कोरोनावायरस महामारी के दौरान परिवहन सुविधाओं के अभाव के बावजूद महानगरों से लाखों कामगारों और उनके परिवार के पलायन से उत्पन्न स्थिति ने देश में बढ़ती आबादी से खड़ी हो रही समस्याओं को सुर्खियों में ला दिया है. कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के दौर में पलायन कर रहे लाखों कामगारों और उनके परिवार के सदस्यों को उनके पैतृक स्थानों पर पहुंचाने की व्यवस्था करना ‘लोहे के चने चबाने’ जैसी चुनौती है.
भले ही हम महानगरों से कामगारों के इस पलायन को देश के बंटवारे के बाद के सबसे बड़े पलायन की संज्ञा देकर चिंता व्यक्त कर लें लेकिन सवाल उठता है कि क्या किसी भी सरकार के लिये महामारी जैसी आपदा के दौरान इसका मुकाबला करने के साथ ही सड़कों पर चल रहे जनसमूह को नियंत्रित करना और उनके लिये खाने, पीने, चिकित्सा तथा आवास की व्यवस्था करना मुमकिन है. शायद नहीं.
इस तरह के पलायन की स्थिति में वैश्विक महामारी जैसी आपदा के समय सरकारों के सामने दोहरी चुनौती पैदा हो जाती है. पहले तो महामारी के संक्रमण के प्रसार को रोकना और दूसरा इस जन सैलाब को नियंत्रित करना. यातायात सुविधाओं के अभाव में जेठ की गर्मी में पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय करते हुये अपने अपने घरों की ओर जा रहे इन कामगारों और उनके परिजनों की कष्टकारी यात्रा बेहद तकलीफदेह है. उच्चतम न्यायालय भी इस स्थिति पर चिंता व्यक्त कर चुका है.
कोरानावायरस महामारी से निपटने के प्रयासों के बीच राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने देश की बढ़ती जनसंख्या और इसकी वजह से सामने आ रही दिक्कतों के बारे में इशारों-इशारों में हाल ही में बहुत कुछ कहा है. राष्ट्रपति ने इस स्थिति से उबरने के बाद देश में बढ़ती आबादी को नियंत्रित करने की ओर ध्यान देने पर जोर दिया है जो निश्चित ही लॉकडाउन लागू होने के बाद उत्पन्न परिस्थितियों को देखते हुये बेहद जरूरी है .
राष्ट्रपति का मानना है कि जनसंख्या वृद्धि पर अंकुश लगाने के लिये कारगर कदम उठाने की आवश्यकता है और ऐसा नहीं होने की स्थिति में हमारे देश में कोरोना महामारी जैसी आपदाओं के भीषण परिणाम हो सकते हैं.
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इसमें संदेह नहीं है कि अगर देश की आबादी नियंत्रण में होती तो शायद महामारी के दौरान कामगारों को पलायन नहीं करना पड़ता और स्थानीय स्तर पर इनके रहने, खाने-पीने और चिकित्सा सुविधाओं आदि की संतोषजनक व्यवस्था करना संभव होता. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इसका नतीजा यह हुआ कि वैश्विक महामारी की चपेट में आने की आशंका में ही अपनों के बीच पहुंचने की उम्मीद के साथ लाखों कामगार अपने परिवारों के साथ सड़कों पर निकल आये जिनका प्रबंधन करने में राज्य सरकारें और स्थानीय शासन बुरी तरह विफल हो गया.
सवाल यह है कि पैदल ही अपने शहरों की ओर कूच कर रहे इन लाखों कामगारों और उनके परिवार तथा मासूम बच्चों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने के लिये क्या-क्या कदम उठाये जायें? विस्फोटक रूप ले रही इस जनसंख्या पर किस तरह नियंत्रण पाया जाये?
चूंकि, जनसंख्या पर नियंत्रण का सवाल उठते ही इसके साथ राजनीति होने लगती है और इसे धर्म या संप्रदाय विशेष से जोड़ा जाने लगता है, जो किसी भी तरह से उचित नहीं है, इसलिए बढ़ती आबादी के लिये किसी एक समुदाय को जिम्मेदार ठहराने की राजनीति करने की बजाये इसकी विभीषिका को उजागर करने की जरूरत है. बढ़ती आबादी के संदर्भ में अगर अध्ययन किया जाये तो पता चलेगा कि शिक्षित वर्ग, भले ही वह किसी भी समुदाय या धर्म का हो, लंबे समय से सीमित परिवार के सिद्धांत का पालन करता आ रहा है लेकिन दुर्भाग्य से राजनीतिक स्वार्थों की खातिर जनसंख्या नियंत्रण के मुद्दे को भी सांप्रदायिक रंग देने से लोग बाज नहीं आते हैं.
बढ़ती आबादी की समस्या को राजनीतिक या सांप्रदायिक रंग देने से पहले यह ध्यान रखना जरूरी है कि बढ़ती जनसंख्या और तेजी से कम हो रहे संसाधनों पर देश की न्यायपालिका भी समय समय पर चिंता व्यक्त करती रही है. बार-बार तर्क दिया जा रहा है कि देश में बेरोजगारी, गरीबी, घरेलू हिंसा, प्रदूषण और जल, स्वच्छ हवा तथा वन और वन संपदा जैसे संसाधनों के तेजी से खत्म होने की एक मुख्य वजह बढ़ती हुयी आबादी है.
बढ़ती आबादी की चुनौती को किसी धर्म या संप्रदाय से जोड़ने की बजाये इसे राष्ट्र हित और उपलब्ध संसाधनों के परिप्रेक्ष्य में देखना जरूरी है. इसके दुष्प्रभावों के प्रति जनता को जागरूक करने के साथ ही उसे सीमित परिवार होने से जीवन स्तर में होने वाले गुणात्मक सुधारों से रूबरू करने की आवश्यकता है.
हमारे देश में सत्तर के दशक में ‘हम दो हमारे दो’ और ‘छोटा परिवार सुखी परिवार’ जैसे कार्यक्रम शुरू किये गये थे लेकिन आपातकाल के दौरान जबरन नसबंदी की घटनाओं ने इस अभियान को सांप्रदायिक रंग दे दिया था और इनके अपेक्षित नतीजे नहीं निकले.
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इसके बावजूद सरकारों ने देश में विस्फोटक स्थिति ले रही जनसंख्या से उत्पन्न चुनौतियों से हार नहीं मानी. गंभीर मंथन के बाद यह राय बनी थी कि आबादी नियंत्रण के बारे में जनता के बीच सकारात्मक संदेश पहुंचाने के लिये इसकी शुरूआत निर्वाचन प्रकिया से की जाये. इसका नतीजा था कि पंचायत स्तर के चुनावों में दो संतानों का फार्मूला लागू किया गया. इस समय हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और ओडिशा सहित कई राज्यों में पंचायत चुनावों के लिये यह फार्मूला लागू है.
पंचायत चुनावों के लिये दो से अधिक संतान वाले व्यक्ति को चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित करने संबंधी हरियाणा सहित कई राज्यों द्वारा बनाये गये कानून उच्चतम न्यायालय पहले ही वैध ठहरा चुका है. इन मामलों में न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि तेजी से बढ़ रही आबादी पर कानून के माध्यम से अंकुश लगाना राष्ट्र हित में है.
यही नहीं, शीर्ष अदालत ने अक्ट्रबर 2018 में ओडिशा के एक मामले में अपने फैसले में यहां तक कहा कि यदि तीसरी संतान को गोद दे दिया जाये तो भी ऐसा व्यक्ति पंचायत चुनाव लड़ने के अयोग्य होगा. यह व्यवस्था भी विस्फोटक स्तर पर पहुंच रही जनसंख्या के प्रति न्यायालय की चिंताओं को दोहराती है.
इस बीच, देश के संविधान में संशोधन करके इसमें अनुच्छेद 47-ए जोड़ने और जनसंख्या नियंत्रण के लिये उचित कानून बनाने की मांग लंबे समय से की जा रही है क्योंकि संविधान के कामकाज की समीक्षा करने वाले वेंकटचलैया आयोग ने 2002 में सरकार को सौंपी अपनी रिपोर्ट में इस तरह का सुझाव दिया था, लेकिन इस मुद्दे की संवेदनशीलता को देखते हुये इस दिशा में तेजी से प्रगति नहीं हो सकी है.
देश में बढ़ती आबादी को लेकर उच्चतम न्यायालय भले ही समय-समय पर चिंता व्यक्त करता रहा है लेकिन इस स्थिति से निपटने के लिये कानून बनाने जैसा कोई निर्देश या सुझाव उसने अभी तक सरकार को नहीं दिया है. हालांकि, देश में जनसंख्या नियंत्रण के लिये दायर एक जनहित याचिका पर शीर्ष अदालत ने केन्द्र से जवाब मांगा है.
यह याचिका भाजपा नेता और अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने दायर की है जिसमें 1976 में किये गये 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से सातवीं अनुसूची की सूची-III में शामिल की गयी प्रविष्टि 20-ए की ओर न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया गया है. यह संशोधन देश और राज्यों में जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन के बारे में उचित कानून बनाने का केन्द्र और राज्यों को अधिकार प्रदान करता है.
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कोरोना महामारी के बाद महानगरों से किसी भी तरह अपने-अपने गांव पहुंचने के प्रयास में पैदल, साइकिल रिक्शा और जुगाड़ से तैयार की गयी रेहड़ियों से लाखों कामगारों के पलायन ने देश की आबादी के प्रबंधन और समस्याओं की ओर सभी का ध्यान खींचा है. ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति द्वारा व्यक्त चिंता को नजरअंदाज करना सच्चाई से मुंह चुराना होगा.
सरकार और सभी राजनीतिक दलों को इस स्थिति की गंभीरता को महसूस करते हुये अब देश की बढ़ती आबादी के नियंत्रण के उपायों पर विचार करना चाहिए क्योंकि अगर जनसंख्या बढ़ने की यही रफ्तार रही तो जहां एक ओर प्राकृतिक संसाधनों का संकट पैदा हो जायेगा तो दूसरी ओर देश में अराजकता की स्थिति उत्पन्न होने का खतरा बना रहेगा.
ऐसी स्थिति में जरूरी है कि देश में जनसंख्या नियंत्रण के लिये ठोस कदम उठाये जायें. इन ठोस कदमों के बारे में विचार करके उचित निर्णय लेना केन्द्र और राज्य सरकारों का काम है. उन्हें धर्म और संप्रदाय की राजनीति से ऊपर उठकर जनसंख्या नियंत्रण के उपायों पर गंभीरता से मंत्रणा करनी होगी और जरूरी हो तो इसके लिये कानून बनाने जैसा निर्णय लेना होगा ताकि देश के प्राकृतिक संसाधनों का सही तरीके से उपयोग हो सके और किसी भी आपदा की स्थिति में आबादी को बेहतर तरीके से नियंत्रित किया जा सके.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं.)