कार्यों की तरह शब्द भी स्थिति विशेष से जुड़ाव के कारण कुख्यात हो जाते हैं. ‘लूगनप्रेस’ एक ऐसा ही जर्मन शब्द है जिसे द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाज़ी जर्मनी में बदनामी हासिल हुई थी. हिटलर के प्रचार मंत्री जोसेफ गोएबल्स ने प्रिंट मीडिया को बदनाम करने और सभी जर्मनों को मुफ्त रेडियो सेवा प्रदान करने के लिए के लिए इस शब्द का उपयोग किया था. नई मीडिया सेवा केवल सरकार द्वारा अनुमोदित प्रचार को प्रसारित करने के लिए थी. नाज़ियों ने अखबारों को ‘लूगनप्रेस’ की उपाधि दी थी, जिसका मतलब था ’झूठा प्रेस’.
अन्यथा अहानिकर लगने वाला यह शब्द नाज़ियों से अपने संबंधों के कारण जर्मनी और दुनिया भर में निंदनीय हो गया. इसलिए जब यह 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के दौरान पश्चिमी जगत की राजनीतिक चर्चाओं में वापस आया, तो उदारवादी मीडिया इस पर हावी हो गया. उनको मुख्य आपत्ति रिपब्लिकन उम्मीदवार ट्रंप के समर्थकों की एक रैली में ‘लूगनप्रेस’ के नारे लगाए जाने पर थी.
यह सच है कि ट्रंप और उनके समर्थक मीडिया से नाराज़ हैं, और इसी तरह बहुत से भारतीय भी पुलित्जर पुरस्कारों को लेकर क्रुद्ध हैं और पुरस्कार समिति पर उन्होंने इस साल ‘फर्जी समाचार’ और ‘हिंसा’ को पुरस्कृत करने का आरोप लगाया है. लेकिन क्या इससे शब्द स्वत: ही कसूरवार हो जाता है?
कौन शामिल हैं ‘लूगनप्रेस’ में
संपूर्ण मीडिया को झूठ बोलने का दोषी बताने को कोई सही नहीं ठहराएगा, क्योंकि ऐसा निरंकुश शासक स्वतंत्र मीडिया को चुप कराने के लिए करते हैं, जिसका कि विरोध किया जाना चाहिए. मीडिया की स्वतंत्रता उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता. मिल (जॉन स्टुअर्ट मिल) से लेकर मार्क्स (कार्ल मार्क्स) तक सभी प्रबुद्ध विचारकों ने दुनिया को स्वतंत्रता का महत्व सिखाया है. जबकि निरंकुश शासक और तानाशाह व्यक्ति और मीडिया की इस स्वतंत्रता को अपने शासनों के लिए खतरा मानते हैं.
प्रबोधन ज्ञान हर व्यक्ति की स्वतंत्रता को पावन मानता है. यहां तक कि कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स भी सहमत हैं कि ‘व्यक्ति का मुक्त विकास समाज के मुक्त विकास की शर्त है.’ जिस तरह मीडिया को राजनीतिक प्रतिष्ठान को झूठा बताते हुए उसकी आलोचना का अधिकार है, उसी तरह राजनीतिक प्रतिष्ठान के समर्थकों को भी मीडिया के एक वर्ग को ‘लूगनप्रेस’ कहने का अधिकार है. ऐसा कहने पर वे स्वत: ही नव-नाज़ियों की श्रेणी में शामिल नहीं हो जाते.
‘लूगनप्रेस’ शब्द नाज़ियों ने निर्मित नहीं किया था जैसा कि उदारवादी मीडिया हमें बताता है. इसे पहली बार 1918 में, या कुछ विवरणों की मानें तो और भी पहले इस्तेमाल किया गया था. जर्मन रक्षा मंत्रालय ने 1918 में ‘हमारे दुश्मनों का लूगनप्रेस’ नामक एक किताब का प्रकाशन किया था. कम्युनिस्ट पूर्व जर्मनी में भी अमेरिकी और यूरोपीय लोकतंत्रों के मीडिया के लिए इस जुमले का उपयोग किया जाता था.
हालांकि, इस शब्दावली का प्रचलन में वापस आना चिंता की बात है, न सिर्फ अमेरिका में ट्रंप समर्थक, बल्कि जर्मनी में लॉकडाउन के विरोधी भी इस कलंकित शब्द का उत्तरोत्तर खूब इस्तेमाल कर रहे हैं. जर्मनी और अन्य जगहों पर मीडिया पर निंदनीय हमलों की मुख्य वजह है मीडिया को लेकर संदेह और अविश्वास का बढ़ना. आज दुनिया के अनेक हिस्सों में मुख्यधारा की मीडियो को विश्वसनीयता के संकट का सामना करना पड़ रहा है.
2020 के पुलित्जर पुरस्कारों का विवाद
2020 पुलित्जर पुरस्कार इस संबंध में एक ज्वलंत उदाहरण है. कोलंबिया विश्वविद्यालय द्वारा प्रशासित इस प्रतिष्ठित मीडिया पुरस्कार के इस वर्ष के विजेताओं के चयन ने उसके गौरव को नहीं बढ़ाया है. बेशक इसे ट्रंप की आलोचना का सामना करना पड़ा. उन्होंने विजेताओं को चोरों का समूह बताते हुए मांग की उन्हें ये पुरस्कार लौटा देने चाहिए. ट्रंप की दलील थी कि यह पुरस्कार उन पत्रकारों को मिलने चाहिए जिनकी रिपोर्ट ‘सही निकली’, जबकि विजेता न्यूयॉर्क टाइम्स अमेरिकी मामलों में रूसी हस्तक्षेप के बारे में गलत साबित हुआ है.
उन्होंने माइकल फ्लिन के खिलाफ मामला वापस लेने के अमेरिकी न्याय विभाग के ताजा फैसले का हवाला देते हुए पुलित्जर पुरस्कार समिति को ‘एक कलंक’ बताया, हो सकता है कि ट्रंप हमेशा की तरह ज़रूरत से ज़्यादा भड़क रहे हों. लेकिन पुलित्जर पुरस्कार बोर्ड के चेयरमैन यूजीन रॉबिंसन की बात भी कोई आश्वस्तकारी नहीं थी. उन्होंने नैतिकता का मुलम्मा चढ़ाते हुए कहा, ‘पुरस्कार जीतने वाले सभी पत्रकारों, नाटककारों, लेखकों, कवियों और संगीतकारों में एक बात समान है कि वे सभी सत्य की खोज में लगे हुए थे. और हमें यकीन करना चाहिए कि सच मौजूद है.’
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कम से कम भारतीय पत्रकारों को दिए गए पुरस्कारों के मामले में रॉबिन्सन का बयान खोखला लगता है. भारत में तीन पुरस्कार विजेता फोटो पत्रकारों का उतना विरोध नहीं हुआ है. किसी भी भारतीय का कोई प्रतिष्ठित पुरस्कार जीतना सभी भारतीयों के लिए गर्व की बात होती है. यहां विरोध पुलित्जर की बेईमानी को लेकर अधिक था. पुरस्कार के प्रशस्ति-पत्र में कहा गया था, ‘विवादित क्षेत्र कश्मीर में ज़िंदगी की असाधारण तस्वीरों के लिए, जब भारत ने संचार व्यवस्था ठप करते हुए उसकी आज़ादी को समाप्त कर दिया.’ कश्मीर को ‘स्वतंत्र’ बताना पत्रकारिता के पतन को दर्शता है. ऐसा प्रतीत होता है मानो यह वाक्य सीधे कश्मीर के आतंकवादियों और अलगाववादियों की भाषा से उठाई गई हो.
पुलित्जर की गलती
पुलित्जर पर ऐसे आरोपों का इतिहास रहा है. पुरस्कार के शुरुआती दौर में ही, पुलित्जर द्वारा 1931 में न्यूयॉर्क टाइम्स के पत्रकार वाल्टर डुरांटी को पुरस्कार दिए जाने पर एक बड़ा विवाद खड़ा हो गया था. उस पर स्टालिन से निर्देश लेने और उसे रिपोर्ट का रूप दे देने का आरोप था. उसे ‘पत्रकारिता का सबसे बड़ा झूठा’ और ‘स्टालिन का पक्षकार’ कहा जाता था. यहां तक कि न्यूयॉर्क टाइम्स भी कथित तौर पर पुरस्कार से नाखुश था. लेकिन पुलित्जर बोर्ड ने दो बार पुरस्कार को निरस्त करने पर विचार करने के बाद अंतत: अपने फैसले को बरकरार रखा.
सौ साल से अधिक के अपने इतिहास में पुलित्जर पुरस्कार कई बार विवादों में घिरा है. ऐसा ही एक विवाद, जो मौजूदा विषय के अनुरूप भी है, 2004 में फोटोग्राफी के लिए एसोसिएटेड प्रेस के बिलाल हुसैन को पुरस्कार दिए जाने पर हुआ था. जिस 20 तस्वीरों के संग्रह के लिए उसे पुलित्जर मिला था, उसमें दरअसल संघर्ष के दौरान रॉकेट दागने और सरेआम लोगों की हत्या करने जैसे आतंकवादियों के कृत्यों को दिखाया गया था. तब ये आरोप लगाए गए थे कि तस्वीरें आतंकवादियों की खुद की पहल पर खींची गई थीं.
अंतत: बिलाल को अमेरिका ने 2006 में गिरफ्तार कर लिया था. पुलित्जर समिति द्वारा कश्मीर को ‘स्वतंत्र’ बताए जाने पर यकीन करना मुश्किल होता है क्योंकि क्षेत्र की राजनीतिक दर्जे की बात एक बुनियादी सामान्य ज्ञान है. ये बात अलग है कि सामान्य ज्ञान की समस्या वाले कुछ भारतीय नेताओं ने पुरस्कारों के लिए पत्रकारों को बधाई देने में कोई देरी नहीं की.
पुलित्जर की आगे और पोल तब खुली जब उन्होंने चुपके से अपने बयान में संशोधन कर दिया. अब संशोधित प्रशस्ति-पत्र में कहा गया है, ‘कश्मीर में ठप संचार व्यवस्था के दौरान खींची गई ज़िंदगी की असाधारण तस्वीरों के लिए, जब भारत ने इस विवादित क्षेत्र की अर्ध-स्वायत्तता को छीन लिया.’ कश्मीर की ‘स्वतंत्रता’ का ज़िक्र अचानक गायब हो गया.
गलती किसी से भी हो सकती है. पुलित्जर ने आलोचनाओं को खत्म कर दिया होता यदि चुपके से अपनी गलती सुधारने के बजाय उन्होंने सार्वजनिक रूप से अपनी भूल स्वीकार की होती. ‘आइए हम तथ्यों को स्वीकार करें’ – मैं यूजीन के शब्दों का ही उपयोग कर रहा हूं.
(राम माधव भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और इंडिया फाउंडेशन के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स के सदस्य हैं. व्यक्त विचार उनके अपने हैं.)
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