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Thursday, 21 November, 2024
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सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय का नारा बीएसपी का है या बीजेपी का

बीजेपी ने अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल से 14 अप्रैल को लगातार कई ट्वीट खुद को सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय के लिए प्रतिबद्ध बताया.

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कोरोनावायरस के संकट के बीच आप में से बहुत सारे लोगों की नजर इस बात पर नहीं पड़ी होगी कि लॉकडाउन के बावजूद इस साल बीजेपी ने डॉ बीआर आंबेडकर का 129वां जन्मदिन ढंग से मनाया. बीजेपी के लगभग हर प्रमुख नेता ने अपने घर या अहाते में आंबेडकर की तस्वीर को फूल चढ़ाए और सोशल मीडिया पर भी इस बारे में सक्रिय रहे.

बीजेपी ने अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल से 14 अप्रैल को लगातार कई ट्वीट किए. इसमें ट्वीट की एक श्रृंखला पर राजनीतिक प्रेक्षकों का ध्यान जरूर गया होगा. इन ट्वीट्स में बीजेपी ने खुद को सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय के लिए प्रतिबद्ध बताया.

इस प्रतिबद्धता को जाहिर करने के लिए बीजेपी ने तीन मिसालें दीं – एक, बाबा साहेब के जीवन से जुड़े पांच स्थलों को विकसित करके पंचतीर्थ बनाना, दो, एससी-एसटी अत्याचार निरोधक (संशोधन) अधिनियम को पारित करना और तीन, एससी-एसटी छात्रों के लिए स्कॉलरशिप की शर्तों में ढील देना.


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सबका साथ, सबका विकास से सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय तक

2014 लोकसभा चुनाव के समय से ही बीजेपी का केंद्रीय नारा सबका साथ, सबका विकास रहा है लेकिन 2018 आते-आते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनावी सभाओं में सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय की बात शुरू कर दी. उन्होंने सभाओं में ये बताया कि बाकी पार्टियां एक-दूसरों को आपस में भिड़ाकर जनता पर राज करती हैं. जबकि बीजेपी का इरादा सबको साथ लेकर चलने का है.

सवाल उठता है कि बीजेपी के पास जब पहले से ही सबका साथ, सबका विकास का असरदार नारा मौजूद है, तो उसे एक नए नारे की जरूरत क्यों पड़ी? आखिर इस नारे से बीजेपी ऐसा क्या हासिल करने की कोशिश कर रही है, जिसके लिए उसका पुराना नारा पर्याप्त साबित नहीं हो रहा है?

दरअसल, सर्वजन का नारा बीजेपी की एक लंबी कार्ययोजना का हिस्सा है. इसका मूल लक्ष्य उत्तर भारत में खासकर उन इलाकों में, जहां बीएसपी सक्रिय रही है, वहां अपने प्रभाव का विस्तार करना है.

सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय नारे की कहानी

बहुजन समाज पार्टी ने अब तक इस नारे का सबसे ज्यादा प्रयोग किया है, बल्कि इस नारे से बीएसपी की पहचान जुड़ी हुई है. लेकिन हमेशा ऐसा नहीं था. बीएसपी का शुरुआती नारा बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय था. ये सूत्रवाक्य बुद्ध ने धम्म प्रचार के लिए निकलते अपने शिष्यों को दिया था. दरअसल बीएसपी के नाम में जो बहुजन शब्द है, उसका स्रोत यही नारा है.

धार्मिक शब्द बहुजन को बीएसपी के संस्थापक मान्यवर कांशीराम ने राजनीतिक अर्थ दिया और बताया कि बहुजन का मतलब भारत की सामाजिक रूप से शोषित-पीड़ित जनता है, जिसमें अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक शामिल हैं. उन्होंने कहा कि सवर्ण जातियों के लोग इनका शोषण करते हैं और वही इनके पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार हैं. इसी विचार के साथ उन्होंने सबसे पहले दलित-आदिवासी-पिछड़े-अल्पसंख्यक सरकारी कर्मचारियों का संगठन बामसेफ बनाया. आगे चलकर उन्होंने राजनीतिक पार्टी डीएस4 बनाई और 1984 में बीएसपी का गठन किया.

बीएसपी का बहुजन कैसे बन गया सर्वजन

स्थापना के बाद के वर्षों में बीएसपी ने बहुजन विचारधारा का बेहद अक्रामक तरीके से प्रचार किया और इसकी वजह से वंचित तबकों में पार्टी का प्रभाव तेजी से फैल गया. जल्दी ही इसे चुनावी सफलताएं भी मिलने लगीं. 1993 में इसने सपा के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में सरकार का गठन भी किया लेकिन जल्द ही दोनों पार्टी के रास्ते अलग हो गए और ये अलगाव काफी कड़वाहट लेकर आया. ये अलगाव सिर्फ नेताओं में नहीं, बल्कि समर्थकों के बीच भी था.

इसके बाद बीएसपी को सरकार बनाने के लिए किसी पार्टी के समर्थन की जरूरत थी और बीजेपी ने इसके लिए खुद को प्रस्तुत कर दिया. बीजेपी के समर्थन से बीएसपी ने तीन बार 1995, 1997 और 2002 में यूपी में सरकार बनाई. लेकिन ये गठबंधन टिकाऊ नहीं था. दोनों पार्टियों के जनाधार में भी कोई दोस्ती बन नहीं पाई. बीजेपी के साथ सरकार बनाने और चलाने के दौरान बीएसपी ने अपनी वैचारिक प्रखरता को स्थगित कर दिया. आखिरकार बीएसपी ने 2007 का विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने का फैसला किया.

इस बीच बीएसपी ये समझ चुकी थी कि ओबीसी के एक बड़े हिस्से से उसकी दूरी बन चुकी है और मुसलमानों की पहली पसंद वह नहीं है. ये बीजेपी की बड़ी राजनीतिक कामयाबी थी. इस स्थिति में बीएसपी को सवर्णों को साथ लेकर चलने की रणनीति पर काम करना पड़ा क्योंकि सिर्फ दलित वोट के आधार पर सत्ता हासिल करना मुमकिन नहीं है. इसी क्रम में बीएसपी ने ब्राह्मण और अन्य सवर्ण जातियों के साथ भाईचारा सम्मेलन शुरू किए और अपने कई शुरुआती नारे छोड़ दिए. इसी दौर में सर्वजन हिताय का नारा बीएसपी ने दिया और ये कहा कि सवर्ण जातियों की ओर वह दोस्ती का हाथ बढ़ाती है. इस रणनीति का उसे लाभ मिला और 2007 में बीएसपी ने पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ यूपी में सरकार बनाई.

बीजेपी और बीएसपी के लिए सर्वजन राजनीति के मायने

बीएसपी जब सर्वजन हिताय की बात करती है तो उसकी नजर सवर्ण वोटरों पर होती है क्योंकि उसका कोर वोट दलित है और वह अपना आधार बड़ा करना चाहती है. वहीं बीजेपी का कोर वोट सवर्ण है और सर्वजन की बात करके वह मुख्य रूप से दलितों और पिछड़ों को आकर्षित करने की कोशिश करती है. बीजेपी के दलित एजेंडे में सर्वजन नारा एक पहलू है. लेकिन वह इस काम को कई मोर्चों पर कर रही है. मिसाल के तौर पर, 14 अप्रैल 2020 को ही बीजेपी नेता राम माधव ने दलित उद्यमियों, अध्येताओं और कार्यकर्ताओं के एक संगठन ऑल इंडिया दलित यूथ एसोसिएशन का विधिवत उद्घाटन किया.


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तो क्या बीएसपी को इससे चिंतित होनी चाहिए?

बीएसपी के लिए ये आसान समय नहीं है. एक ओर जहां बीजेपी केंद्र और राज्य में सरकार होने के कारण बेहद अक्रामकता के साथ बीएसपी के जनाधार में घुसने की कोशिश कर रही है, वहीं दूसरी ओर भीम आर्मी ने अब अपनी पार्टी– आजाद समाज पार्टी बना ली है और उसके निशाने पर भी मुख्यरूप से बीएसपी का दलित वोट ही है.

जहां बीजेपी सत्ता की ताकत से बीएसपी के आधार को तोड़ने में जुटी है वहीं आजाद समाज पार्टी बीएसपी समर्थकों को ये बता रही है कि बीएसपी मान्यवर कांशीराम की विचारधार से भटक चुकी है और अगर बहुजन राजनीति करनी है तो नई पार्टी से जुड़ना होगा.

इस दोतरफा हमले से बचने की चुनौती इस समय बीएसपी की है. बीएसपी अभी सर्वजन की ही राजनीति पर चल रही है. सवर्णों के एक हिस्से को साथ लाने के क्रम में उसने लोकसभा और राज्यसभा दोनों जगह संसदीय दल का नेता ब्राह्मण को बनाया है. इसके अलावा सवर्ण गरीबों को 10 परसेंट आरक्षण देने के केंद्र सरकार के विधेयक का उससे आगे बढ़कर समर्थन किया था. सवाल उठता है कि क्या सवर्ण, खासकर ब्राह्मण बीजेपी को छोड़कर एक बार फिर से बीएसपी के पास आएंगे? इसी सवाल के जवाब से बीएसपी का राजनातिक भविष्य तय होगा.

बीएसपी को एक और वजह से चिंतित होना चाहिए. ये मामूली बात नहीं है कि उसके प्रमुख नारे को बीजेपी ने अपना लिया है और इस बात से बीजेपी या उसके समर्थकों को दिक्कत नहीं हो रही है. इसका मतलब क्या यह है कि वह नारा इतना निर्गुण है कि उसे कोई भी अपना ले तो फर्क नहीं पड़ता? क्या इसका मतलब ये है कि बीएसपी के पास अब वो विचारधारात्मक तेजी नहीं है, जिसके लिए उसे जाना जाता रहा है.

ये बीएसपी के लिए अस्तित्व से जुड़ा सवाल है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह लेख उनका निजी विचार है.)

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