर्ग में वैसा असंतोष या गुस्सा भी नजर नहीं आता है जैसा 70 के दशक के मध्य में दिखा था. चूंकि मोदी सरकार को इतनी ज्यादा विश्वसनीयता हासिल है, कि जनता को ऐसे नए वैकल्पिक नेताओं की जरूरत महसूस नहीं होती जो उनकी नाराजगी का जाहिर करने का माध्यम बनें.
लोकतंत्र की सेहत के लिए, एक विश्वसनीय विपक्षी ताकत की गैरमौजूदगी की स्थिति लोकतांत्रिक अधिकारों को एकदम ताक पर रख दिए जाने से कम चिंतनीय नहीं है. हमारा लोकतंत्र किसी आपातकाल का शिकार होकर नहीं बल्कि उसकी शिराओं से निकल रहे धीमे जहर से मर रहा है.
(आसिम अली नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में रिसर्च एसोसिएट हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
Nice article well explained present politcal suiation of opposition and rulling party