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Friday, 22 November, 2024
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ये मंदी अलग है और पहले के मुकाबले भारत कहीं ज़्यादा तेजी से वापसी कर सकता है

इस बार की मंदी अर्थव्यवस्था में निहित कमज़ोरियों, या तेल के झटकों जैसे कारणों से नहीं आई है. ये समकालिक भी है. इससे भारत की रिकवरी तेज़ हो सकती है.

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अमेरिका अब अधिकारिक रूप से मंदी में है. विश्व बैंक के मुताबिक़, 2020 में 90 प्रतिशत देश मंदी की चपेट में होंगे- जो पिछले आठ दशकों में सबसे ख़राब है.अधिकतर भविष्यवाणियों के अनुसार, वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के सिकुड़ने की संभावना है. भारत भी उसी नाव में सवार होगा. उम्मीद की किरण ये है कि ताज़ा आंकड़े कहते हैं, कि हमारे देश में रोज़गार पहले ही बढ़ना शुरू हो चुका है.

कोविड-19 वैश्विक महामारी के कंधों पर सवार होकर आई ये मंदी, अपने आप में अनोखी है. पिछली मंदियों की तरह ये मंदी तेल के दामों में आए झटकों या वित्तीय संकट की वजह से नहीं आई. वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में कमी, अर्थव्यवस्था में निहित कमज़ोरियों के नतीजे में नहीं, बल्कि कार्यकारी फैसलों की वजह से आई है. हालांकि इसने मांग और आपूर्ति दोनों की समस्या पैदा कर दी है, लेकिन अर्थव्यवस्थाओं पर कई वर्षों तक पड़ने वाले असर की भविष्यवाणियां, कुछ ज़्यादा ही निराशावादी हो सकती हैं. पिछली मंदियां अक्सर स्थाई झटकों की वजह से शुरू होती थीं. इसलिए नए संतुलन पर पहुंचने के लिए, अर्थव्यवस्थाओं को सुधार के लिए लम्बा समय चाहिए होता था.


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‘गिरावट की विशेषताएं अलग’

अमेरिकी मंदी की तारीख़ें नेशनल ब्यूरो ऑफ़ इकॉनॉमिक रिसर्च (एनबीईआर) द्वारा तय की जाती हैं. आमतौर पर, वो व्यापक आर्थिक गतिविधियों पर आधारित होती हैं, जो कई महीनों तक धीमी होती रहती हैं. एनबीईआर की कार्यप्रणाली में कोशिश की जाती है, कि बहुत छोटी अवधियों को ना लिया जाए, जोकि व्यापार चक्र नहीं होतीं.

इस समय मंदी का दिनांकन, आर्थिक गतिविधियों में गिरावट की गंभीरता की वजह से किया गया है. एनबीईआर के अनुसार, ये गिरावट इस साल की पहली तिमाही में शुरू हुई. ये गिरावट बहुत तेज़ थी, और यही वजह है कि एनबीईआर की व्यापार चक्र दिनांकन समिति ने, इसे एक मंदी घोषित करने का फैसला किया, जो फरवरी में 2020 में, 2009 से चले आ रहे विस्तार के लम्बे दौर का अंत था.

एनबीईआर ने अपने बयान में कहा, ‘किसी मंदी की आम परिभाषा में, आर्थिक गतिविधि में एक गिरावट होती है, जो कुछ महीने से ज़्यादा चलती है. लेकिन मंदी की पहचान की जाए कि नहीं, इसके लिए समिति इसके संकुचन की गहराई और अवधि देखती है, और ये भी देखती है कि आर्थिक गतिविधि में गिरावट, क्या व्यापक तौर पर पूरी अर्थव्यवस्था में है (गिरावट का फैलाव). समिति इस बात को पहचानती है, कि वैश्विक महामारी और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर, उसके प्रभाव के नतीजे में आई गिरावट की विशेषताएं और डायनामिक्स, पिछली मंदियों से अलग हैं.’

आर्थिक दृष्टिकोण- समकालिक मंदी

विश्व बैंक की जून 2020 की ग्लोबल आउटलुक रिपोर्ट दिखाती है, कि बहुत सारी अर्थव्यवस्थाएं इस साल प्रति व्यक्ति उत्पादन में कमी देखेंगी, जो 1870 के बाद से सबसे बड़ी होगी.

ना सिर्फ औद्योगिक अर्थव्यवस्थों में संकुचन देखने को मिलेगा, बल्कि उभरती अर्थव्यवस्थाएं भी, जिनमें आमतौर पर असली संकुचन नहीं, बल्कि सिर्फ धीमापन देखा जाता है, कम से कम 60 साल में पहली बार सिकुड़न देखेंगी.

विश्व बैंक के अनुसार, मौजूदा अनुमान बताते हैं कि वैश्विक प्रति व्यक्ति जीडीपी में, 6.2 प्रतिशत की गिरावट आएगी. ये गिरावट इसे 1945-46 के बाद, सबसे गहरी मंदी बना देगी.

ये मंदी इस मायने में भी अनोखी है, कि ये अकेली मंदी है जो एक वैश्विक महामारी, और अलग अलग देशों द्वारा उसे रोकने की कार्रवाईयों से शुरू हुई. पिछली मंदियां बहुत से अलग अलग कारणों से हुईं थीं, जैसे कि तेल कीमतों के झटके, वित्तीय संकट, ऊंची मुद्रा स्फीति को रोकने की मौद्रिक नीति, और लेटिन अमेरिकी कर्ज संकट वगैरह.

मौजूदा मंदी की एक अलग विशेषता ये है, कि पहली बार इसमें बहुत ऊंचे स्तर का तालमेल है. पहले यदि अमेरिका मंदी का शिकार होता था, तो दूसरे देशों पर उसका असर कुछ देर बाद होता था. उभरती अर्थव्यवस्थाएं भी प्रभावित होती थीं, लेकिन उनके यहां अक्सर सिर्फ विकास की दर धीमी होती थी, असल में संकुचन नहीं होता था.

इकनॉमिक आउटलुक रिपोर्ट का पूर्वानुमान है, कि 2020 में तक़रीबन 90 प्रतिशत देश, एक साथ मंदी की चपेट में रहेंगे.

भारत पर असर

ये समझने के लिए, कि लॉकडाउन और उसके प्रभाव के ऊपर, वैश्विक मंदी का भारत की अर्थव्यवस्था पर कैसा असर रहेगा, हम पिछली मंदियों पर एक नज़र डालते हैं.

2009 में एक पेपर में, जिसे मैंने नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एण्ड पॉलिसी के, अपने सहयोगियों के साथ मिलकर लिखा था, हमने ‘दस से गुणा करने की’ उस परिकल्पना को ख़ारिज किया था, जो 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद उभरी थी. हमें पता चला कि भारत के व्यापार चक्र तेजी के साथ, अमेरिका और विश्व इकॉनॉमी के व्यापार चक्रों के साथ, और समन्वित हो गए हैं.

हमारे विश्लेषण से पता चला कि 1991 के बाद, जैसे-जैसे कुछ वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था खुलनी शुरू हुई, भारत का अमेरिका तथा विश्व इकॉनॉमी की चक्रीय गतिविधियों के बीच, पारस्परिक रिश्ता और मज़बूत हो गया है.

इसका मतलब है कि लॉकडाउन के दौरान, हम ना सिर्फ अपनी कार्रवाईयों का, बल्कि वैश्विक आर्थिक मंदी का भी असर देख रहे होंगे.

लेकिन सभी ख़बरें उदासी नहीं लातीं. इस मंदी की प्रवृत्ति चूंकि पिछली मंदियों से अलग है, इसलिए जिस रफ्तार से हम इससे बाहर आ सकते हैं, वो भी अलग ही लगती है. ऐसा इस वजह से हो सकता है कि ऐसे में, अर्थव्यवस्था ज़्यादा तेजी से पटरी पर लौट सकती है, उस स्थिति के मुकाबले, जिसमें तेल की कीमतों जैसे स्थाई झटकों के लिए, अर्थव्यवस्था को दीर्घकालीन समायोजन करने पड़ते हैं.


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सेंटर फ़ॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) से लिए गए मई के आंकड़ों  से पता चलता है, कि लॉकडाउन में ढील दिए जाने के बाद से, रोज़गार फिर पटरी पर आने लगा है. आंकड़ों के अनुसार, मई में 30 करोड़ लोग रोज़गार से लगे थे, जो संख्या अप्रैल में 28 करोड़, और मार्च में 39.6 करोड़ थी. ये रिकवरी उम्मीद से ज़्यादा है.

अहम ये रहेगा कि अस्थाई झटके, कारोबार के नुकसान, बढ़ते कर्ज, इंसानी मुसीबतें, और मज़दूर संकट से कैसे निपटा जाता है. आने वाले महीनों में देश कैसा करते हैं, और किस रफ्तार से अपने आपको, महामारी से उपजी इस मंदी से बाहर निकाल पाते हैं, ये इस पर निर्भर करेगा, कि वायरस से लड़ने के लिए वो क्या नीतियां अपनाते हैं, और उनके राहत, प्रोत्साहन और सुधार पैकेज क्या हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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