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Thursday, 21 November, 2024
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भारत के लिए 2019 में 3 लाख टीबी मामलों का पता लगाने से चूकना एक अच्छी खबर क्यों है

टीबी के छूटे केस इस बीमारी पर नियंत्रण के लिए एक महत्वपूर्ण मीट्रिक हैं, बिना पता चले और अनुपचारित रह गए मामले सामुदायिक स्तर पर संक्रमण फैला सकते हैं.

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 नई दिल्ली : केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की तरफ से बुधवार को जारी इंडिया टीबी रिपोर्ट 2020 के मुताबिक भारत 2019 में ट्यूबरकुलोसिस (टीबी) के करीब तीन लाख केस पता लगाने में चूका. यह अब तक भारत में अधिसूचित होने से रह गए टीबी के मामलों की सबसे कम संख्या है और 2017 की तुलना में इस स्थिति में बेहद सुधार आया है, जब 10 लाख केस पता लगने से रह गए थे.

छूट गए मामले बीमारी की रोकथाम में एक अहम मीट्रिक हैं, क्योंकि बिना इलाज रह गए मामलों से संक्रमण फैलने का खतरा रहता है.

रिपोर्ट के मुताबिक, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत में 2019 में टीबी के 26.9 लाख मामलों का अनुमान लगाया है. हालांकि, भारत की अधिसूचना, जो केंद्रीय टीबी विभाग में पंजीकृत मरीजों की संख्या बताती है, में 24.04 लाख टीबी मरीज ही हैं. इसका मतलब है कि साल में 2.86 लाख मामले छूट गए.

बहरहाल, भारत में टीबी अधिसूचना का आंकड़ा 2018 की तुलना में 11.6 फीसदी बढ़कर अपने शीर्ष स्तर पर पहुंच गया है.

यह रिपोर्ट ऐसे समय पर आई है जब भारत में 4.73 लाख से ज्यादा कोविड-19 केस दर्ज किए जा चुके हैं और महामारी फैलने के बाद से लेकर अब तक करीब 15000 लोगों की मौत हो चुकी है.

नेशनल स्ट्रैटजिक प्लान फॉर टीबी एलीमिनेशन (2017-25) के अनुमान के मुताबिक, टीबी के कारण हर साल करीब 4.8 लाख भारतीयों या हर रोज करीब 1400 लोगों की जान जाती है.

हालांकि, स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक टीबी से मौत का आधिकारिक आंकड़ा 2018 में 79000 था. यह अब तक उपलब्ध सबसे ताजा आंकड़ा है.


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कोविड-19 की तरह टीबी भी संक्रामक रोग है और आमतौर पर फेफड़ों को प्रभावित करता है. रोकथाम की पूरी गुंजाइश और पूरी तरह उपचार योग्य होने के बावजूद इस रोग को फैलने से रोकने में भारत को कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है. यह टीबी से सबसे ज्यादा प्रभावित देशों में शुमार है- विश्व के एक चौथाई मामले और एक-तिहाई मौतें यहीं होती हैं.

टीबी से ध्यान हटना नहीं चाहिए

रिपोर्ट जारी करने के लिए बुधवार को आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने क्षय रोग पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत पर बल दिया. उन्होंने कहा, कोरोनावायरस महामारी के बावजूद मैंने इस पर जोर दिया है कि क्षयरोग से ध्यान हटना नहीं चाहिए.

हर्षवर्धन ने आगे कहा, अगर कोरोनावायरस, जिसका अभी कोई इलाज नहीं है, का मुकाबला किया जा सकता है तो भारत टीबी के खिलाफ जंग भी जीत सकता है, जो एक पुरानी बीमारी है और जिसका उपचार भी संभव है.

भारत ने वैश्विक लक्ष्य से पांच वर्ष पहले यानी 2025 में ही क्षयरोग के उन्मूलन का लक्ष्य निर्धारित किया है.

जनस्वास्थ्य सहयोग, जो छत्तीसगढ़ में सब्सिडीकृत स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराता है, के सहसंस्थापक डॉ. योगेश जैन कहते हैं, अधिसूचित मामलों की संख्या बढ़ना अच्छा संकेत है लेकिन (कोविड) महामारी के बीच पिछले चार महीनों में नए मामलों की पहचान में जबर्दस्त कमी आई है.

उनके अस्पताल में पहले हर दिन टीबी के 50 नए मामले आते थे, जो लॉकडाउन शुरू होने के बाद से घटकर हर दिन 10 के करीब रह गए हैं.

दिप्रिंट ने पूर्व में प्रकाशित किया था कि कैसे कोविड-19 के कारण अप्रैल में अधिसूचित मामलों में 80 फीसदी की कमी आई है और मरीजों के लिए मुफ्त दवाओं और इलाज की सुविधाएं प्रभावित हुई हैं.

अधिसूचित मामलों में वृद्धि

जनवरी से दिसंबर 2019 तक के डाटा वाली ताजा टीबी रिपोर्ट के मुताबिक भारत के कुल मामलों में से 6.79 लाख अधिसूचित मामले या करीब 28 फीसदी निजी क्षेत्र में आए हैं, जो 2018 की तुलना में 25 फीसदी ज्यादा हैं.

भारत में सार्वजनिक-निजी क्षेत्र की भागीदारी के तहत 173 जिलों में पेशेंट प्रोवाइडर्स सपोर्ट एजेंसी प्रोग्राम चल रहा है.

कुल मामलों में से आधे के लिए अकेले पांच राज्य उत्तर प्रदेश (20 फीसदी), महाराष्ट्र (9 फीसदी), मध्यप्रदेश (8 फीसदी) राजस्थान (7 फीसदी) और बिहार (7 फीसदी) जिम्मेदार हैं.

2019 में कुल अधिसूचित मरीजों में 95 फीसदी का इलाज किया गया. 2018 में इलाज में सफलता की दर 80 फीसदी थी, जबकि 4 फीसदी की मौत हुई, चार फीसदी का इलाज बीच में छूटा और 7 फीसदी के बारे में आकलन नहीं हो पाया. इस पर 2019 का डाटा अभी उपलब्ध नहीं है.

मामले बढ़ने में निजी क्षेत्र में मुफ्त दवा उपलब्ध होना, टेस्ट की सुविधा बढ़ना, निजी डॉक्टरों की बेहतर सेवाएं मिलना और केस अधिसूचित करना अनिवार्य होने जैसे कारण अहम साबित हुए हैं.

इसके अलावा टीबी के लिए फंडिंग में पांच गुना की वृद्धि ने भी इसमें खासा असर डाला है. यह 2016-17 में 640 करोड़ की तुलना में 2019-20 में बढ़कर 2443 करोड़ हो गई, जो राष्ट्रीय टीबी उन्मूलन कार्यक्रम की तरफ से अपेक्षित करीब पूरे बजट के बराबर है.

जिला और उप-जिला स्तर पर 1180 परीक्षण केंद्रों में पहले स्तर की दवा रिफैम्पिसिन के प्रतिरोध का पता लगाने की सुविधा है. इसकी वजह से 35.31 लाख सीबीएनएएटी परीक्षण, जो 2018 की तुलना में 47 प्रतिशत ज्यादा है, से 9.9 लाख मामलों का पता चल सका.

सीबीएनएएटी, जो एक कार्टिज आधारित न्यूक्लिक एसिड एम्प्लीफिकेशन टेस्ट है, से दो घंटे में ही नतीजा आ जाता है और इसे पारंपरिक तौर पर टीबी का पता लगाने के लिए इस्तेमाल होने वाली स्मीयर माइक्रोस्कोपी की तुलना में ज्यादा सटीक माना जाता है.


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केंद्रीय टीबी विभाग के अतिरिक्त महानिदेशक डॉ. केएस सचदेवा ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा, जल्द ही 6000 ऐसी (सीबीएनएएटी) मशीनें उपलब्ध होने की उम्मीद है और हर ब्लॉक में मॉलीक्यूलर टेस्टिंग की सुविधा उपलब्ध होगी.

दवा-प्रतिरोधी क्षयरोग चिंता का विषय

मल्टी ड्रग-रेजिस्टेंट ट्यूबरकुलोसिस (एमडीआर टीबी) इस बीमारी का एक गंभीर रूप है, जिसमें पहले स्तर की दो प्रमुख दवाएं रिफैम्पिसिन और आइसोनियाजिड असर नहीं करती हैं.

2019 में भारत में ऐसे 66,359 मामले सामने आए और उनमें से 56,500 (85 प्रतिशत) का इलाज किया गया. इसमें पिछले साल की तुलना में 7.6 फीसदी की वृद्धि हुई है.

हालांकि, डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट में भारत में 130000 दवा-प्रतिरोधी मामले होने का अनुमान है, जिसका मतलब है कि इसमें से 51 फीसदी का पता ही नहीं चल पाया है और इसमें से 56 फीसदी का इलाज नहीं हो रहा है.

2019 में आम तौर पर एमडीआर टीबी के मामलों में 19 फीसदी मौतों के साथ इलाज की सफलता का आंकड़ा 48 फीसदी रहा है. बीमारी के और भी ज्यादा बिगड़े हुए रूप एक्सडीआर में इलाज की सफलता 37 फीसदी और मौत का आंकड़ा 38 फीसदी रहा है.

भारत ने सितंबर 2019 में सभी दवा प्रतिरोधी टीबी रोगियों के लिए एक ऑल-ओरल नियम और पूर्व के 24 महीने की बजाये नौ महीने का एमडीआर टीबी नियम लागू किया था.

कम समयावधि वाले एमडीआर टीबी नियम में अच्छे नतीजे नजर आए हैं और 60 फीसदी मरीज इलाज में ठीक हुए, जबकि 13 फीसदी केस में मौत हुई.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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