तमिलनाडु पुलिस की हिरासत में जयराज और बेनिक्स की निर्मम हत्या के बाद वर्दीवालों के खिलाफ व्यापक जनाक्रोश उपजना जायज है. लेकिन इसके लिए अकेले पुलिस बल जिम्मेदार नहीं है. इस मामले में बहुत कुछ ऐसा है कि जिस पर भारतीय न्यायपालिका को भी जवाब देना है.
यह कहना शायद सही नहीं होगा कि हिरासत की यातना और मौत के मामलों में पुलिस साफ बचकर निकल जाती है, हालांकि, डाटा तो कुछ ऐसा ही दर्शाता है.
2017 में कम से कम 100 लोगों, जिसमें से अधिकांश संभवतः निर्दोष थे, की पुलिस हिरासत में मौत हुई. इन मौतों के लिए अब तक एक भी पुलिस अधिकारी दोषी नहीं ठहराया गया है. 2008 और 2016 के बीच पुलिस हिरासत में यातना के कारण 300 से अधिक जानें गईं. दोषी ठहराने में आंकड़ा फिर शून्य. अगर 2001 से 2018 के बीच आंकड़ों पर नजर डालें तो पुलिस हिरासत में कुल 1,727 लोग मारे गए. लेकिन इन मामलों में अभी तक केवल 26 अधिकारियों को दोषी ठहराया गया है, जिनमें से अधिकांश जमानत पर बाहर हैं.
केंद्रीय गृह मंत्रालय (एमएचए) की तरफ से संसद में पेश आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 2016 से 2018 के बीच पुलिस हिरासत में 427 लोगों की जान गई, जबकि 5,049 लोगों की मौत न्यायिक हिरासत के दौरान हुई.
नेशनल कैंपेन अगेंस्ट टॉर्चर ने भारत में हिरासत पर मौतों पर अपनी हालिया रिपोर्ट में कहा है कि देश में 2019 में हिरासत के दौरान 1,731 मौतें हुईं- यानी रोजाना करीब पांच लोग मारे गए.
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अंतत: ये सभी मौतें बस एक आंकड़ा बनकर रह जाती हैं.
लेकिन पुलिस अधिकारी समस्या का सिर्फ एक पहलू भर हैं. पी. जयराज और उनके पुत्र जे. बेनिक्स आज जीवित होते, यदि मजिस्ट्रेट ने रिमांड के लिए तमिलनाडु पुलिस की याचिका को स्वीकार करते समय कठपुतली की तरह काम करने के बजाए अपने विवेक का इस्तेमाल किया होता.
केवल कुछ मजिस्ट्रेट, और यहां तक कि उच्च न्यायपालिका से जुड़े सदस्य ही सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित सिद्धांतों का अक्षरश: पालन करते हैं. यही वजह है कि अक्सर पुलिस के पक्ष को वे आंख मूंदकर सच मान लेते हैं.
अधिकारों के दुरुपयोग और अन्याय का इतिहास
मानवाधिकार कार्यकर्ता और अधिवक्ता जसवंत सिंह खालरा 1995 में कुछ चश्मदीदों की मौजूदगी में पंजाब पुलिस द्वारा उठाए जाने के बाद लापता हो गए थे. खालरा ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर आरोप लगाया था कि 1990 और 1995 के बीच सैकड़ों सिखों (पुलिस) को गैरकानूनी तरीके से मारकर गोपनीय तरीके से ठिकाने लगा दिया गया है. खालरा के बारे में अब तक कुछ पता नहीं चला है. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने करीब 20 साल बाद मृत मानते हुए कार्यकर्ता की पत्नी को 10 लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया था.
सरकारी सिविल इंजीनियर बलवंत सिंह मुल्तानी के रहस्यमय ढंग से लापता होने और बाद में उनकी मौत के मामले में पंजाब पुलिस को पूर्व डीजीपी सुमदेश सिंह सैनी सहित कुछ वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने में लगभग तीन दशक लग गए. पंजाब कैडर के पूर्व आईएएस अधिकारी के पुत्र मुल्तानी को सैनी पर हमले के आरोप में उठाया गया था, जब वह (सैनी) चंडीगढ़ के एसएसपी थे. सैनी को एफआईआर दर्ज होने के कुछ घंटों के भीतर ही जमानत भी मिल गई थी.
महाराष्ट्र पुलिस ने अप्रैल 2014 में 25 वर्षीय एगनेलो वाल्डरिस और तीन अन्य को कथित तौर पर चोरी के मामले में उठाया था. बुरी तरह से पीटे जाने, निर्वस्त्र करने और एक-दूसरे के साथ यौन संबंध बनाने को बाध्य किए जाने के तीन दिन बाद वाल्डरिस ने आखिरकार अपनी चोटों की वजह से दम तोड़ दिया. छह साल बीत गए और बांबे हाई कोर्ट ने भी दखल दिया तब कहीं जाकर महाराष्ट्र पुलिस ने आरोपी पुलिसकर्मियों के खिलाफ हत्या और सबूत नष्ट करने के मामले में एफआईआर दर्ज की. मामले में अब तक कोई प्रगति नहीं हुई है.
पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के एक 35 वर्षीय कार्यकर्ता काजी नसीरुद्दीन की जनवरी 2013 में गिरफ्तारी के बाद कथित तौर पर हिरासत में यातना के कारण मौत हो गई थी. उनकी पत्नी को उनकी मौत की निष्पक्ष जांच के लिए कलकत्ता उच्च न्यायालय में याचिका दायर करनी पड़ी.
ये कुछ ऐसे मामले हैं जिनमें पुलिस ने हिरासत में कथित तौर पर यातनाएं दीं और आरोपी की जान ले ली. लेकिन शायद ही किसी अधिकारी को सजा हुई हो.
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क्या कर सकती हैं अदालतें
जयराज और बेनिक्स के मामले में, यह साफ है कि मजिस्ट्रेट ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा मनुभाई रतिलाल पटेल बनाम गुजरात सरकार मामले में दी गई व्यवस्था के उलट काम किया है, जिसमें अदालत ने फैसला सुनाया कि रिमांड का मुद्दा तय करते समय मजिस्ट्रेट न्यायिक कार्य का निर्वहन करता है.
बेंच ने कहा था, एक अभियुक्त के रिमांड पर निर्देश देना मौलिक रूप से एक न्यायिक कार्य है. मजिस्ट्रेट एक अभियुक्त को हिरासत में रखने का आदेश देते समय कार्यकारी क्षमता में कार्य नहीं करता है. इस न्यायिक कार्य के दौरान मजिस्ट्रेट का खुद इस पर संतुष्ट होना अनिवार्य है कि क्या उसके समक्ष रखी गई सामग्री इस तरह की रिमांड को जायज ठहराती है या इसे अलग तरीके से देखा जाना चाहिए, भले ही अभियुक्त को हिरासत में रखने और उसकी रिमांड बढ़ाने के लिए पर्याप्त आधार मौजूद हों. धारा 167 के तहत अपेक्षित रिमांड का उद्देश्य यह है कि जांच 24 घंटे के भीतर पूरी नहीं की जा सकती. ये मजिस्ट्रेट को यह देखने में सक्षम बनाता है कि क्या रिमांड वास्तव में आवश्यक है… मजिस्ट्रेट के लिए अनिवार्य है कि वह अपने विवेक का इस्तेमाल करे और सिर्फ यांत्रिक रूप से रिमांड के आदेश को पारित न करे.
लेकिन इस पर शायद ही कभी अमल होता है. सर्वोच्च न्यायालय के लिए जरूरी हो गया है कि वह अधीनस्थ न्यायालयों में इस तरह की खामियों के मुद्दे को सुलझाए और जिम्मेदारी तय करे.
सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ को डी.के. बसु मामले में अपने ऐतिहासिक फैसले पर एक बार फिर नजर डालनी चाहिए और हिरासत न्यायशास्त्र फिर से परिभाषित करना चाहिए.
ऐसा जब भी हो पाए तब केंद्र सरकार को बाकायदा यह निर्देश जारी किया जाना चाहिए कि इस पर विचार करे और इसे लागू करने के लिए जरूरत पड़े तो हिरासत में किसी अभियुक्त को लगी चोट या मौत की जिम्मेदारी संबंधित अधिकारी पर डालने संबंधी 10वें वित्त आयोग की सिफारिश के अनुरूप भारतीय साक्ष्य अधिनियम में संशोधन जैसे उपयुक्त कदम उठाए.
चूंकि हिरासत में यातना के शिकार बनाने वालों में अधिकांश समाज के आर्थिक या सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों से संबंधित होते हैं, इसलिए समय आ गया है कि केंद्र सरकार संसद से अत्याचार निवारण विधेयक पारित कराने की दिशा में कदम उठाए.
यहां पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि क्रिकेट सट्टेबाज संजीव चावला को ब्रिटेन से प्रत्यर्पित करवाने में दिल्ली पुलिस को दो दशक लग गए. इसका कारण: चावला लंदन की अदालतों में यह तर्क देने में सफल रहता था कि भारतीय जेलों और पुलिस हिरासत में यातना जगजाहिर है जिससे उसे अपनी जान का खतरा है.
जब तक तत्काल कोई उपयुक्त कार्रवाई नहीं होती, पुलिस हिरासत में जयराज और बेनिक्स की बर्बर हत्या जैसी घटनाएं होती रहेंगी.
ऐसे संकेत तो पहले से ही मिल रहे हैं कि तमिलनाडु पुलिस कोर्ट द्वारा नियुक्त मजिस्ट्रेट को डराने-धमकाने का प्रयास कर रही है, क्योंकि वह ये मानकर चल रही है कि उसके गैरकानूनी कार्यों को लेकर न्यायपालिका की तरफ से कोई सख्त प्रतिक्रिया नहीं होगी.
पुलिसवाले अपनी इस धारणा में पूरी तरह से गलत नहीं हो सकते हैं. आखिरकार, हिरासत में मौतों के मामलों से निपटने का भारत का रिकॉर्ड बहुत खराब है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं)