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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतकोरोनावायरस से सबसे ज्यादा मजबूर हमारे मजदूर हैं, वीज़ा-पासपोर्ट वालों की गलती की सज़ा इन्हें न मिले

कोरोनावायरस से सबसे ज्यादा मजबूर हमारे मजदूर हैं, वीज़ा-पासपोर्ट वालों की गलती की सज़ा इन्हें न मिले

सरकार इन प्रवासी मज़बूर-मजदूरों पर नरमी बरतें और सभी को राशन और अन्य जरूरी सामान सरकार उपलब्ध कराए.

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आज की परिस्थितयों ने मुझे बेचैन कर दिया है कि मैं समाज के उस तबके के लिए लिखूं जो सालों से अपना श्रम इस देश को बनाने में जुटाए हैं- चाहे वो खेतों में किसान भाई-बहन हों जो पूरी मेहनत से अनाज बोते हैं पर फिर भी कितनी बार उन्हें भूखे पेट रहना पढ़ता है. जो शहरों में मजदूर बहन-भाई रात-दिन एक करके बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी करते हैं, पर फिर भी कई रातों को उनको बिना छत के सोना पड़ता है. हां, मैं आज उन तमाम मेहनतकश जनता की आपबीती पर बात करना चाहता हूं, जो इस देश की नींव में ईंट के समान हैं.

कोरोनावायरस महामारी, एक ऐसा खतरा है जो पूरी मानवता को संकट में डाल दिया है. इस महामारी को रोकने के लिए लोगों को अपने-अपने घरों में रहने को कहा गया है. पर इस सब के बीच हमारे बीच लाखों लोग है, जो बंदी के बाद से यानी 25 तारीख से लेकर आज तक बिना किसी व्यवस्था के, भूखे, बीमार, बिना पैसों के बस सड़क पर आ गए हैं. ये तमाम लोग देश में अलग-अलग जगह मज़दूरी करते हैं. इन्हें मीडिया कि चमकाहट से हमेशा दूर रखा जाता है, पर आज हमारे सामने जब सारे प्रतिष्ठित लोग अपने घरों में बंद हैं, तो हमें इन लाखों करोड़ों मजदूरों की तस्वीर दिखाई दे रही है.


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एक रात इन्हें मालूम पड़ता है कि अगली सुबह से पूरा देश बंद रहेगा. तो वास्तविक बात है कि वो सब निकल पड़ते हैं, अलग-अलग राज्यों से- दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात और अन्य राज्यों से अपने अपने घरों की ओर, कोई जेब में 100 रुपए लेकर, कोई खाली जेब ही, अपने छोटे-छोटे बच्चों को सर पर बैठाकर, कोई अपने पैरों में पड़े छालों को भुलाकर.

टीवी, अखबार व वेबसाइट्स के जरिए पता चला कि रास्तों में बहुत से मजदूरों की भुखमरी, बीमारी से हालत खराब हो गई है. कुछ जान भी गंवा बैठे. पुलिस और प्रशासन के लोगों ने भी मज़दूर वर्ग पर बर्बरता दिखाई- कहीं इन्हें पुलिस के डंडे खाने पड़े क्यूंकि ये जरूरी सामान खरीदने घर के बाहर निकले, तो कहीं मजदूरों के वापस लौटने पर इन पर केमिकल छिड़काया गया जिसका इस्तेमाल सिर्फ कीड़े मारने के लिए आमतौर पर होता है. ये व्यवहार कोई भी मानवीय सरकार के होते हुए नहीं हो सकता.

अब लखीमपुर खीरी की ही घटना देख लीजिए जिसमें पुलिस ने दलित समाज के एक मजदूर को इतना मारा की उसने 1 अप्रैल को आत्महत्या कर ली. यहां तक कि कुछ राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने बयान तक जारी किया कि इन प्रवासी मजदूरों को वो वापस नहीं आने देंगे, असल में जहां मज़दूर का घर है, वो अपनी ही मिट्टी के लिए मेहमान बना दिए गए.

क्यों निकल पड़े प्रवासी घर की ओर

हम सबके मन में ये सवाल जरूर आता है कि आखिर क्यों ये प्रवासी मज़दूर अपने घर की ओर निकल पड़े हैं, ये मालूम होते हुए भी की रास्तों में खाना नहीं होगा, हजारों किलोमीटर पैदल चलना होगा, सरकार की बेरहमी होगी. फिर भी इन सके बावजूद, आखिर क्यूं? जवाब इनकी मज़बूरी में छुपा हुआ है. एक बार अपने आप को इनकी जगह रखकर देखिए, जवाब खुद ब खुद सामने आ जाएगा. इनकी ज़मीनी हकीक़त से जुड़िए न कि बौद्धिक स्तर पर. मैं आज के इस मज़बूर-मज़दूर को इतनी गहराई से इसलिए समझ पाता हूं क्योंकि एक समय मैं भी मज़दूर था.

आज मैं दो बार से विधायक हूं, उत्तर प्रदेश कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष हूं. पर पीछे कुछ सालों पहले 2007 में, मैं भी मज़दूरी करता था गुरुग्राम में, तब गुड़गांव हरियाणा में. यदि आज के हालात तब पैदा हुए होते तो इन मज़दूर भाइयों- बहनों के साथ मैं भी कहीं रास्ते पे दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष कर रहा होता. आज भी मुझे मज़दूरी के दिन याद हैं. हम 30 साथी एक झुग्गी में रहते थे और 3 शिफ्ट में काम करते थे. झुग्गी इतने लोगों के लिए पर्याप्त नहीं थी, एक बार में अधिकतर 10 लोग ही सो पाते थे. खाना भी बारी-बारी बनता था और राशन तो हफ्तेभर का साथ में लेकर आते थे उन पैसों से जो कॉन्ट्रैक्टर ने देता था. अब सोचिए कि क्या ये हमारा सोना और खाना लॉकडाउन के साथ संभव है? क्या 30 लोग एक साथ उस छोटी सी झुग्गी में सो पाएंगे? क्या बिना कॉन्ट्रैक्टर से हफ्ते की मज़दूरी लिए राशन खरीद पाएंगे?

अपनी मिट्टी से सबको उम्मीद होती है, उम्मीद रहती है की शायद शहर का कांट्रैक्टर पैसा दे न दे लेकिन गांव का पड़ोसी ज़रूर दो मूठी चावल दे देगा, उम्मीद रहती है की गांव में घर के छत पे ही सही नींद सुकून की आए. शायद यही उम्मीद इन मज़बूर-मज़दूरों की थी वरना इतनी बड़ी कोरोना महामारी के समय जब लोग किसी को छूने से डर रहे हैं तो ये लाखों-हज़ारों की संख्या में बस स्टैंडों पे खड़े नहीं मिलते. आज देश और सरकार को समझना होगा कि ये मज़दूर, मज़बूर हैं इस प्रणाली के सामने जिसने इन्हें लाचार कर दिया जाता है.

अगर दूसरे राज्यों से हो रहे मज़बूर-मज़दूर पलायान की जड़ में जाएं तो इसका बड़ा कारण वो सरकारें हैं जो 90 के दसक के बाद यहां आईं, 1990 से पहले उत्तर प्रदेश में कानपुर उद्योग क्षेत्र, गोरखपुर औद्योगिक क्षेत्र, उरई औद्योगिक क्षेत्र, सोनभद्र पावर प्लांट बनाए गए लेकिन पिछले 30 सालों में ऐसी कोई बड़ी पहल नहीं की गई. यदि पिछले 30 साल में औद्योगीकरण की ईमानदार पहल की होती तो आज उत्तर प्रदेश के मजदूरों का ये हाल नहीं होता. अक्सर इन्हें जाति-धर्म की लड़ाइयों में गुम कर दिया जाता है, ताकि वो अपनी मूल मांगे न उठा सकें.


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सरकार से गुजारिश

अंत में मेरी सरकार से दो गुज़ारिशें हैं- एक कि सरकार इन प्रवासी मज़बूर-मजदूरों पर नरमी बरतें और ये समझे कि इन वीजा-पासपोर्ट वालों की गलती की सजा इन गरीब मज़दूरों को न दे, दूसरा कि सभी को राशन और अन्य जरूरी सामान सरकार उपलब्ध कराए. आशा करता हूं कि दलित-पिछड़े-किसान और उनके बेटे-बेटियां इस विपदा से उबर पाएं और देश को बनाने के काम को फिर से शुरू कर पाएं. यही लोग भारत का भविष्य लिखेंगे अपनी मज़बूत बाहों से.

(अजय कुमार लल्लू यूपी में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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1 टिप्पणी

  1. Government should take some steps to fix their problem. Everyone can see it but somehow authorities are not taking necessary action. This issue has to be fixed.

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