नई दिल्ली: ‘लॉकडाउन से पहले लहसुन-अदरक की रेहड़ी लगाता था. अब कभी गांव वाले तो कभी पुलिस वाले रेहड़ी लगाने से मना कर देते हैं. आमदनी नहीं है और कहीं से मदद भी नहीं मिल रही. समझ नहीं आ रहा कि दिल्ली में कैसे गुज़ारा होगाा,’ दिप्रिंट से ये बात 30 साल के अजय कुमार ने कही.
अजय दिल्ली के मुनिरका में रहते हैं. जवाहरलाल यूनिवर्सिटी (जेएनयू) से सटे मुनिरका में अजय की पत्नी और तीन बेटियां उनके साथ रहते हैं. उनके भाई राम कुमार का भी पांच लोगों का परिवार यहीं रहता है. यहां रह रहे बिना राशन कार्ड वाले ऐसे प्रवासी परिवारों की हालत भी अजय जैसी ही है जिनके पास एक दो-दिन का राशन बचा है.
इनके जैसे कई लोग लॉकडाउन के पहले चरण के दौरान दिल्ली से अपने गांव चले गए लेकिन गांव नहीं जा सके राम कुमार ने कहा, ‘हम यूपी के कन्नौज से हैं. लॉकडाउन के बाद घर जाने की कोशिश की पर कोई साधन नहीं मिला.’ लॉकडाउन की वजह से ऐसे तमाम लोग सांप-छछुंदर के फेर में फंसे हैं और पेटभर भोजन की फरियाद कर रहे हैं.
उन्होंने कहा कि अभी मकान मालिक किराया नहीं मांग रहा पर यहां 4000 किराए में जाता है. गांव में अपना मकान है लेकिन गांव जाना कोई हल नहीं है. उन्होंने कहा, ‘वहां मकान है पर ज़मीन नहीं है. काम भी नहींं मिलेगा. बच्चों का एडमिशन भी यही हैं. सरकार अगर राशन दे देती तो हम गुज़ारा कर लेते.’
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फंड को जूझ रहे एनजीओ
इनकी मदद में जो एनजीओ लगे हैं उनका भी फंड अब कम पड़ रहा है. दिल्ली में ऐसे ही लोगों को राशन देने का काम कर रहे एनजीओ स्माइल फॉउंडेशन ने जानकारी दी कि उनके पास पहले राउंड का डोनेशन था. अभी वो सेकेंड राउंड का डोनेशन इकट्ठा कर रहे हैं. इस बार उन्होंने देशभर में 1.50 लाख़ परिवारों को मदद करने की योजना बनाई है.
एक परिवार को एक महीने के सूखे राशन के किट का खर्च 2500 आता है. ऐसे में उन्हें 3 करोड़ रुपए की ज़रूरत होगी. इसके लिए वो कटरीना कैफ़ समेत अन्य बॉलीवुड़ सेलिब्रिटीज़ का चाइनीज़ एप टिकटॉक पर एक इवेंट कराने वाले हैं जिससे फंड इकट्ठा होने की उम्मीद है.
तीन चौथाई कामगरों के पास नहीं कोई सामाजिक सुरक्षा
कोरोना महामारी और लॉकडाउन से जूझ रही पूरी दुनिया की आर्थिक स्थिति से जुड़ी फॉरेन पॉलिसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 471 मिलियन कामगर लोगों में से 19 प्रतिशत आबादी ही ऐसी है जिन्हें उनकी नौकरी से सामाजिक सुरक्षा हासिल है.
इनमें से दो तिहाई के पास कोई औपचारिक कॉन्ट्रैक्ट नहीं होता और कम से कम 100 मिलियन यानी 10 करोड़ अजय जैसे प्रवासी मज़दूर हैं. 24 मार्च को पीएम मोदी द्वारा अचानक से की गई ल़ॉकडाउन की घोषणा के बाद इनमें से ज़्यादातर लोग अपने गांव चले गए.
इतनी बड़ी आबादी के गांव जाने का कारण समझाते हुए ऐसे ही प्रवासियों के लिए काम करने वाली राजस्थान स्थित संस्था आजीविका मिशन की अमृता शर्मा ने कहा, ‘गांवों में काम नहीं होता इसलिए ये लोग शहर आते हैं. यहां से कमाकर पैसे घर भेजते हैं.’
उन्होंने आगे कहा कि लॉकडाउन में गांव जाकर इनकी स्थिति बेहतर नहीं होगी लेकिन इसका एक मनोवैज्ञानिक पहलू ये है कि आफ़त में सबसे पहले घर-परिवार की याद आती है. दूसरा पहलू ये है कि वहां इन्हें किराया नहीं देना पड़ेगा. साथ-साथ वहां खाने की चीज़ें शहर जितनी महंगी नहीं होतीं. गांव का सपोर्ट सिस्टम भी शहर से बेहतर है.
बस सबको चाहिए थोड़ा सा अनाज
दिल्ली के लाजपत नगर से सटे गढ़ी में कपड़ों पर ज़री का काम करने वाले 21 साल के साजिद के साथ पश्चिम बंगाल के करीब एक दर्जन प्रवासी मज़दूर रहते हैं. कोलकाता के साजिद के पास भी राशन कार्ड नहीं है. एनजीओ वालों ने जो राशन दिया था वो आज-कल में ख़त्म होने को है.
ये लोग घर नहीं जाना चाहते लेकिन बिना राशन के इनका हाल बेहाल है. साजिद के साथ रहने वाले 20 साल के साहिल का कहना है, ‘घर जाकर क्या करेंगे. हमें तो ख़ुद कमाकर पैसे घर भेजने पड़ते हैं. उल्टे वहां बदमाशी करने लग जाएंगे. ईद के त्यौहार के समय काम की कमी नहीं होती. लॉकडाउन खुल जाए तो दिक्कत नहीं होगी.’
लेकिन अनाज की कमी से जूझ रहे इन लोगों को इसका भी डर है कि अगर कहीं 3 मई के बाद लॉकडाउन बढ़ जाता है तो फिर से प्रवासियों की वैसी तस्वीरें सामने आ सकती हैं जैसी पहले लॉकडाउन की घोषणा के बाद दिल्ली और दूसरे की घोषणा के बाद मुंबई से सामने आईं.
यही डर दिल्ली से सटे गुरुग्राम की एक संस्था अग्रसर को भी है. अग्रसर के निदेशक प्रेरित ने कहा, ‘दो राउंड के लॉकडाउन के बाद भी 10 प्रतिशत से ज़्यादा प्रवासी मज़दूर यहां से अपने गांव नहीं गए. हालांकि, अगर तीसरे चरण का लॉकडाउन होता है और सरकार कुछ बड़े कदम नहीं उठाती तो यहां से भी दिल्ली-मुंबई जैसी तस्वीरें सामने आ सकती हैं.’
उन्होंने जानकारी दी कि गुरुग्राम में काम करने वाले ऐसे लोगों में से 95 प्रतिशत को बिना कॉन्ट्रैक्ट के काम पर रखा गया. हालांकि, फिर भी कई कंपनी मालिकों ने अच्छा व्यवहार किया है और बहुतों को पहले रांउड के लॉकडाउन के बाद की सैलरी मिली है लेकिन एक बड़ी आबादी को जाने को भी कह दिया गया है.
उन्होंने ये भी बताया कि कई मकान मालिकों ने इन लोगों से किराया नहीं मांगा है और उल्टे खाने का सामान देकर मदद की है. ऐसा इसलिए भी है कि ज़्यादतर मकाान मालिक इनके किराए पर निर्भर हैं और नहीं चाहते कि ये जाएं. लेकिन इनमें से मुश्किल से 10 प्रतिशत लोग ही हैं जो पैसे बचा पाते हैं और जो बचाते हैं वो भी अपने गांव भेज देते हैं.
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प्रेरित के मुताबिक अब इनका यहां रहना मुश्किल हो रहा है क्योंकि ज़्यादातर प्रवासियों के पास यहां का राशन कार्ड नहीं है. गुरुग्राम और दिल्ली के प्रशासन की तारीफ़ करते हुए वो कहते हैं कि अभी तक तो इन जगहों पर स्थिति ठीक है लेकिन जल्द ही सबको मुफ़्त राशन देना होगा.
संस्था आजीविका की अमृता का भी कहना है कि इस संकट की घड़ी में पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम (पीडीएस) को यूनिवर्सल कर दिया जाना चाहिए. स्थिति विस्फोटक न बने और दिल्ली मुंबई जैसी तस्वीरें सामने न आएं, इसके लिए बिना राशन कार्ड वालों को भी अनाज दिए जाने की ज़रूरत है.
बातचीत के दौरान सभी एनजीओ, समाजिक संस्थाओं और प्रवासियों में उम्मीद की एक समान किरण दिखी. इन्हें लगता है कि 20 अप्रैल को जब चीज़ें खुलने लगेंगी तब स्थिति बेहतर होगी. हालांकि, इन्हें इसका भी भय है कि कोरोनावायरस ऐसी उम्मीद पर पानी फेर सकता है. ऐसे में ये लोग सरकार से बेहतर योजना और तैयारी की उम्मीद लगाए बैठे हैं.