किसी भी सरकार के लिए एक मजबूत विपक्ष का होना जरूरी है, जो एक विकल्प के तौर पर उसके ऊपर अंकुश का काम कर सके. पिछले छह वर्षों से भारत में इसकी कमी बनी हुई है. क्षेत्रीय दलों को हाशिये पर धकेल दिया गया है या जबरन चुप करा दिया गया है या खरीद लिया गया है. और कांग्रेस को राहुल गांधी से कमजोर नेतृत्व मिल रहा है. पार्टी अध्यक्ष के रूप में उनकी पूर्ववर्ती और उत्तराधिकारी के रूप में उनकी मां सोनिया गांधी उम्रदराज और निर्वाचन के योग्य न रह गए सलाहकारों को किनारे करके युवाओं को आगे लाते हुए उन्हें फिर से गद्दी सौंपने की तैयारी कर रही हैं. यानी रॉबर्ट ब्रूस के मकड़े की तरह राहुल एक बार फिर खुद को संजीदा, विचारशील नेता के रूप में पेश करने की कोशिश करेंगे. लेकिन क्या वे और उनकी पार्टी 2019 और 2014 के चुनाव अभियानों की तरह एक बार फिर गलत निशाना तो नहीं साध रही है?
यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि दो जनमत सर्वेक्षणों (जिन्हें विश्वसनीय माना जा सकता है) के मुताबिक प्रधानमंत्री की रेटिंग अकल्पनीय ऊंचाई को छू चुकी है. दूसरे कई देशों के नेताओं की रेटिंग में भी उछाल आई है, जैसे कि डोनाल्ड ट्रंप के मामले में भी हाल में ऐसा ही हुआ है, लेकिन किसी ने नरेंद्र मोदी के स्तर को नहीं छुआ है. केवल जॉर्ज डब्ल्यू बुश 9/11 कांड के तुरंत बाद इस स्तर को छू पाए थे. लोग संकट के समय में झंडे के नीचे एकजुट हो जाया करते हैं लेकिन मोदी और बाकी नेताओं में यह अंतर असाधारण है. यह पूरी तरह राहुल की गलती भी नहीं है, छवि चमकाने और अपनी विफलताओं को भी सफलता में बदल डालने की कला में मोदी को भारी महारत हासिल है. फिर भी, मोदी जब अपनी दूसरी सरकार की पहली वर्षगांठ मनाने जा रहे हैं, तब निकट भविष्य में विपक्ष की मजबूती की कीमत क्या होगी?
हाल में राहुल के जो दो वीडियो जारी हुए हैं उन पर गौर कीजिए. उन्होंने जो वीडियो प्रेस कान्फ्रेंस किया उसमें ‘स्ट्रेटेजी’ (और उसके पर्यायों) शब्द का बार-बार इस्तेमाल करने के लिए उनकी खिंचाई की गई. और कोविड-19 का मुक़ाबला करने की सरकारी रणनीति पर राहुल के तार्किक हमले का आसानी से खंडन किया गया कि टेस्टिंग बढ़ाने से पॉज़िटिव मामलों का प्रतिशत बढ़ा नहीं है, सरकार लाल, नारंगी और हरे जोन का निर्धारण करके उसी के मुताबिक ‘रणनीति’ अपना रही है और इससे मरीजों के ठीक होने की दर बढ़ी है तथा मृत्यु दर नीची रही है. राहुल ने कहा कि लॉकडाउन में ‘छूट’ देने के बाद संक्रमण का दूसरा दौर आएगा. यह तो भविष्य ही बताएगा.
दूसरे वीडियो में राहुल रघुराम राजन से बात करते दिखते हैं. राहुल सवाल करते हैं और राजन जवाब देते हैं. यह अजीबोगरीब स्थिति थी. सबसे बड़े विपक्षी दल के तथाकथित नेता समाधान सुझाने और ज्ञान बांटने की जगह ज्ञान ग्रहण कर रहे थे. डॉ. राजन कुछ समय से राहुल के अनौपचारिक सलाहकार की भूमिका निभा रहे हैं. लेकिन कोई नेता अपना शिष्य-गुरु रिश्ता सार्वजनिक नहीं करता. किसी बड़े लोकतान्त्रिक देश में विपक्ष का नेता अपनी इस तरह की छवि सार्वजनिक करे, यह अकल्पनीय ही है.
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जहां तक कांग्रेस की बात है, सरकारी कर्मचारियों के महंगाई भत्ते को कुछ समय के लिए रोकने के सरकारी फैसले की आलोचना करके उसने अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली. राजस्थान में उसकी अपनी सरकार ने और महाराष्ट्र में उसकी साझेदारी से चल रही सरकार ने कर्मचारियों के वेतन में कटौती की घोषणा की है. महंगाई भत्ते वाले मामले में पार्टी का पक्ष रखने वाले मनमोहन सिंह खुद 1974 में मुख्य आर्थिक सलाहकार थे जब इंदिरा गांधी ने कर्मचारियों के महंगाई भत्ते का आधा भाग इस शर्त के साथ अनिवार्य बचत में डलवा दिया था कि उसे अगले छह वर्षों में निकाला जा सकेगा.
असली मुश्किल यह है कि कांग्रेस नेतृत्व जब आलोचना करती है तो वह अपना पूर्वाग्रह दिखाते हुए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करती है जिसे छोटा तबका ही समझ सकता है, जबकि मोदी जनता की भाषा हिंदी में बोलते हैं. वरिष्ठ कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम समेत जयराम रमेश, शशि थरूर सरीखे नेता जोरदार तर्क और जायज आलोचना कर सकते हैं लेकिन राजनीति के युद्धक्षेत्र में वे घुड़सवार टुकड़ी या तोपखाना का काम न करके निशानेबाज़ों की भूमिका निभाते हैं. और, महुआ मोइत्रा जिस प्रियंका गांधी को पेश करती हैं वैसी वे निश्चित ही नहीं हैं.
अगर कांग्रेस को अंग्रेजी भाषी, मध्यवर्गीय तबके में पैठ बनानी है तो उसे तार्किक जवाब तैयार करने पड़ेंगे, जब कि हर कोई महसूस करने लगे कि व्यापार जगत को अगर नाटकीय मंदी में अपना वजूद बचाना है तो उसे वेतन आदि निश्चित लागतों को घटाना होगा. कांग्रेस से यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वह इन वास्तविकताओं का ख्याल रखते हुए आलोचना करे और यथार्थपरक समाधान पेश करे.
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Very good analysis sir