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Thursday, 7 November, 2024
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विदेशी मीडिया को भाजपा-विरोधी और शैंपेन समाजवादी स्तंभकार क्यों पसंद आते हैं

न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, गल्फ़ न्यूज़ और गार्डियन जैसे अखबारों के संपादकीय पेज पर आमतौर पर राणा अयूब और स्वाति चतुर्वेदी जैसे मोदी से नफ़रत करने वाले भारतीयों को जगह दी जाती है.

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भाजपा-शासित भारत का सामना संपादकीय पेज केंद्रित एक वैश्विक समस्या से है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 2014 में सत्ता संभालने के बाद से ही उनके घरेलू आलोचकों को हमले के लिए विदेशों में मंच मिल गए हैं. इनमें अन्य प्रकाशनों के साथ ही शामिल हैं वाशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, गल्फ़ न्यूज़, गार्डियन और फॉरेन अफेयर्स.

मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लाए जाने और जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को निरस्त किए जाने के साथ ही ये समस्या और गहरा गई है.

तो, ऐसा क्या है कि न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे ‘उदारवादी’ प्रकाशनों में एक विशेष दृष्टिकोण को ही जगह मिलती है? या, गार्डियन में भारत के बारे में केवल नकारात्मक खबरों को ही जगह क्यों मिलती है? वाशिंगटन पोस्ट अपने स्टार स्तंभकार राणा अयूब के मामले में सबूतों और तथ्यों के उन्हीं मानकों का इस्तेमाल क्यों नहीं करता, जो पाकिस्तान के बालाकोट में भारतीय हमले के मामले में इस्तेमाल किए गए थे, क्योंकि अयूब ने अपनी लिखी बातों का अभी तक कोई प्रमाण नहीं दिया है?

परस्पर जोड़ने वाला कारक

पश्चिमी उदारवादी मीडिया की डिफॉल्ट पसंद इतनी स्पष्टतया मोदी सरकार विरोधी है कि जिन्हें भारत में आसानी से काल्पनिक कथा लेखकों के रूप में खारिज किया जा सकता है. ऐसा कभी नहीं हुआ कि भारतीय प्रेस ने जेके रोलिंग से ब्रिटेन के बारे में या माया एंजलू से अमेरिकी अर्थव्यवस्था के बारे में लिखने के लिए कहा हो. लेकिन ब्रितानी और अमेरिकी मीडिया बुकर विजेता अरविंद अडिगा और अरुंधति राय से भारत पर टिप्पणी करने के लिए कहते हैं.

कारण, हमेशा की तरह, बहुस्तरीय और जटिल हैं.

उदाहरण के लिए वाशिंगटन पोस्ट के पास विकल्पों की भरमार है. वाशिंगटन डीसी के लगभग सारे थिंक टैंक अखबार के मुख्यालय के 2 किलोमीटर के दायरे में हैं. वे संपादकीय पृष्ठ के लिए हेरिटेज फाउंडेशन के जेफ़ स्मिथ, कार्नेगी के एशले टेलिस, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ) के ध्रुव जयशंकर, स्टिम्सन सेंटर के समीर लालवानी या सेंटर फॉर स्ट्रेटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज़ (सीएसआईएस) के रिचर्ड रोसो से आलेख लिखवा सकते हैं- ये सबके सब अखबार के दफ़्तर से 20 मिनट की पैदल दूरी पर कार्यरत हैं. ये लोग भारतीय अर्थव्यवस्था से लेकर भारत के परमाणु हथियारों तक के विषयों के गंभीर विशेषज्ञ माने जाते हैं. फिर भी, इस अखबार की भारतीय मामलों की स्टार विश्लेषक राणा अयूब हैं. आखिर क्यों?


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जवाब बहुत सरल है. नीतियों पर काम करने वाले वर्गों के अलावा कम ही लोगों ने जेफ़, एशले, ध्रुव, समीर या रिचर्ड का नाम सुना होगा. उनका सूक्ष्म और बारीक विश्लेषण तकनीकी समझ वालों के लिए है और वे उदारवादियों के विशिष्ट समूहों या आक्रोशित आम जनता के नज़रिए के अनुरूप अपना स्तर नहीं गिरा सकते. दूसरी ओर राणा अयूब की बात करें तो सुप्रीम कोर्ट तक उनकी किताब गुजरात फाइल्स– ‘एनॉटमी ऑफ ए कवरअप’ को खारिज कर चुका है. एक एनजीओ ने इस किताब के आधार पर हरेन पांड्या हत्या मामले की नए सिरे से जांच कराए जाने के लिए याचिका लगाई थी, जिस पर कोर्ट ने किताब को ‘अटकलों, अनुमानों और कल्पनाओं पर आधारित’ करार दिया था. लेकिन जब तक राणा अयूब अखबार की वेबसाइट को पर्याप्त क्लिक दिलाती रहती हैं, वह उसके लिए किसी गंभीर विश्लेषक से अधिक उपयोगी हैं.

विदेशी प्रेस के लिए कार्यरत समूह

कोई वजह है कि कथा फिल्में वृतचित्रों से अधिक चलती हैं. पत्रकारिता की स्थिति कुछ ऐसी हो चुकी है कि तथ्य उतना रोमांचित नहीं करते, जितना कि कहानीकारी और तीखे विभाजनकारी विचार. इसीलिए डिजिटल मीडिया को राणा अयूब और स्वाति चतुर्वेदी जैसे लोगों की ज़रूरत पड़ती है. उनमें से कुछ लोगों को सोशल मीडिया पर बड़ी संख्या में लोग फॉलो करते हैं, जो अखबारों के लिए पर्याप्त वेब ट्रैफिक सुनिश्चित करने में सहायक है.

इस संबंध में इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि उनके कितने लेख उन अखबारों के प्रिंट संस्करण में छपते हैं. दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि प्रकाशन अपने स्तंभकारों का चुनाव लेखकों की दलीलों के वजन या प्रवाह के आधार पर नहीं करते. प्रकाशन के व्यवसाय का अंदरूनी सच ये है कि गहन साझेदारी के इस दौर में विभिन्न मीडिया संगठन सामाजिक और राजनीतिक तौर पर अपने अनुकूल लोगों ही चुनते हैं.

यदि आप दिल्ली में इतालवी सांस्कृतिक केंद्र या विदेशी संवाददाता क्लब के सदस्य हैं या खान मार्केट में चहलकदमी भर ही करते हैं, तो आपको अक्सर वहां न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, गार्डियन और वॉल स्ट्रीट जर्नल के संवाददाता मिल जाएंगे. निरपवाद रूप से वे राणा अयूब, अरुंधति रॉय और पंकज मिश्रा से प्रभावित होते हैं. इन विदेशी पत्रकारों को जवाब नहीं चाहिए, उन्हें तो बस अपने मन में पहले से जमे विचारों का सत्यापन कराना होता है. इसमें बड़ी भूमिका दिल्ली के सामाजिक समीकरणों की है जहां गोरों को उस सामाजिक स्तर में शामिल कर लिया जाता है जोकि उन्हें स्वदेश में नसीब नहीं होता- काफी कुछ उन ब्रितानी कॉकनी कर्नलों की तरह जो भारत आने पर अचानक महाराजाओं के साथ शिकार पर जाने वाले वर्ग में शामिल हो गए थे.


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कथानकों के लिए वामपंथियों का सतत संघर्ष

शैंपेन समाजवादियों की एक स्पष्ट विशेषता ये है कि एक बार उन्होंने आपको अपनी आवाज़ मान ली, तो फिर वे सामाजिक के साथ-साथ आर्थिक रूप से भी आपको आगे बढ़ाना शुरू कर देते हैं. प्रभावी शैंपेन समाजवादी मिलते-जुलते विचारों वाले लेखकों की टिप्पणियों को परस्पर साझा करके ‘वामपंथी आवाज़’ को स्वर देते हैं. ताकि उनका पारिस्थिकी तंत्र फलता-फूलता रहे. यह लॉबी यथास्थितिवादियों की है जो मोदी सरकार द्वारा बेदखल किया गया महसूस करते हैं और उनके पास एकमात्र चारा यही है कि कथानक पर पूरा नियंत्रण कर लो और यहीं पर विदेशी प्रकाशनों और उसके संपादकीय पेज की भूमिका आती है, जहां देसी वामपंथ के सहयोग से भारत के खिलाफ कूटनीतिक लड़ाई चलती है.

कथानक पर नियंत्रण के इस संघर्ष के दो कारक हैं- जिनमें से दोनों ही भारतीय वामपंथ के लिए कारगर नहीं प्रतीत होते. पहला है वैश्विक स्तर पर गहन साझेदारी और उसी के साथ-साथ सोशल मीडिया की वजह से मध्यवर्ती वैचारिक भूमि का लोप. अमेरिका की बात करें या ब्रिटेन या भारत की, सोशल मीडिया हमें एथेंस की सभाओं वाले काल में ले आया है. जब सुकरात को ज़हर पीने पर बाध्य किया गया था. बारीकियों या विचारधाराओं को परस्पर जोड़ने की कोई जगह नहीं है, और कथानक पर हमेशा अतिवादी दृष्टिकोण ही हावी होता है. जहां तक दूसरे कारक की बात है तो इसने वामपंथ के कथानक वाले खेल को और भी नुकसान पहुंचाया है – डोनाल्ड ट्रंप, बोरिस जॉनसन और नरेंद्र मोदी जैसे दक्षिणपंथी नेता का उदय. जैसा कि मैं पहले लिख चुका हूं, इन नेताओं के लिए जितनी अधिक घृणा फैलाई जाएगी, उनके लिए चुनावी मुक़ाबला उतना ही आसान हो जाएगा. इस तरह देखें तो न्यूयॉर्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट अपने आक्रामक लेखों से मोदी के फिर से निर्वाचित होने का रास्ता ही तैयार कर रहे हैं- ये अच्छे इरादों से गलत रास्ता चुनने का एक बढ़िया उदाहरण है.

यहां एक और बात स्पष्ट करने की ज़रूरत है. आज के दौर में, गंभीर रिसर्च के लिए पैसे उपलब्ध नहीं हैं. मीडिया के गिरते राजस्व के मद्देनज़र महंगी तथ्यात्मक रिपोर्टिंग पर सस्ते वैचारिक लेखों को हमेशा प्राथमिकता मिलेगी. ऐसे माहौल में कहानियां बुनने वाले हमेशा जीतते हैं. इस खेल में धोखा सिर्फ भोली जनता को खाती है. वरना मीडिया प्रतिष्ठानों और उनके भड़काऊ प्रतिनिधियों के लिए ये एक कमाऊ तरीका है और लक्षित राजनीतिक नेता इसे पसंद करते हैं- मीडिया ऐसी आवाज़ों को जितना अधिक बढ़ावा देगा, उन्हें उतने ही अधिक वोट मिलेंगे. यानि ये सबके लिए फायदे वाली स्थिति है.

(लेखक सेंटर फॉर पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट स्टडीज़ में वरिष्ठ अध्येता हैं. वह @iyervval हैंडल से ट्वीट करते हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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