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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतचीन के बारे में राममनोहर लोहिया के विचार बिल्कुल ठीक थे, वो न ही कट्टर थे और न ही आदर्शवादी

चीन के बारे में राममनोहर लोहिया के विचार बिल्कुल ठीक थे, वो न ही कट्टर थे और न ही आदर्शवादी

हिमालयी क्षेत्र के जो हिस्से भारत के इलाके में पड़ते हैं उनके बारे में लोहिया का ख्याल था कि यहां मुक्त लोकतांत्रिक राजनीति होनी चाहिए, स्थानीय लोगों की आर्थिक खुशहाली के काम होने चाहिए और सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा देने के कदम उठाये जाने चाहिए.

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लोग मेरी बात सुनेंगे जरूर लेकिन मेरे मरने के बाद ’ – अक्सर दोहराये जाने वाले राममनोहर लोहिया के इस कथन में आप चाहें तो गर्वोक्ति की एक बुझी-बुझी सी लौ देख सकते हैं. आज यानि लोहिया की मृत्यु के लगभग 53 सालों बाद ऐसी तीन वजहें हैं जो हमें चीन को लेकर उनके विचारों को बड़े गौर से सुनने की जरूरत है.

पहली वजह, लोहिया की आवाज उन चंद शुरुआती आवाजों में एक है जो लगातार और पुरजोर ढंग से आगाह करती रही कि चीन से भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा है. आज जरूरत ये याद करने की है कि लोहिया के ऐसा कहने के पीछे क्या कारण रहे. दूसरी बात, देश की उत्तरी सीमा पर उठ खड़ी होने वाली चुनौतियों से निपटने के मद्देनज़र उन्होंने एक व्यापक ‘हिमालय नीति’ की बात कही थी. यह आज भी प्रासंगिक है. तीसरी बात ये कि लोहिया ने राष्ट्रीय सुरक्षा के बाबत सोचने का हमें एक ऐसा रास्ता सुझाया है जिसमें हमें ना तो ‘बाज’ की तरह झपट्टामार शैली में सोचने की जरूरत रह जाती है और ना ही उस कपोत की तरह जो अपने आदर्शवाद के घेरे में कैद हमेशा शांति के सदुपदेश करता है.

ऐसा बहुत कुछ है लोहिया के विचारों में जो आज के परिवेश के लिए जीवंत कहलाएगा. लेकिन मुड़कर लोहिया की तरफ देखने का यह बस एक कारण है.

चीन का खतरा

लोहिया ने 1949 में ही देश को आगाह किया था कि उत्तरवर्ती सीमाओं से देश पर साम्यवाद का खतरा मंडरा रहा है. ये बात उन्होंने खासतौर पर तिब्बत, नेपाल और सिक्किम में चीन की भूमिका को लक्ष्य करते हुए कही थी. साल 1950 में तिब्बत पर चीन के हमले की निंदा करने वालों में वे अग्रणी रहे. इसके बाद से उन्होंने लगातार चीन की सीमा पर नज़र जमाये रखी और नेहरू को खबरदार किया कि चीनी निजाम को उसकी कथनी के हिसाब से देखना-समझना या फिर चीन के साथ सीमाओं को लेकर किसी किस्म के लेन-देन की बातचीत में उतरना ठीक नहीं. साल 1962 में भारत को जो सदमा झेलना पड़ा उसके लिए लोहिया ने नेहरू को बड़ी खरी-खरी सुनायी थी. इंडिया चाइना एंड नार्दर्न फ्रंटियर्स नाम का लेखों और बयानों का एक संकलन इस बात का साक्ष्य है कि लोहिया चीन के मुद्दे को लेकर लगातार सचेत रहे.

विचाराधारा के धरातल पर साम्यवाद (कम्युनिज्म) के प्रति लोहिया के मन में वैर-भाव था और एक निहायत ही निजी किस्म की नापसंदगी का भाव उनके मन में नेहरू को लेकर मौजूद रहा. आपको नज़र आएगा कि चीन को लेकर लोहिया ने जो नीतिगत बातें कही हैं उनपर इन दो बातों की छाया है. लेकिन, इससे ये ना समझना चाहिए कि चीन को लेकर लोहिया ने जो बातें कहीं वे महत्वपूर्ण नहीं हैं. लोहिया पहले विचारक कहे जायेंगे जिन्होंने ध्यान दिलाया कि हिमालय इस देश के लिए किसी ढाल की तरह नहीं. पश्चिमी या फिर पूर्वी पाकिस्तान की सीमा नहीं बल्कि इसके उलट उन्होंने कहा कि भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से उत्तरी सीमा रेखा सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण है. सन् 1950 के दशक में ऐसे विचार एकदम ही ढर्रे से अलग हटकर थे, खासकर उस प्रगतिशील इदारे को देखते हुए जिससे लोहिया का नाता-रिश्ता था.


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लोहिया के विचारों को आज के समय में पढ़ना हमें आगाह करता है कि चीनी राज्यसत्ता की विदेश नीति को विचाराधारा के चश्मे से देखना ठीक नहीं, ऐसा लोहिया के वक्त हो रहा था और वही चलन आज भी जारी है. साम्यवादियों ने और खासकर अपनी मूल पार्टी से छिटककर सीपीआई(एम) बनाने वाले साम्यवादियों ने विचारधारा के कारणों से चीन की पुरजोर तरफदारी की. लेकिन, एक तथ्य ये भी है कि विदेश नीति के बहुत से विश्लेषक और चीन के मामलों के अध्येताओं चीनी राज्यसत्ता की असलियत के बारे में अपना विद्वता भरा फैसला सुनाते हैं तो उनके इन फैसलों पर भी विचारधारागत सहानुभूति की एक रंगत पसरी होती है. (मेरे सहकर्मी और चीन मामलों के प्रसिद्ध अध्येता गिरी देशिंग्कर ऐसे विद्वानों को ‘माओ की विधवा’ कहा करते थे). माओ के वक्त में ऐसे भ्रम पालना एक बात है और राष्ट्रपति शी के जमाने के चीन की करतूतों से लगातार नज़र फेरकर बात करना एकदम ही दूसरी बात.

हिमालयन नीति

लोहिया के लिखे को आज की तारीख में पढ़ने की दूसरी वजह ये है कि उनका लिखा आपको एक जरूरी बात की याद दिलाता है. बात ये कि उत्तरवर्ती सीमा का मामला सिर्फ चीन से जुड़ा मसला नहीं और समाधान सिर्फ विदेश नीति के मोर्चे से नहीं निकलने वाला. लोहिया की चीन विषयक उधेड़बुन 1930 के दशक में शुरू हो चुकी थी. तब उन्होंने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के लिए चीन पर एक किताब लिखी थी.

राममनोहर लोहिया 1950 में ही हिमालय को लेकर एक नीति का प्रस्ताव कर चुके थे. इस नीति की मुख्य धारणा थी कि पश्चिम में पख्तूनिस्तान से लेकर पूरब में बर्मा तक पूरे हिमालयी क्षेत्र को एक भू-राजनीतिक इकाई माना जाये. इसमें जो इलाके भारत से बाहर पड़ते हैं, जैसे नेपाल, सिक्किम (तब सिक्किम भारत का हिस्सा नहीं बना था), भूटान और बर्मा उनके बारे में लोहिया का सोचना था कि यहां लोकतंत्र की हामी ताकतों को सक्रिय समर्थन दिया जाये. वे सोच रहे थे कि पड़ोस में जीवंत लोकतंत्र का वास हो तो वो राजशाही या फिर तानाशाही शासन की तुलना में हमारी सीमाओं की सुरक्षा की कहीं ज्यादा बड़ी गारंटी होगी. उनके नेतृत्व में भारत की समाजवादी पार्टी ने राणाओं के विरुद्ध नेपाल कांग्रेस को समर्थन देने में निर्णायक भूमिका निभायी.

हिमालयी क्षेत्र के जो हिस्से भारत के इलाके में पड़ते हैं उनके बारे में लोहिया का ख्याल था कि यहां मुक्त लोकतांत्रिक राजनीति होनी चाहिए, स्थानीय लोगों की आर्थिक खुशहाली के काम होने चाहिए और सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा देने के कदम उठाये जाने चाहिए. उन्होंने पूरे क्षेत्र के विकास के लिए कृषि-वानिकी आधारित अर्थव्यवस्था का प्रस्ताव किया ताकि स्थानीय लोगों की जीवन-दशा को बेहतर बनाया जा सके. लोहिया मानते थे कि नेफा (आज का अरुणाचल प्रदेश) को उर्वशीयम की संज्ञा दी जानी चाहिए. इन सीमावर्ती इलाकों को पहचान देने और सांस्कृतिक रुप से भारत से मजबूती से जोड़ने के लोहिया के बहुत से विचार आज की तारीख में आपको विस्तारवादी लग सकते हैं लेकिन लोहिया के ऐसे विचारों को शाब्दिक अर्थों में ग्रहण करना ठीक नहीं. यहां मूल विचार है कि राष्ट्र कल्पना शक्ति के सहारे बनता है और कल्पना शक्ति ही राष्ट्र के बिखराव की आधार भूमि बनती है और इस विचार को आत्मसात करना जरूरी है.

आदर्शवादी यथार्थवाद

लोहिया को इसलिए भी याद किया जाना चाहिए कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों को लेकर उनका नज़रिया लीक से हटकर था. सीमाओं की सुरक्षा को लेकर होने वाली बहुत सी चर्चा इस एक टेक पर फंसी रहती है कि बाज की तरह झपट्टामार शैली अपनाना अच्छा है या फिर किसी शांति-कपोत की भांति अमन के पैगाम सुनाते चलना और उसपर अमल करना. सोच की ये शैली आपको इस पार या फिर उस पार रखकर सोचना सिखाती है. या तो आप एकदम से यथार्थवादी बनकर ये सोचते हैं कि राष्ट्र की सुरक्षा करनी है तो अपना सुरक्षा-सामर्थ्य लगातार बढ़ाते जाना है. या फिर आप किसी मासूम आदर्शवादी बनकर सोचते हैं जिसका सारा जोर इस बात पर होता है कि लोगों की जान बची रहनी चाहिए, सीमा पर उठ खड़ी हुई चुनौती से यह मासूम आदर्शवादी अपनी आंख मोड़ लेता है.


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ऊपर की चर्चा से आपको लग सकता है कि लोहिया शायद संकीर्णमना राष्ट्रवादी थे. लेकिन, ऐसा सोचना सच से कोसों दूर जाना है. लोहिया सोच से एक रोमानी सार्वभौमवादी कहलायेंगे जिसका अहिंसा पर अखंड विश्वास था, जिसके मन में सपना पलता था कि दुनिया में नस्लों का आपसी मेल इस कदर होगा कि सारे रंग मिलवा रंग होंगे. वो दुनिया एक ऐसी दुनिया होगी जिसके लिए ना तो सीमारेखा खींचने की जरूरत रहेगी, ना ही पासपोर्ट-वीजा बनवाने की और इस दुनिया पर एक विश्व संसद राजकाज करेगी. जहां तक भारत का सवाल है, लोहिया इसी तर्ज़ पर भारत के विभाजन को खत्म करने के हिमायती थे. उनके सोच में था कि भारत और पाकिस्तान को साथ रखकर एक परिसंघ बने. लेकिन, वे राष्ट्रवादी भी थे. उन्हें ये दिखता था कि जबतक मुल्कों के बीच सीमारेखाएं कायम हैं, उनकी अहमियत बरकरार है और शांति बनाये रखने के लिए शक्ति-संतुलन को बनाये रखना जरूरी है.

आज की तारीख में हमारे लिए बिल्कुल यही सोच जरूरी है. चीन का लद्दाख पर धावा मारना और जमीन कब्जाना, गलवान घाटी में हमारे सैनिकों पर कायराना हमला बोलना एक खतरे की घंटी है. इस मुकाम के बाद हम युद्ध-उन्मादी राष्ट्रवाद की तरफ जा सकते हैं या फिर एक ऐसे आर्थिक आत्ममुग्धता के घेरे में फंस सकते हैं जिसके भीतर रहते हुए सांस ले पाना मुश्किल होगा. लेकिन, इसका मतलब ये नहीं कि हम अपनी आंखों पर शांतिवाद की दुहाइयों की पट्टी बांधे रहें, चीन की ओर से हो रही चढ़ाई से नज़र हटाकर प्रवचनी मुद्रा में लोगों के बीच कहते फिरें कि दुनिया को भारत का संदेश है कि चारो तरफ शांति और सद्भाव कायम हो. अभी ऐसा कहकर काम नहीं चलने वाला. हमें एक गहरे मायने वाले राष्ट्रवाद की जरूरत है जिसमें यथार्थ और आदर्श का संतुलित मेल हो. और इसी कारण, लोहिया के ना रहने पर ही सही, हमें उनकी बातों पर ध्यान देने की जरूरत है.

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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