अमेरिका के मिनियापोलिस में अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस द्वारा की गई हत्या के बाद उमड़ा आक्रोश अब वैश्विक शक्ल लेता जा रहा है. अमेरिका ही नहीं, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप तक में कई शहरों में अश्वेत नागरिकों के समर्थन में प्रदर्शन हुए हैं. इन प्रदर्शनों में जो एक खास बात देखी जा सकती है, वह है श्वेत युवाओं की बड़ी संख्या में हिस्सेदारी. कई प्रदर्शनों में तो ज्यादातर श्वेत नागरिक ही हैं.
लेकिन खासकर अमेरिका में अश्वेत नागरिकों के अधिकारों के लिए चलने वाले संघर्षों में श्वेत नागरिकों की हिस्सेदारी कोई नई बात नहीं है. 19वीं सदी में अमेरिका के दक्षिणी प्रांतों में चल रही गुलामी की प्रथा को समाप्त करने के लिए जब वहां सिविल वार हुआ तो दोनों पक्षों से श्वेत सैनिक ही लड़े और 10 लाख से ज्यादा श्वेत मारे गए. यानी अश्वेतों को गुलामी से मुक्ति मिले इसके लिए श्वेत लोगों ने जान दी.
अमेरिका में चल रहे उस संघर्ष को हजारों किलोमीटर दूर भारत में एक युवा बहुत गौर से देख रहा था. पुणे के उस युवा का नाम जोतिराव फुले था जो आगे चलकर ज्योतिबा फुले नाम से देश भर में मशहूर हुआ. उन पर इस बात का गहरा असर पड़ा कि अमेरिका में गोरे लोग अपनी जान इसलिए दे रहे हैं ताकि काले लोग आजाद हो सके. फुले ने माना कि भारत में शूद्रों की स्थिति गुलामों के समान ही है. उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कृति गुलामगीरी अमेरिका के उन अच्छे गोरों लोगों को समर्पित की, जो गुलामी प्रथा से लड़ रहे थे.
अमेरिका में नस्लवाद खत्म नहीं हुआ और संघर्ष आगे भी जारी रहा. वहां काले लोगों के मताधिकार से लेकर भेदभावमूलक जिम क्रो लॉ को खत्म करने के लिए लंबा संघर्ष चला. मार्टिन लूथर किंग समेत कई नेताओं की अगुवाई में सिविल राइट्स मूवमेंट चले. इन सबमें बड़ी संख्या में श्वेत भी शामिल हुआ. श्वेत लोगों की हिस्सेदारी ऐसे आंदोलनों में आज भी देखी जा सकती है.
BREAKING. Some protesters have jumped the gated barrier at Lafayette Park. US Park Police push them back. The White House is behind the US Park Police l & the Secret Service. @MSNBC @nbcwashington #GeorgeFloyd pic.twitter.com/RzJgnvv7Vq
— Shomari Stone (@shomaristone) May 31, 2020
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जाति समाप्त करने के आंदोलन में कहां है सवर्ण
यहां सवाल उठता है कि क्या सवर्ण यानी हिंदू द्विज जातियों में जन्मे लोग भी भारत में जातीय अत्याचार और भेदभाव के खिलाफ संघर्ष में शामिल होंगे? क्या ये उम्मीद की जा सकती है कि सवर्ण भी जातिमुक्त भारत बनाने के लिए आगे आएंगे और इस क्रम में अपने विशेषाधिकारों का त्याग करने के लिए तैयार होंगे?
ये तो देखा जा रहा है कि कई भारतीय सवर्ण सेलेब्रिटीज और बुद्धिजीवी अमेरिका में अश्वेतों के लिए न्याय मांग रहे हैं. दिशा पाटनी और प्रियंका चोपड़ा से लेकर गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई तक कई लोग #BlackLivesMatter को समर्थन दे चुके हैं. लेकिन क्या उनसे और ऐसे ही अन्य सवर्णों से ये उम्मीद की जा सकती है कि भारत में जब किसी दलित महिला की हत्या या उनका बलात्कार जातिगत कारणों से हो, या किसी विश्वविद्यालय में किसी शिक्षक के भेदभाव के कारण कोई दलित या पिछड़ा छात्र आत्महत्या करने को मजबूर हो जाए, तो भी वे इसी तरह उनके पक्ष में मुखर होंगे? क्या भारतीय सवर्णों में भी ऐसे प्रगतिशील और उदार लोग हैं?
लोहिया, वीपी सिंह और अर्जुन सिंह
सवर्णों में ऐसे लोगों की तलाश आसान नहीं है. जातीय उत्पीड़न और भेदभाव के खिलाफ भारत में ही नहीं यूरोप और अमेरिका तक में संघर्ष चल रहे हैं. लेकिन इन आंदोलनों में सवर्ण पुरुष और महिलाएं शामिल हों, ये आम तौर पर होता नहीं है. अगर मैं ऐसे सवर्ण लोगों की लिस्ट बनाऊं, जिन्होंने आजादी के बाद के 73 साल में जाति मुक्ति के लिए काम किया, तो ये बेहद छोटी लिस्ट होगी. इसमें मैं राम मनोहर लोहिया, विश्वनाथ प्रताप सिंह और अर्जुन सिंह के अलावा किसी को शामिल नहीं कर पा रहा हूं.
लोहिया खुद वैश्य परिवार में जन्मे, लेकिन उन्होंने कांग्रेस और देश की राजनीति में ब्राह्मण वर्चस्व के खिलाफ मुहिम चलाई जिसकी वजह से खासकर उत्तर भारत में कई पिछड़े और किसान नेता उभरे. उनके वैचारिक नेतृत्व में शुरू हुई ये मुहिम उनके मरने के बाद भी जारी रही और 60 से लेकर 80 के दशक में उत्तर भारतीय राजनीति में पिछड़ा उभार हुआ, जिसे राजनीति विज्ञानी क्रिस्टोफ जैफरले साइलेंट रिवोल्यूशन कहते हैं.
सवर्ण नफरत के सबसे ज्यादा शिकार हुए पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह का जन्म जमींदार ठाकुर परिवार में हुआ. लेकिन प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने बरसों से धूल खा रही मंडल कमीशन की रिपोर्ट का वो हिस्सा लागू कर दिया, जिसमें पिछड़ी जातियों (मंडल कमीशन के अनुसार देश में उनकी संख्या 52 प्रतिशत है) के लिए केंद्र सरकार की नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण देने की सिफारिश की गई थी. पिछड़ी जातियों के सशक्तिकरण और राजकाज में उन्हें हिस्सेदार बनाने की ये अब तक की सबसे बड़ी पहल थी.
इसी सिलसिले को आगे बढ़ाने वाले केंद्रीय एचआरडी मंत्री अर्जुन सिंह भी सवर्ण घृणा के शिकार बने. अर्जुन सिहं भी ठाकुर परिवार में जन्मे थे. पद पर रहते हुए उन्होंने उच्च शिक्षा संस्थानों में पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया. इसकी सजा उन्हें कांग्रेस ने भी दी और उनके राजनीतिक जीवन का असमय अंत हो गया.
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जाति मुक्ति की लड़ाई में सवर्णों की चुप्पी
इन तीन ऐतिहासिक चरित्रों को छोड़ दें तो जातीय अत्याचार और भेदभाव के खिलाफ चल रहे संघर्ष में सवर्णों की उपस्थिति लगभग नदारद है.
1. महाराष्ट्र के खैरलांजी में 2006 में दलित परिवार के साथ बलात्कार और हत्या का विरोध करने का जिम्मा पूरी तरह से दलितों पर आया. इसके खिलाफ हुए आंदोलन में दलित ही शामिल हुए.
2. हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के छात्र रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या हो या मुंबई की डॉ. पायल तड़वी की जातीय उत्पीड़न के बाद आत्महत्या या राजस्थान की छात्रा डेल्टा मेघवाल की लाश पाए जाने का मामला, या फिर गुजरात के ऊना में दलितों की सार्वजनिक पिटाई हो या गाय को लेकर दलितों की मॉब लिंचिंग, इन सब मामलों में आंदोलन दलितों को ही करना पड़ा. इन आंदोलन में सवर्ण हिस्सेदारी ट्विटर और फेसबुक पर पोस्ट शेयर करने से आगे नहीं बढ़ी. ऐसे लोग भी कम ही हैं.
3. हरियाणा के भगाना में हुए जातीय अत्याचार के खिलाफ भगाना गांव के लोग लगभग एक साल तक दिल्ली के जंतर मंतर पर घरने में बैठे रहे, लेकिन न तो सवर्ण नेताओं को और न ही सवर्ण वर्चस्व वाले मीडिया को लगा कि ये एक जरूरी मुद्दा है.
4. सुप्रीम कोर्ट के आदेश से जब एससी-एसटी एक्ट कमजोर और बेजान हो गया तो इसके खिलाफ दलितों का बड़ा आंदोलन हुआ और 2 अप्रैल, 2018 को भारत बंद भी किया गया. इस क्रम में 12 लोगों की मौत हुई और वे सभी दलित थे. दलितों के इस आंदोलन का नतीजा ये हुआ कि संसद ने कानून बनाकर एससी-एसटी एक्ट को पुराने रूप में बहाल कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे सही माना.
5. वंचित जातियों के सशक्तिकरण का आरक्षण बहुत महत्वपूर्ण उपकरण है. आरक्षण को कमजोर करने की कई स्तरों पर कोशिशें लगातार चलती रहती हैं. आरक्षण बचाने की लड़ाई हमेशा अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ी जातियों के लोग और संगठन ही लड़ते हैं. हाल में यूनिवर्सिटीज में शिक्षकों की नियुक्ति के लिए लाए गए नए रोस्टर सिस्टम के खिलाफ संघर्ष में भी ये बात देखी गई.
6. सवर्णों का बड़ा हिस्सा आरक्षण और दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के सशक्तिकरण का विरोध करता है. लेकिन जब केंद्र सरकार ने राजनीतिक उद्देश्य से सवर्णों को आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण दिया, तो वही सवर्ण न सिर्फ चुप रहे, बल्कि उन्होंने इसका समर्थन भी किया. सरकार के इस कदम से आरक्षण को लेकर संविधान का ये तर्क कमजोर हुआ है कि राजकाज में हर सामाजिक समूह का प्रतिनिधित्व होना चाहिए.
7. भारत में कई सवर्ण बुद्धिजीवी और समाजशास्त्री जाति के प्रश्न पर अध्ययन और शोध करते हैं. उन्होंने जाति को लेकर कई किताबें भी लिखी हैं और पुरस्कार भी जीते हैं. लेकिन सवर्ण बुद्धिजीवी कभी ये मांग नहीं करते कि जनगणना में जातियों के आंकड़े जुटाए जाएं. वे जाति का पूरा विमर्श आंकड़ों के बगैर कर रहे हैं. भारतीय समाजशात्र के सबसे नामी विद्वानों- जीएस घुर्ये, एनएन श्रीनिवास, श्यामाचरण दुबे और आंद्रे बेते तक किसी को नहीं लगा कि जाति के आंकड़े होने चाहिए. ये भारतीय समाजशास्त्र की बहुत विकट समस्या है, जिसकी ओर प्रोफेसर विवेक कुमार ने ध्यान आकृष्ट कराया है.
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इस चुप्पी का राज़ क्या है?
इसकी दो संभावित वजहें हो सकती है.
1. अमेरिका में अश्वेत आबादी काफी कम है. अश्वेत और उनकी मिली-जुली नस्ल के लोगों को मिला दें तो भी उनकी आबादी 14 प्रतिशत से कम है. यानी आने वाले कई दशकों और हो सकता है कि सदियों तक अमेरिका श्वेत बहुल बना रहेगा. इसलिए श्वेत लोगों को ये लगता है कि अपने कुछ विशेषाधिकारों को छोड़ने से उनके वर्चस्व पर कोई निर्णायक फर्क नहीं पड़ेगा. भारत में हिंदू सवर्ण एक अल्पसंख्यक श्रेणी है. दलितों-आदिवासियों और पिछड़ों की तुलना में उनकी आबादी काफी कम है. अपनी आबादी की तुलना में उनके पास बहुत ज्यादा संसाधन और सत्ता है. अगर वे उदार होते हैं तो इससे उनका वर्चस्व टूट सकता है.
2. समाज सुधार को लेकर सवर्णों की हिचकिचाहट को डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने बहुत अच्छे से समझा था. अपनी किताब शूद्र कौन थे में पहले तो वे यह पूछते हैं कि ब्राह्मणों में वोल्टेयर जैसा कोई शख्स क्यों पैदा नहीं हुआ, जो कैथलिक होते हुए भी कैथलिक चर्च की सत्ता से भिड़ गया? इसका जवाब देते हुए बाबा साहब लिखते हैं कि इस सवाल का जवाब सवालों के जरिए दिया जा सकता है, मसलन – तुर्की के सुल्तान इस्लामिक दुनिया में प्रचलित धर्म को समाप्त क्यों नहीं कर देते, या पोप ने कैथलिक मत का विरोध क्यों नहीं किया या ब्रिटिश संसद ने नीली आंखों वाले सभी बच्चों का जीवन समाप्त करने के लिए कानून क्यों नहीं बनाया? इन सवालों का जवाब देते हुए डॉ. आंबेडकर कहते हैं कि – ये बात समझनी चाहिए कि किसी व्यक्ति या समूह का स्वार्थ उसकी बुद्धि और मेधा की दिशा को नियंत्रित करता है.
भारतीय सवर्ण जानते हैं कि उनका स्वार्थ क्या है और वे उसकी रक्षा करते हैं.
(लेखक पहले इंडिया टूडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं, और इन्होंने मीडिया और सोशियोलोजी पर किताबें भी लिखी हैं. लेख उनके निजी विचार हैं)