नई दिल्ली: नेपाल और भारत के बीच चल रहे विवाद के बीच ख़बरें आ रही हैं कि दोनों देशों के बीच निकट भविष्य में कोई बातचीत होती नजर नहीं आ रही. ऐसे में भारत से वापस नेपाल लौटे प्रवासी मजदूरों को अपने भविष्य पर संकट मंडराता हुआ नजर आ रहा है. नेपाल में उभरती राष्ट्रवादी भावनाओं के चलते लोग भारत को लेकर दो धड़े बंट गए हैं. एक धड़ा है जो भविष्य में भी भारत आकर काम के अच्छे विकल्प खोजना चाहता है और दूसरा धड़ा है जो युवाओं को वापस आने से मना कर रहा है.
इस सारे विवाद की जड़ है एक राजनैतिक नक्शा जो नेपाल अपने संविधान में संशोधन करके पारित करना चाहता है. ये नक्शा लिम्पियाधूरा, लिपुलेख और कालापानी के विवादास्पद इलाकों को नेपाल के नक्शे में दिखाता है. भारत इस नक्शे को स्वीकार नहीं कर रहा है.
दिप्रिंट बिहार में अपनी कवरेज के दौरान सीतामढ़ी जिले की सीमा पर क्वारेंटाइन में रह रहे नेपाली मजदूरों से मिला था. आपने पिछली रिपोर्ट्स में पढ़ा होगा कि किस तरह हजारों प्रवासी मजदूर बेसब्री से अपने नेपाल के गांवों में लौट जाना चाहते थे. मई महीने के आखिर में नेपाल ने बॉर्डर खोला और दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और भारत के दूसरे राज्यों से लौट कर आए ये मजदूर वापस जा सके.
भारत और नेपाल लगभग 1800 किलोमीटर लंबा बॉर्डर शेयर करते हैं जो बिहार, सिक्किम, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल तक फैला है. इंडियन नेपालीज इमिग्रेशन असोशिएसन के आंकड़ों के मुताबिक 2006 में 30 लाख नेपाली वर्कर्स भारत में काम कर रहे थे.
‘युवाओं में बढ़ रही है राष्ट्रवादी भावना’
दिप्रिंट ने इनमें से कई मजदूरों से टेलिफोनिक बातचीत के जरिए वहां के हालातों को जानने की कोशिश की. बिहार के सासाराम जिले में एक फ़ैक्टरी में काम करने आए 29 वर्षीय मनोज दास जनवरी से भारत में रह रहे थे. वो दिप्रिंट को बताते हैं, ’18 दिन परिहार में क्वारेंटाइन में रहने के बाद हमें छोड़ा गया और नेपाली पुलिस ने हमें आने दिया. उसके बाद 14 दिन यहां क्वारेंटाइन किया गया. अब घरों में तो आ गए हैं लेकिन बेरोज़गारी बढ़ गई है. हमारे पास पैसे नहीं है. ऊपर से फेसबुक पर पढ़ते रहते हैं कि भारत-नेपाल के बीच जो चल रहा है वो लंबा खिंच जाएगा तो थोड़ा परेशानी होती है. हमारे पैसे फंसे हुए हैं.’
मनोज सरलाही जिले के लक्ष्मीपुर गांव के हैं. वो अपने क्षेत्र में पल रही राष्ट्रवादी भावनाओं को लेकर कहते हैं, ‘कालापानी वाली जगह को लेकर यहां चर्चाएं होने लगी हैं. मेरे गांव से कम से कम 500 लोग भारत में जाकर काम करते हैं और पैसे कमाते हैं लेकिन जो नए लड़के हैं वो अब अलग बातें कर रहे हैं. लेकिन बड़े लोग सिर्फ अपने पेट के बारे में सोचते हैं. हम लोगों को पता है कि बड़ा देश है तो हम लड़ नहीं सकते. हमारी बहुत सारी रिश्तेदारी भी है बिहार में.’
मनोज के ही गांव के 42 वर्षीय रमेश चौधरी पिछले 20 सालों से पंजाब में आकर फैक्टरियों में काम करते थे. वो आज के हालातों को लेकर कहते हैं, ‘ये बड़ी-बड़ी बात करना तो नेताओं का काम है. कालापानी की बात से आधे लोग कह रहे हैं कि भारत नहीं जाएंगे और जो बच गए हैं उनके पास कोई चारा नहीं है. लोग आपस में बंट गए हैं.’
रमेश के घर में 6 लोग और हैं. वो 6-7 महीने पंजाब में रहने के बाद वापस नेपाल लौट जाते थे लेकिन इस बार उनको बिहार में एक फैक्ट्री में ही काम मिलने का आश्वासन मिला था.
लेकिन सरलाही जिले के गंगादेव दास वापस नहीं आना चाहते हैं. वो कहते हैं, ‘थोड़ी बहुत खेती बाड़ी है यहां, उसी से काम चलाएंगे.’
‘मज़ाक उड़ाते हैं, बुरा तो लगता है लेकिन क्या करें?’
मनोज जब सासाराम से 13 अन्य लोगों के साथ 29 अप्रैल को ही पैदल निकल लिए थे. वो अपना अनुभव साझा करते हुए कहते हैं, ‘फ़ैक्टरी में दो टाइम का खाना तो दे रहे थे लेकिन चावलों में कंकड़ होता था. जब समझ नहीं आया कि लॉकडाउन कब तक बढ़ेगा तो हम लोग निकल लिए. हमारी फ़ैक्टरी में लगभग 600 नेपाली लोग थे. हमें रास्ते में दो बार ट्रक वालों ने लिफ्ट दी. एक बार तो पुलिस ने भी मदद कराई. कई लोग मज़ाक भी उड़ा रहे थे कि नेपालियों को देखकर पुलिस डंडे से मारेगी तो हमने भी कह दिया कि मारेगी तो हमें मारेगा.’
इसी इलाके के रहने वाले समेंद्र चौधरी भी इस बात की तस्दीक करते हैं कि मज़ाक उड़ाया जाता है लेकिन वो कुछ लोगों तक ही सीमित रहता है. वो कहते हैं, ‘हमारे यहां से लोग इधर गार्ड की नौकरी करने, दिहाड़ी मजदूरी और फ़ैक्टरियों में काम करने आते हैं लेकिन जब दोनों देशों की तुलना करके हमें गार्ड बोलकर भी चिढ़ाते हैं तो बुरा तो लगता है.’
‘नहीं मिली है महीनों की पगार’
मनोज और उनके साथ के 15 लोग गेलवे नाम की एक कंपनी में काम करते थे. ग्रुप का आरोप है कि उन्हें जनवरी महीने से तनख्वाह का एक भी पैसा नहीं दिया गया. उन्हें काम सिखाया जा रहा था कि कैसे अपने इलाकों से हम लोग और लोगों को जोड़ें. मनोज का कहना है कि उनकी कम से कम 15 हजार रुपए की तनख्वाह नहीं दी गई.
मज़दूरों ने बताया कि उन्हें कहा गया था कि खाना-पीना और 15-20 हजार रुपए की नौकरी मिलेगी. आपको और लोगों से यही बताकर हमारे चेन से जोड़ना है. गेलवे को लेकर इंटरनेट पर कुछ इसी तरह के फीडबैक लिखे हुए हैं.
दिप्रिंट ने गेलवे कंपनी की सासाराम ब्रांच में बातचीत करने की कोशिश की लेकिन अभी तक कोई जवाब नहीं मिल सका है. इसके अलावा कंपनी द्वारा उपलब्ध कराए गए नंबरों पर फोन किया जो कि नॉट रिचेबल बता रहे हैं. मेल का भी कोई जवाब नहीं आया है लेकिन कोई जवाब आता है तो इसे अपडेट किया जाएगा.