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Sunday, 3 November, 2024
होममत-विमतस्वास्थ्य क्षेत्र में गहराई तक जमी गैर-बराबरी और ठेकेदारी प्रथा कोरोना काल में आई सामने

स्वास्थ्य क्षेत्र में गहराई तक जमी गैर-बराबरी और ठेकेदारी प्रथा कोरोना काल में आई सामने

कोरोना संकट ने अस्पतालों में कर्मचारियों के बीच गैर-बराबरी को एक बार फिर उजागर किया है. पिछले 30 सालों में समाज के हर कारोबारी हिस्से में ठेकेदारी प्रथा बढ़ी है और स्थाई रोज़गार कम हुये हैं. हेल्थ सेक्टर भी इसका अपवाद नहीं है.

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कोरोनावायरस ने दिखा दिया है कि जंग हमेशा सरहद पर नहीं लड़ी जाती. वह आपके शहर के बीचोंबीच भी हो सकती है. इस संकट काल ने यह देखने का मौका भी दिया है कि दुश्मन हमेशा दृष्टिगोचर नहीं होता. अदृश्य भी हो सकता है. उसके आगे मशीनगन, तोप, टैंक या फाइटर जेट काम नहीं आते बल्कि एक अलग तरीके के रक्षा मॉडल की ज़रूरत होती है. अंधराष्ट्रवाद की नींद में डूबे कई लोग आज यह समझ सकते हैं कि मज़बूत और सुरक्षित देश के लिये सैनिकों और सैन्य ढांचे के साथ-साथ बेहतर स्वास्थ्य सुविधायें, निपुण चिकित्सक, नर्स, अस्पताल और हेल्थ वर्कर कितने अहम हैं.

प्रधानमंत्री ने मंगलवार को एक बार फिर देशवासियों से कोरोना से लड़ रहे स्वास्थ्यकर्मियों का सम्मान करने की अपील की. देश का बड़ा हिस्सा अपनी बालकनी में थाली बजाने को ही हेल्थ वर्कर्स के लिये पर्याप्त हौसला अफजाई मान रहा है जबकि हमें स्पष्ट दिख रहा है कि डॉक्टरों और नर्सिंग स्टाफ के काम में हज़ार समस्यायें हैं और वह कई बुनियादी सुविधाओं के अभाव में जान का ज़ोखिम उठाकर काम कर रहे हैं.

पिछले कुछ दिनों में मीडिया में स्वास्थ्यकर्मियों को सुरक्षा कवच (पीपीई) के साथ-साथ सैनेटाइज़र और मास्क जैसी मूल सुविधायें न मिलने की बात सामने आई तो कई जगह हेल्थ वर्कर्स के घर लौटने पर अपने अपार्टमेंट या पड़ोस में ही उनका विरोध होता दिखा. यह उस डरपोक और स्वार्थी समाज का चेहरा है जो देशभक्त दिखने के लिये भले ही मोमबत्ती और दिया जलाकर तस्वीरें खिंचाता हो लेकिन असल ज़िम्मेदारी के वक्त अपना मुंह फेर लेता है.

फ्रंटलाइन योद्धाओं में गैर-बराबरी

कोरोना संकट ने देश में स्वास्थ्य सेवाओं की दरारों को दिखाने के साथ अस्पतालों में कर्मचारियों के बीच गैर-बराबरी को एक बार फिर उजागर किया है. पिछले 30 सालों में समाज के हर कारोबारी हिस्से में ठेकेदारी प्रथा बढ़ी है और स्थायी रोज़गार कम हुये हैं. एनुअल सर्वे ऑफ इंडस्ट्री (एएसआई) की सालाना रिपोर्ट (2016-17) बताती है कि संगठित निर्माण क्षेत्र के साथ बीड़ी, सिगरेट की यूनिट्स और बिजली क्षेत्र के (जो सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी में पंजीकृत नहीं हैं) ठेके पर काम करने वाले कर्मचारियों की संख्या 2012-13 और 2016-17 के बीच 34% से बढ़कर 36% हो गई. इसी तरह अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की पिछले साल प्रकाशित हुई रिपोर्ट के मुताबिक गुड़गांव व मानेसर में मारुति-सुजुकी के कारखाने में हर विभाग में अनुबंधित कर्मचारी बढ़े हैं और आज 70-80% वर्कर ठेके पर हैं.


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हेल्थ सेक्टर भी इसका अपवाद नहीं है. जहां बड़े-बड़े चमकदार अस्पतालों और स्वास्थ्य बीमा कंपनियों के आने से तेज़ी से समृद्ध हो रहे एक छोटे शहरी वर्ग ने सुरक्षित महसूस किया वहीं गांवों से लेकर छोटे कस्बों तक स्वास्थ्य सेवाओं का नेटवर्क कमज़ोर होता गया है. सरकार अपनी ज़िम्मेदारियों से पीछे हटी है और निजी कंपनियों और अस्पतालों ने हेल्थ सर्विस को धंधा बना लिया है.

आज कोरोना महामारी से लड़ रहे हेल्थ वर्करों का एक बड़ा हिस्सा ठेके में रखा गया नर्सिंग स्टाफ है. दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में काम कर रहे ऐसे हेल्थ वर्करों ने मुझे बताया कि वह सभी स्थायी कर्मचारियों के बराबर लम्बी और कठिन ड्यूटी कर रहे हैं. उन्हें भी कोरोना पॉज़िटिव मरीज़ों की देखभाल कर उतना ही रिस्क उठाना पड़ रहा है जितना स्थायी स्टाफ को. फिर भी स्थायी कर्मचारियों के मुकाबले कॉन्ट्रेक्ट पर रखे नर्सिंग स्टाफ को आधा पैसा मिलता है.

एक नर्स अल्पना (नाम बदला गया) ने कहा कि कम से कम इस वक्त तो वेतन में यह भेदभाव नहीं होना चाहिये जब हमारी जान को भी वही खतरा है जो बाकी कर्मचारियों को. अल्पना के अन्य सहकर्मियों ने कहा कि वह लंबे समय से स्थायी नौकरी देने या कम से कम वेतन को लेकर भेदभाव खत्म करने की मांग करते रहे हैं. यह मामला कोर्ट में भी है लेकिन पिछले कुछ सालों में ठेकेदारी प्रथा इतनी मज़बूत हुई है कि अस्पतालों में नर्सिंग स्टाफ के साथ दूसरे डिपार्टमेंट में भी कर्मचारी औने-पौने वेतन पर ही रखे जा रहे हैं.

‘दिल्ली सरकार के अस्पतालों में कम से कम वेतन का भेदभाव नहीं है लेकिन केंद्र सरकार के अंतर्गत सरकारी अस्पतालों में वेतन की गैर-बराबरी हमारे साथ अन्याय है. ऐसे वक़्त में तो यह किसी घोर अन्याय जैसा है.’ राम मनोहर लोहिया अस्पताल के ही पुरुष नर्सिंग ऑफिसर अल्पेश (बदला हुआ नाम) ने ये बात बतायी जिनकी ड्यूटी भी कोरोना पॉज़िटिव मरीज़ों की देखभाल में लगाई गई है.

इसके अलावा स्थाई और ठेके पर रखे गये स्टाफ के बीच मूल सुविधाओं जैसे मास्क और सेनेटाइज़र मुहैया कराने में भेदभाव की शिकायतें सामने आईं. दिल्ली अस्पताल ठेका कर्मचारी यूनियन के महासचिव डॉ मृगांक बताते हैं, ‘जब कोरोना बीमारी फैलनी शुरू हुई तो अस्पतालों में ठेके पर लगे स्टाफ को मास्क और सेनेटाइज़र तक देने से मना कर दिया गया. इन लोगों से कहा गया कि आप इसका इंतजाम खुद करो यानी इन बेसिक चीज़ों के लिये भी इन कर्मचारियों को संघर्ष करना पड़ा.’

मज़बूत होते ठेकेदार

केंद्र सरकार के तहत आने वाले अस्पतालों में दिल्ली के एम्स, सफदरजंग, राम मनोहर लोहिया, लेडी हार्डिंग और कलावती अस्पताल हैं. एम्स में कोई नर्सिंग स्टाफ ठेके पर नहीं है लेकिन दूसरे विभागों में लोग ठेके पर रखे जाते हैं. सफदरजंग अस्पताल में ठेके पर नर्सिंग स्टाफ के लोग हैं जिनकी तनख्वाह स्थायी कर्मचारियों से कम है लेकिन अस्पताल किसी प्राइवेट एजेंसी के ज़रिये नहीं बल्कि खुद ही इस स्टाफ की नियुक्ति करता है. इसी तरह बाकी अस्पतालों में भी नर्सिंग स्टाफ ठेके पर हैं. केंद्र सरकार के अस्पतालों में कम से कम 1000 नर्सिंग ऑफिसर ठेके पर रखे गये हैं.

एम्स के वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, ‘इन कर्मचारियों के साथ वेतन का ही भेदभाव नहीं है, इन्हें किसी तरह की कोई सामाजिक सुरक्षा योजना का फायदा भी नहीं मिलता. यूनियनें इसे लेकर आवाज़ उठाती रही हैं लेकिन पिछले कुछ सालों में ठेकेदारी प्रथा लगातार मज़बूत ही हुई है.’


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आज हर अस्पताल में डॉक्टरों और नर्सिंग स्टाफ की भारी कमी है फिर भी स्थायी नियुक्तियां नहीं की जा रही हैं. पिछले साल नौकरी से हटाये जाने के बाद राम मनोहर लोहिया, लेडी हार्डिंग और कलावती अस्पताल के ठेके पर गये नर्सिंग स्टाफ ने स्वास्थ्य मंत्री के निवास के बाहर धरना प्रदर्शन भी किया था.

क्यों रखते हैं ठेके पर ?

ठेके पर कर्मचारियों को रखने का ट्रेंड 90 के दशक में तेज़ी से बढ़ा. सभी फर्म और छोटी से बड़ी कंपनियां कर्मचारियों को ठेके पर रखती हैं ताकि उन्हें कई सुविधायें देने से बचा जा सके. इसके अलावा मालिक कर्मचारी को लेकर किसी भी तरह की ज़िम्मेदारी से भी मुक्त रहता है.

आज अस्पतालों में नर्सिंग ही नहीं सेनिटाइजेशन से लेकर सिक्योरिटी और डेटा एंट्री के साथ लोअर डिविज़न क्लर्क भी ठेके पर ही मिलेंगे. ये सभी स्थायी स्वभाव के कार्य हैं जिन्हें पेरेनियल नेचर जॉब कहा जाता है. सवाल है कि इस तरह कामों में ठेके पर लोगों को रखना 1971 के ठेकेदारी एक्ट की भावना के खिलाफ है. जब अस्पतालों में नर्सिंग स्टाफ में सैकड़ों पद खाली पड़े हों तो बार-बार उन्हीं पदों पर कर्मचारियों को ठेके पर रखना क्या उनके साथ अन्याय नहीं है.

डॉ मृगांक कहते हैं, ‘अब ग्रुप सी और डी के सभी कर्मचारियों को ठेके पर रखने का ही चलन है. इन लोगों को हर हाल में काम करना ही है वरना इन्हें नौकरी से हटा दिया जायेगा. यह जानना महत्वपूर्ण है कि इन लोगों के अनुबंध बार-बार रिन्यू किये जाते हैं. यानी उस काम के लिये कर्मचारी की निरंतर ज़रूरत है. फिर क्यों नहीं उन्हें नियमित किया जाता और उन्हें वही सुविधायें दी जाती जो स्थाई कर्मचारी को मिलती हैं.’

साफ है कि जहां एक ओर सीमा पर जवान लड़ रहे हैं वहीं दूसरी ओर देश के भीतर मेडिकल स्टाफ दूसरी जंग में लगा है. इनके पास हथियारों (सुविधाओं) की कमी तो है ही साथ ही ये यह भी नहीं जानते कि इन्हें नौकरी से कब हटा दिया जायेगा. क्या इनकी लड़ाई और अहमियत किसी भी तरह सरहद पर जान देने वाले जांबाज़ों से कम है? क्या देशप्रेम की बातें करने वाले इन योद्धाओं के लिये आवाज़ उठायेंगे?

(हृदयेश जोशी पत्रकार हैं. ये उनके निजी विचार हैं)

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