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Friday, 22 November, 2024
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सोशल मीडिया पर जजों को लेकर अमर्यादित टिप्पणी करने वालों पर लगाम कसने की तैयारी शुरू, आंध्र हाई कोर्ट ने 49 लोगों को भेजा अवमानना का नोटिस

आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने सोशल मीडिया पर न्यायपालिका और न्यायाधीशों के बारे में पोस्ट की गयी आपत्तिजनक टिप्पणियों का संज्ञान लेते हुये एक सांसद और एक पूर्व विधायक सहित कम से कम 49 व्यक्तियों को न्यायालय की अवमानना के नोटिस दिये हैं.

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न्याय व्यवस्था का एक सिद्धांत है: ‘कोई कितना भी बड़ा क्यों नहीं हो, कानून उसके ऊपर है ‘. यह सिद्धांत न्यायपालिका के फैसलों और न्यायाधीशों के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणियां करने वालों पर भी समान रूप से लागू होता है, भले ही ऐसा करने वाला कोई पीठासीन या सेवानिवृत्त न्यायाधीश या सांसद ही क्यों नहीं हो.

यह देखा जा रहा है कि संचार क्रांति के दौर में न्यायिक फैसलों और आदेशों के परिप्रेक्ष्य में सोशल मीडिया पर न्यायपालिका और फैसले सुनाने तथा मामलों की सुनवाई करने वाले न्यायाधीशों के बारे में आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल करना और अनर्गल आरोप लगाना फैशन बन गया है. न्यायिक आदेश और फैसलों के साथ ही संबंधित न्यायाधीशों के बारे में सोशल मीडिया पर अपलोड होने वाली टिप्पणियों में अमर्यादित भाषा की भरमार देखी जा सकती है.

सोशल मीडिया पर न्यायपालिका और न्यायाधीशों के बारे में आपत्तिनजक और अमर्यादित भाषा का प्रयोग करने वालों की अब खैर नहीं है. इस दिशा में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने पहल करते हुये सोशल मीडिया पर न्यायपालिका और न्यायाधीशों के बारे में पोस्ट की गयी आपत्तिजनक टिप्पणियों का संज्ञान लेते हुये एक सांसद और एक पूर्व विधायक सहित कम से कम 49 व्यक्तियों को न्यायालय की अवमानना के नोटिस दिये हैं.

उच्च न्यायालय ने सत्तारूढ़ वाईएसआर कांग्रेस पार्टी के सांसद नंदीगाम सुरेश, पूर्व विधायक अमांची कृष्ण मोहन ओर कई अन्य नेताओं सहित 49 व्यक्तियों को न्यायालय की अवमानना के नोटिस दिये हैं. राज्य के महाधिवक्ता एस श्रीराम ने वीडियो क्लिप और सोशल मीडिया की पोस्ट के अवलोकन के बाद इन टिप्पणियों को अनावश्यक और अपमानजनक बताते हुये इन सभी के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू करने की लिखित में सहमति दी है.

इन सभी पर आरोप है कि इन्होंने हाल ही में कतिपय महत्वपूर्ण मामलों में फैसला और आदेश सुनाने वाले उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की मंशा पर सवाल उठाते हुये उन पर भ्रष्टाचार और अन्य प्रकार के गंभीर आरोप लगाये और सोशल मीडिया पर कई पोस्ट किए.

उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जे के माहेश्वरी और न्यायमूर्ति सी प्रवीण कुमार की पीठ ने सोशल मीडिया पर चल रही इस तरह की गतिविधियों का स्वत: ही संज्ञान लिया. न्यायालय ने 49 व्यक्तियों को नोटिस जारी करते हुये टिप्पणी की है कि इंटरव्यू, भाषण और पोस्टिंग से ऐसा लगता है कि मानो यह न्यायाधीशों और उच्च न्यायालय को बदनाम करने और उसकी छवि को ठेस पहुंचाने की साजिश का हिस्सा है.


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संभवत: यह पहला मौका है जब किसी उच्च न्यायालय ने एक साथ इतने ज्यादा व्यक्तियों को और वह भी सोशल मीडिया पर की गयी टिप्पणियों को लेकर अवमानना के नोटिस जारी किये हैं. उच्च न्यायालय की यह कार्रवाई निश्चित ही सोशल मीडिया पर न्याययपालिका और न्यायाधीशों के प्रति अमर्यादित टिप्पणियों के प्रति उसकी गंभीरता को इंगित करती है.

न्यायपालिका और इसके सदस्यों के बारे में अक्सर ही सोशल मीडिया पर तरह-तरह की टिप्पणियां होती रहती हैं लेकिन न्यायालय ने इसको कभी महत्व नहीं दिया. उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों की 12 जनवरी, 2018 की प्रेस कांफ्रेंस के बाद तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की कार्यशैली और मुकदमों के आवंटन को लेकर सोशल मीडिया में की गयी टिप्पणियां किसी से भी छिपी नहीं है.

इसी तरह, नरेन्द्र मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान दो प्रधान न्यायाधीशों- न्यायमूर्ति पी सदाशिवम और न्यायमूर्ति रंजन गोगोई- को नयी जिम्मेदारी सौंपे जाने के बाद इनके फैसलों के बारे में सोशल मीडिया पर तरह-तरह के आरोप आक्षेप अपलोड किये गये थे.

लेकिन अब यह सिलसिला बढ़ता जा रहा है. यह देखा जा रहा है कि राजनीतिक और सांप्रदायिक दृष्टि से संवेदनशील मामले न्यायालय में आते ही समाज का एक बड़ा वर्ग सोशल मीडिया पर तथ्यों और प्रक्रिया की पूरी जानकारी के बगैर ही न्यायपालिका की कार्यशैली और किसी भी मामले विशेष में न्यायालय के आदेश और संबंधित न्यायाधीशों पर अवांछित टीका टिप्पणी करना शुरू कर देता है.

देश की न्यायपालिका की गरिमा को अगर बचाना है और जनता में उसका विश्वास बनाये रखना है तो निश्चित ही न्यायपालिका और न्यायाधीशों के बारे में सोशल मीडिया पर की जाने वाली अवांछित और अनर्गल टिप्पणियों तथा आरोपों की बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश जरूरी है.

यह सही है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में नागरिकों को अदालत के फैसलों की आलोचना का अधिकार है लेकिन किसी भी इन फैसलों के लिये किसी तरह की मंशा या न्यायपालिका को बदनाम करने का अधिकार नहीं है. शीर्ष अदालत बार-बार इस तथ्य को दोहराती है कि न्यायाधीशों को किसी प्रकार से डराने धमकाने या फिर उन पर लांछन लगाने के किसी भी प्रयास से सख्ती से निपटा जायेगा.

सोशल मीडिया पर न्यायिक आदेशों, फैसलों और इससे संबंधित न्यायाधीशों के बारे में अमर्यादित और अभद्र भाषा के प्रयोग तथा न्यायपालिक की गरिमा को ठेस पहुंचाने वाली भाषा के इस्तेमाल की बढ़ती प्रवृत्ति बेहद चिंताजनक है और इसे नियंत्रित करने के लिये एक ‘लक्ष्मण रेखा’ की आवश्यकता है.

संभवत: अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार को पूर्ण मानते हुये ही सोशल मीडिया पर यह सब हो रहा है या फिर यह ऐसा करने वाले समझते हैं कि कौन क्या कर लेगा. लेकिन शायद उन्हें एहसास नहीं है कि इस कृत्य का खामियाजा न्यायालय की अवमानना जैसी कार्यवाही के रूप में भुगतना पड़ सकता है और दोषी पाये जाने पर इसके अपराध के लिये छह महीने तक की कैद और जुर्माने की सजा हो सकती है.

न्यायपालिका की गरिमा को ठेस पहुंचाने या इसे बदनाम करने के प्रयासों पर अंकुश पाने के लिये न्यायालय की अवमानना की कार्यवाही एक ब्रह्मास्त्र है जिसका बहुत ही संयम से इस्तेमाल होना चाहिए. शीर्ष अदालत ने जनवरी, 2019 में इस तथ्य को इंगित भी किया था. न्यायालय ने कहा था कि राजनीतिक महत्व के मामलों में सुनाये गये फैसलों को लेकर न्यायाधीशों पर राजनीतिक आक्षेप लगाते हुये टिप्पणियां करना न्यायपालिका की गरिमा को कमतर करने का प्रयास है.


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अधिकांश मामलों में अवमाननाकर्ता हलफनामा दाखिल करके न्यायालय से बिना शर्त क्षमा याचना कर लेते हैं और कहते हैं कि उनकी मंशा न्यायालय की अवमानना करने या उसकी गरिमा को ठेस पहुंचाने की नहीं थी. सामान्यतया न्यायालय भी इस तरह के माफीनामे को स्वीकार कर अवमाननाकर्ता को चेतावनी देकर मामला खत्म कर देता है.

ऐसा ही एक मामला कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी का था जिन्होंने ‘चौकीदार चोर है’ के संदर्भ में शीर्ष अदालत के हवाले से कुछ टिप्पणियां की थीं. हालांकि, न्यायालय ने नवंबर, 2019 को राहुल गांधी की बिना शर्त माफी स्वीकार करते हुये उन्हें भविष्य में अधिक सतर्क रहने के लिये आगाह किया था.

देश की न्याय व्यवस्था का सिद्धांत है कि ‘कोई कितना भी बड़ा क्यों नहीं हो, कानून सबसे ऊपर है’. इसी सिद्धांत का नतीजा था कि शीर्ष अदालत के एक फैसले पर असहमति व्यक्त करते हुये सोशल मीडिया पर तीखी टिप्पणियां करने वाले उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू भी न्यायालय की अवमानना की कार्यवाही की चपेट में आ गये थे. यह दीगर बात है कि न्यायालय ने बाद में जनवरी, 2017 में न्यायमूर्ति काटजू की क्षमा याचना स्वीकार करते हुये उनसे संबंधित मामला बंद कर दिया था.

लेकिन, कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सी एस कर्णण के मामले में उच्चतम न्यायालय ने मई, 2017 में उन्हें अवमानना का दोषी ठहराते हुये छह महीने की सजा सुनायी थी. यह पहला मौका था जब किसी पीठासीन न्यायाधीश को अवमानना का दोषी ठहराया गया था. न्यायमूर्ति कर्णण को सेवानिवृत्त होने के बाद 21 जून को कोयम्बटूर से गिरफ्तार करके जेल भेजा गया था.

न्यायालय ने अधिवक्ता प्रशांत भूषण को भी सीबीआई के मुखिया आलोक वर्मा को हटाये जाने के बाद उनके स्थान पर नयी नियुक्ति के बारे में एक फरवरी, 2019 को किये गये ट्वीट को लेकर उन्हें अवमानना का नोटिस जारी किया था. हालांकि, प्रशांत भूषण ने इस मामले में बिना शर्त माफी मांगने से इंकार करते हुये स्वीकार किया था कि वास्तव में गलती हो गयी थी.


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वैसे प्रशांत भूषण के खिलाफ न्यायालय की अवमानना का एक मामला 2009 से लंबित है. न्याय मित्र बनाम प्रशांत भूषण नाम का यह मामला 11 दिसंबर, 2018 के बाद अभी तक सुनवाई के लिये सूचीबद्ध नहीं हुआ है. यह मामला 2009 में एक पत्रिका को दिये गये इंटरव्यू से संबंधित था जिसमे प्रशांत भूषण ने देश के अंतिम 16-17 पूर्व प्रधान न्यायाधीशों मे से आधे न्यायाधीशों पर आरोप लगाये थे.

आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा स्वत: शुरू की गयी अवमानना की कार्यवाही इस बात का संकेत है कि सोशल मीडिया पर न्यायपालिका और न्यायाधीशों के बारे में अपमानजनक और अमर्यादित टिप्पणियां करने तथा फैसलों के संदर्भ में न्यायाधीशों की मंशा पर सवाल उठाने वालों पर अब लगाम कसने की तैयारी है. बेहतर होगा कि सोशल मीडिया पर न्यायपालिका और न्यायाधीशों के बारे में टिप्पणी करने वाले सचेत रहें और मर्यादित भाषा का ही इस्तेमाल करें.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. यह उनके निजी विचार हैं)

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