लॉकडाउन के ऐलान के साथ ही देश के लगभग 32 करोड़ छात्र-छात्राओं को स्कूल-कॉलेज जाने से रोक दिया गया था. सरकार ने ऐलान किया था कि स्कूल-कॉलेज उनके लिए ऑनलाइन शिक्षा का इंतजाम करें. लेकिन देश के बड़े शहरों और संभ्रांत वर्ग से आने वाले बच्चों की पढ़ाई शुरू करने के लिए भी स्कूल-कॉलेजों का खासा वक्त लग गया. ये वे स्कूल थे, जिनके पास फंड की कमी नहीं थी.
ऐसे में आप सोच सकते हैं कि देश के छोटे शहरों, कस्बाई और ग्रामीण इलाकों में क्या हाल हो रहा होगा, जो पढ़ाई-लिखाई के खराब स्तर और इंटरनेट कनेक्टिविटी के मामले में ‘गरीबी’ के शिकार हैं. लॉकडाउन में उन प्रवासी मजदूरों के बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का क्या हाल हो रहा होगा जो अपने सिर पर गठरियां लादे पहले पैदल और अब बदहाल ट्रेनों से घर लौटने की जद्दोजहद में लगे हैं.
लॉकडाउन ने घर में बैठे उन 32 करोड़ छात्र-छात्राओं के बड़े हिस्से के लिए आर्थिक और सामाजिक बराबरी की दौड़ को और कठिन बना दिया है, जिनके पास इंटरनेट कनेक्शन तो दूर ढंग से क्लासरूम और टीचर भी नहीं हैं.
बदहाल एजुकेशन सिस्टम पर एक और संकट
द एनुअल स्टेट ऑफ एजुकेशन यानी असर की 2018 की रिपोर्ट बताती है कि देश के ग्रामीण इलाकों में पांचवीं क्लास के आधे बच्चे ही दूसरी क्लास की किताबें पढ़ पाते हैं. सर्वे के दौरान सिर्फ 28 फीसदी बच्चे ही गुणा-भाग के सरल सवाल का हल निकाल सके. इस सर्वे में एक मार्के की बात यह थी कि वे बच्चे पढ़ाई-लिखाई में ज्यादातर कमजोर दिखे, जिन्हें घरों में पढ़ाई के दौरान सपोर्ट नहीं मिलता था. यानी घरों में उनकी पढ़ाई-लिखाई की दिक्कतें दूर करने वाला कोई नहीं था. अब आप कल्पना कर सकते हैं ऐसे बच्चों को लॉकडाउन के दौरान कौन इंटरनेट से पढ़ने में मदद करेगा?
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असर रिपोर्ट से यह भी जाहिर हुआ कि जो बच्चे पढ़ाई में पिछड़े हुए थे वे वित्तीय संसाधनों के मामले में भी कमजोर थे. इसलिए अब यह साफ हो चुका है कि लॉकडाउन में रोजी-रोटी गंवा चुके करोड़ों मजदूरों और गरीब कामगारों के बच्चों को बड़ी तादाद में स्कूल-कॉलेज छोड़ना होगा और अपने मां-बाप के साथ मेहनत-मजदूरी करनी होगी. ऐसे बच्चों के लिए पढ़ाई जारी रखना ही बड़ी जद्दोजहद साबित होगी, ऑनलाइन एजुकेशन तो दूर की बात है.
गंभीर बात यह है देश के नीति-निर्माता बच्चों की शिक्षा को लेकर गंभीर नहीं दिख रहे हैं. अभी तक स्कूलों को खोलने की कोई प्लानिंग नहीं दिख रही है. जबकि इस एकेडेमिक सेशन में लॉकडाउन की वजह से काफी वक्त जाया हो चुका है. ऐसे में सबसे ज्यादा नुकसान ऐसे बच्चों की पढ़ाई का हो रहा है, जो ऑनलाइन शिक्षा के संसाधनों से महरूम हैं. अगर स्कूल खुलने लगें तो ऐसे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के नुकसान की कुछ भरपाई हो सकती है.
स्कूल बंद रहने का असर बच्चों के पोषण पर भी पड़ रहा है. देश में 12 करोड़ स्कूली बच्चों को मिड डे मील दिया जाता है. स्कूल बंद होने से इनमें से बड़ी तादाद में बच्चों को यह खाना नहीं मिल पा रहा है. कुछ राज्यों ने घरों में यह मील पहुंचाने की शुरुआत की है लेकिन अभी कई राज्य यह सुविधा नहीं दे पा रहे हैं.
एचआरडी मिनिस्ट्री ने पल्ला झाड़ा
एचआरडी मिनिस्ट्री और सीबीएसई, एनसीईआरटी जैसे एजुकेशन सेक्टर के रेगुलेटरों ने एकेडेमिक कैलेंडर जारी कर शिक्षकों से बच्चों को ऑनलाइन कंटेंट भेजने के लिए कहने के बाद अपना पल्ला झाड़ लिया है. इस कैलेंडर के तहत टीचर्स इंटरनेट-बेस्ड प्लेटफॉर्म्स से क्लास ले रहे हैं. जहां इसकी सुविधा नहीं है वहां बच्चों को एसएमएस और वॉयस रिकार्डिंग भेजने को कहा है. लेकिन यह नहीं बताया गया है कि बगैर इंटरनेट के वॉयस रिकार्डिंग स्टूडेंट्स के पास कैसे पहुंचेगी.
सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या कैलेंडर जारी करने से पहले मिनिस्ट्री ने देश में इंटरनेट कनेक्टिविटी का जायजा लिया था? 2017-18 के लिए एनएसएसओ की 75वीं रिपोर्ट के मुताबिक देश के सिर्फ 23.8 फीसदी घरों में इंटरनेट की सुविधा है. गांवों में 14.9 फीसदी घरों में इंटरनेट की सुविधा है और शहरों में 42 फीसदी घरों में इंटरनेट कनेक्शन है. इस बारे में ट्राई के आंकड़ों पर सवाल उठाए जाते रहे हैं.
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देश में सिर्फ दो राज्य ऐसे हैं, जहां ग्रामीण इलाकों में 40 फीसदी घरों में इंटरनेट सुविधा है. ये राज्य हैं हिमाचल और केरल. यह आंकड़ा यह अंदाजा लगाने के लिए काफी है कि जिन बच्चों के पास इंटरनेट की सुविधा नहीं है, वो लॉकडाउन की वजह से स्कूल-कॉलेज न खुलने से किस कदर पढ़ाई में पिछड़ रहे हैं.
पढ़ाई-लिखाई के नुकसान का कमाई से कनेक्शन
सिर्फ भारत में ही नहीं दुनिया भर में लॉकडाउन की वजह से बच्चों की पढ़ाई के नुकसान पर चिंता जताई जा रही है. एक अमेरिकी आकलन में कहा गया कि इस बार जब बच्चे लॉकडाउन के बाद स्कूल लौटेंगे तो उनकी रीडिंग लेवल 30 फीसदी तक घट सकता है और गणित में दक्षता के मामले में तो वह एक साल तक पिछड़ सकते हैं. वर्ल्ड बैंक ने ब्राजील में जो स्टडी की है, उसके मुताबिक तीन महीने की स्कूलबंदी 48 हजार बच्चों को ‘लर्निंग पॉवर्टी’ में डाल सकती है.
यह सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है. पढ़ाई का यह नुकसान उनके भविष्य की कमाई पर भी असर डालता है. एक स्टडी के मुताबिक स्कूल में बिताया गया हर एक साल बच्चों के भविष्य की कमाई में 10 फीसदी का इजाफा करता है. वहीं ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूट की एक स्टडी में यह बताया गया है कि अमेरिका में चार महीने की स्कूलबंदी स्टूडेंट्स की भविष्य की कमाई में सालाना 1,337 डॉलर की गिरावट पैदा कर सकती है.
ये हालात अमेरिका के हैं. भारत में लंबे समय तक स्कूल-कॉलेज की बंदी और ऑनलाइन एजुकेशन से महरूम करोड़ों बच्चों का क्या होगा, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. ये वो देश है, जहां हर साल असर रिपोर्ट देश की एजुकेशन सेक्टर की दुर्दशा बयान करती है. भारत जैसे भारी सामाजिक और आर्थिक असमानताओं वाले देश में संसाधनों की यह वंचना इसकी समस्याओं को और पेचीदा बनाती दिखती है.
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अगर सरकार की नीतियों की दिशा ये है कि डिजिटल एजुकेशन से काम चलाया जाएगा, तो इसके लिए तीन काम करने होंगे. एक, देश में इंटरनेट और स्मार्टफोन की सुविधा का विस्तार करना होगा और लैपटॉप या टैबलेट हर छात्र को मिल सके, ऐसी व्यवस्था करनी होगी. दो, छात्रों से भी पहले शिक्षकों को डिजिटल एजुकेशन के लिए तैयार करना होगा और उनकी ट्रेनिंग करानी होगी. तीन, डिजिटल एजुकेशन के लिए सिलेबस को बदलना होगा और नए टीचिंग मैटेरियल तैयार करने होंगे.
ये सब फटाफट नहीं हो जाएगा. चूंकि इसमें समय लगना है, इसलिए सरकार सिर्फ डिजिटल एजुकेशन की बात करके अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला नहीं झाड़ सकती.
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं. उन्होंने हिंदी साहित्य पर शोध किया है.यह उनके निजी विचार हैं)