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Friday, 22 November, 2024
होमदेश150 किलो सब्ज़ियां, 500 किलो चावल खरीदकर 12 हजार लोगों को दिन में दो बार कैसे खिला रहा है सूरत का ये व्यापारी

150 किलो सब्ज़ियां, 500 किलो चावल खरीदकर 12 हजार लोगों को दिन में दो बार कैसे खिला रहा है सूरत का ये व्यापारी

अपनी इस पहल पर जिग्नेश गांधी अभी तक 36 लाख रुपए ख़र्च कर चुके हैं. बाकी का पैसा उनकी अपनी खड़ी की गई ग़ैर-मुनाफ़ा संस्था अलायंस क्लब ऑफ सूरत 'होप' से आता है.

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सूरत(गुजरात): 24 मार्च को, जब देशव्यापी लॉकडाउन घोषित हुआ, तब से सूरत के व्यवसाई जिग्नेश गांधी का हर दिन, सुबह 6 बजे से शुरू हो जाता है.

पिछले 46 दिन से गांधी, सूरत की कुछ सबसे ग़रीब बस्तियों में 12,000 लोगों को, दो वक़्त का भोजन मुहैया करा रहे हैं.

एक सामाजिक कार्यकर्ता और टेक्सटाइल मशीनरी के कारोबारी, गांधी का दिन सुबह सवेरे शुरू होता है, जब वो स्थानीय मंडी जाते हैं, जहां से वो 150 किलो से अधिक सब्ज़ियां खरीदते हैं. इसके बाद वो गोदाम जाते हैं 500 किलोग्राम चावल और दाल खरीदने के लिए. ये सामान वो उन 6 जगहों पर पहुंचाते हैं, जहां भोजन तैयार होता है. वो हर रोज़ ये भी तय करते हैं कि भोजन में क्या बनेगा.

45 वर्षीय गांधी ने दिप्रिंट से कहा, ‘मैं जानता हूं कि ख़ाली पेट सोना कैसा होता है, मैं लोगों को भूख से परेशान होते नहीं देख सकता.’ उन्होंने बताया कि अपने परिवार की गुज़र-बसर के लिए, उन्होंने 16 साल की उम्र में ही, पढ़ाई छोड़कर काम करना शुरू कर दिया था.

अपनी इस पहल पर गांधी अभी तक 36 लाख रुपए ख़र्च कर चुके हैं. बाकी का पैसा उनकी अपनी खड़ी की गई ग़ैर-मुनाफ़ा संस्था अलायंस क्लब ऑफ सूरत ‘होप’ से आता है. उन्होंने कहा कि उन्हें सरकार या किसी निजी इकाई से कोई मदद नहीं मिली है.

सूरत की जगादिया चोकड़ी बस्ती में बंटता भोजन | सोनिया अग्रवाल / दिप्रिंट

व्यवसायी ने पहले रोज़ाना 1000 भोजन बांटे, लेकिन जल्द ही अपनी पहल को बढ़ा दिया, जब उन्हें लगा कि और बहुत से लोग थे, जो रात को भूखे सो रहे थे.

गांधी का लक्ष्य दिहाड़ी मज़दूरों को भोजन पहुंचाना है- रिक्शा चालक, निर्माण कार्य में लगे मज़दूर, मिस्त्री और बढ़ई- जो अपनी रोज़ की आमदनी से परिवार का पेट भरते हैं.

गांधी को शहर में ऐसे 6 इलाक़े मिले, जहां अधिकतर दिहाड़ी मज़दूर रहते हैं. उन्होंने कहा, ‘टेक्सटाइल अथवा हीरा फैक्ट्रियों में लगे दूसरे श्रमिकों को, उनके फैक्ट्री मालिक भोजन दे रहे हैं. लेकिन दिहाड़ी मज़दूरों के पास कोई पैसा या सहारा नहीं है.’


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उन्होंने बताया कि 14 अप्रैल को दूसरा लॉकडाउन घोषित होने के बाद, सूरत नगर निगम ने भोजन देना बंद कर दिया था.

दिप्रिंट ने फोन और संदेशों के माध्यम से सूरत नगर निगम तक पहुंचने के लिए बार-बार प्रयास किए, लेकिन इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने तक उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है.

गांधी ने कहा, ‘लोगों की मांग बहुत सीधी सी है- या तो उन्हें भोजन दीजिए, या फिर उन्हें जाने दीजिए.’ उन्होंने एक दिन याद किया जब पाबंदियों की वजह से, वो भोजन बांटने नहीं आ सके थे, और बड़ी संख्या में लोग विरोध में सड़कों पर निकल आए थे. उसके बाद से गांधी को कोई समस्या नहीं आई है.

गांधी ने बताया कि 12 हज़ार लोगों के लिए दो समय के भोजन का सामान, करीब 12,000 से 13,000 रुपए के बीच आता है. स्थानीय वॉलंटियर्स द्वारा भोजन तैयार किए जाने की वजह से लागत कम आती है. जो महिलाएं किचंस को चपातियां भेजती हैं, उन्हें हर दिन एक किलो आटा दिया जाता है.

‘पहले खाना बनाना नहीं आता था, अब 1,000 को खिलाते हैं’

गांधी की ये पहल इसलिए सफल हो पाई कि उसे स्थानीय वॉलंटियर्स और शुभ-चिंतकों का भारी समर्थन हासिल हुआ.

उगत में ग़रीब लोगों की रिहाइश ‘ईडब्लूएस आवास’ में 20 युवा, जो ‘दोस्ती’ नाम के एक ग्रुप से जुड़े हैं, भोजन तैयार करने और उसे परिसर में बांटने का ज़िम्मा संभालते हैं.

इस काम की निगरानी कर रहे विकी राठौड़ ने दिप्रिंट को बताया कि इन लोगों ने जब गांधी की सहायता शुरू की, तब इन्हें खाना बनाना नहीं आता था. अब ये लोग रोज़ाना 1000 लोगों के लिए खाना बना रहे हैं.

उन्होंने कहा, ‘पहले हमने स्थानीय महिलाओं से मदद के लिए कहा, और फिर प्रयास करके ख़ुद ही पकाना सीख गए. हम जानते थे कि वो हर रोज़ यहां नहीं आ सकतीं थीं, इसलिए हमने ख़ुद ही पकाने का फैसला किया.’

हालांकि, राठौड़ का कहना है कि सबसे कठिन काम पकाना नहीं, बल्कि बरतन धोना है.

मजदूरों को खाना बांटने के लिए बनाता विक्की राठौड़ | दिप्रिंट फोटो | सोनिया अग्रवाल

पालनपुर में जगादिया चोकड़ी के ईवीएस आवास पर, वॉलंटियर्स का एक और ग्रुप, हाथ-गाड़ियों पर आलू करी और चपातियां लाता देखा गया.

गांधी ने, जो वहां मौजूद थे, कहा, ‘हम सोशल डिस्टेंसिंग बनाए रखना चाहते हैं, इसलिए हम उनकी बस्तियों में जाते हैं, जहां लोग एक दूसरे से दूरी बनाते हुए, लाइनें लगाकर अपनी प्लेटें भर लेते हैं.’

जगादिया चोकड़ी के ईडब्लूएस आवास में बहुत से दिहाड़ी मज़दूर, जैसे कि ऑटो-रिक्शा चालक, घरेलू नौकर, वेल्डर्स और पेंटर्स, रहते हैं. यहां हर परिवार में कम से कम पांच-छह सदस्य हैं और बहुत से परिवारों की पिछले 46 दिन से कोई कमाई नहीं हुई है.

सूरत नगर निगम के सबसे दूर के इलाके में स्थित इन कॉलोनी वासियों का ये भी आरोप है कि इस इलाके की हमेशा से अनदेखी होती रही है. उन्होंने कहा कि महामारी शुरू होने के बाद से कोई निगम पार्षद या विधायक उनके पास नहीं आया है.


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पालनपुर में इस ऑपरेशन की निगरानी करने वाले पियूष मिस्त्री ने दिप्रिंट को बताया, ‘यहां पर ऐसे लोग भी हैं, जिनके पास भोजन ले जाने के लिए बड़ी प्लेटें तक नहीं हैं, सरकार ने कैसे ये समझ लिया कि ये लोग लॉकडाउन को झेल लेंगे?’

वॉलेंटियर्स खाने ले जाते हुए | दिप्रिंट फोटो | सोनिया अग्रवाल

‘यह खाना हमारा जीवन रक्षक है’

लॉकडाउन घोषित होने के बाद से जिन दिहाड़ी मज़दूरों की जीविका छिन गई है, गांधी की पहल उनके लिए जीवन-रक्षक बन कर आई है.

एक रिक्शा ड्राइवर अनिल ने कहा, ‘मैं रोज़ाना 500 से 600 रुपए तक कमा लेता था. हम एक या दो हफ्ते का किराना सामान ख़रीद लेते थे. लॉकडाउन के कुछ ही दिनों के भीतर, हमारे पैसे ख़त्म हो गए.’

हर रोज़ दो समय का खाना मिलने से, 4 लोगों का उसका परिवार ज़िंदा बचा हुआ है. ‘सरकार से कोई सहायता नहीं मिली है. हमारे पास राशन के सिर्फ कूपंस हैं, अससी राशन नहीं है.’

इनमें से बहुत से दिहाड़ी मज़दूरों ने बताया कि लॉकडाउन के दौरान जीविका के बिल्कुल ठहर जाने के बाद भी, उन्हें 2,500 रुपए घर का किराया, बिजली और दूसरे कई खर्च उठाने पड़े.

उगत के ईडब्लूएस आवास में रहने वाली भगवंता बेन ने बताया, ‘किसी ने भी ये पूछने की ज़हमत नहीं उठाई है कि हम कैसे जी रहे हैं. बस भोजन ही एक सहारा है.’

मूल रूप से उत्तर प्रदेश की रहने वाली बेन, पिछले 15 साल से सूरत में रह रही है. बेन ने कहा कि वो अपनी पैतृक जगह वापस जाना चाहती है लेकिन उसके पास इतने पैसे नहीं हैं कि अपने परिवार के पांच सदस्यों के टिकट खरीद सके.


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उसने कहा, ‘हमने ऐसे दिन पहले कभी नहीं देखे.’ उसने ये भी कहा कि गुज़ारे के लिए उनके पास केवल 500 रुपए बचे हैं. ‘हम घर में बैठे हैं और सोच रहे हैं कि अभी और कितना समय ये सब झेलना पड़ेगा.’

इस तरह की कहानियां और लोगों की दुर्दशा ही है, जिसने गांधी को और अधिक करने की दिशा में बढ़ाया है. जब उनकी 11 साल की बेटी ने उन्हें घर आने के लिए कहा, तो उन्होंने कहा ‘जब वो लोग मुझे धन्यवाद करते हैं तो मैं उनकी आंखों में आंसू देखता हूं, और मैं जानता हूं कि मैं रुक नहीं सकता. अपने परिवार की सहायता से ही मैं ये सब कर सका हूं, जिसे मैं पिछले डेढ़ महीने से समय नहीं दे पाया हूं. लेकिन वो शिकायत नहीं करते.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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