सूरत से जैसी तस्वीरें और ख़बरें आयीं, उन्हें साधारण नाराज़गी समझना बचकानापन होगा. वास्तव में ये लॉकडाउन के प्रति नहीं, बल्कि इसे लागू करने के तरीकों के प्रति ग़रीबों और प्रवासी मज़दूरों की नाराजगी का इजहार है. सरकारों को इसे गंभीरता से लेना चाहिए. लॉकडाउन के कारण होने वाली तकलीफों और अनिश्चितता के कारण ये असंतोष देश के बाकी हिस्सों में भी हो सकता है, जिसे अगर न रोका गया तो लॉकडाउन का पूरा उद्देश्य ही विफल हो जाएगा.
इस लेख का मकसद उन कारणों और परिस्थितियों को समझने की कोशिश करना है, जिनकी वजह से सूरत की सड़कों पर सैकड़ों मजदूर उतर आए और आगजनी की. दुर्भाग्यवश, मुख्यधारा के मीडिया को या तो इन जनाक्रोश के बारे में पहले से कुछ भी पता नहीं होता. या फिर वह इनकी रिपोर्टिंग जान-बूझ कर नहीं करता. दोनों की स्थितियों में नुकसान देश का है. अगर मीडिया इस तरह के पनपते गुस्से के बारे में सही समय पर रिपोर्टिंग करे, तो सरकारों के लिए उनके कारणों की शिनाख्त करना और समस्या का समाधान खोजना आसान हो जाएगा. लेकिन मीडिया का ज्यादा ध्यान सरकार का गुणगान करने से लेकर तबलीग़ी जमात और हिन्दू-मुसलमान करके जनता को भरमाये रखने पर है.
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सूरत में क्यों हुई हिंसा
कोरोनावायरस को फैलने से रोकने के लिए लॉकडाउन का उपाय सरकार ने चुना, जो शायद सही भी है. दुनिया के कई देश ऐसा कर चुके हैं लेकिन ऐसा करते समय ग़रीब, खेतिहर कामगार, प्रवासी मज़दूरों और दिहाड़ी मज़दूरों के बारे में कुछ भी नहीं सोचा गया. ये नहीं सोचा गया कि इनके रोजगार का क्या होगा? इस बारे में विचार नहीं किया गया कि जब शहरों में इनके पास काम नहीं होगा, तब वे शहरों में कैसे रह पाएंगे और जब वे शहरों में नहीं रह पाएंगे तो फिर क्या करेंगे. बेशक गरीबों की इन तकलीफों के लिए प्रधानमंत्री माफी मांग चुके हैं और लॉकडाउन की अनिवार्यता के बारे में बता चुके हैं लेकिन अब तक उनकी तकलीफों का अंत नहीं हुआ है.
सूरत की ही घटनाओं को लें तो ख़ुद को घरों में क़ैद रखने के बजाय सूरत में मेहनतकश प्रवासी लोग 11 अप्रैल को जान हथेली पर रख सड़कों पर उतर आये. इससे पहले भी वहां के मजदूर अपनी नाराजगी जता चुके हैं. वहीं अपने खातों में 500 रुपये पाने के लिए जन धन खातों वाली महिलाओं की बेकाबू और बदहवास भीड़ बैंकों के सामने उमड़ पड़ी. मध्य प्रदेश के भिंड में पुलिस ने उन्हें हिरासत में लेकर जेल भेज दिया. सूरत में सड़कों पर उतरे ग़रीब, मेहनतकश, प्रवासी मज़दूर चाहते क्या हैं? उन्हें भोजन-पानी चाहिए, अपनी बक़ाया मज़दूरी चाहिए और यदि लॉकडाउन जारी ही रहना है तो उन्हें उनके घरों तक भेजे जाने का इंतज़ाम चाहिए.
लॉकडाउन ख़त्म होने से पहले प्रवासी मजदूरों को उनको घरों तक भेजना तो मुमकिन नहीं हो सकता, लेकिन बाक़ी दोनों मांगें पूरी की जा सकती हैं. सिर्फ़ सूरत में ही नहीं, बल्कि देशभर में ग़रीबों को राशन के अलावा आर्थिक मदद देने का बीड़ा सरकार को फ़ौरन उठाना चाहिए. ऐसा न होने पर, लॉकडाउन की अब तक की सारी उपलब्धियों पर पानी फिर जाएगा.
सरकार का लॉकडाउन पर अलग-अलग नजरिया
ये महत्वपूर्ण है कि सरकार ने विमान यात्राओं को रोकने के मामले में ढिलाई बरती. 20 मार्च तक अंतरराष्ट्रीय और 23 मार्च तक डोमेस्टिक उड़ानें चालू रहीं, जबकि ये मालूम हो चुका था कि कई देशों में कोरोना फैल चुका है और विदेश से आने वाले यात्रियों के रास्ते ये भारत भी आ चुका है. कैबिनेट सचिव राजीव गौबा ने ऐसे लोगों की तादात 15 लाख बतायी थी. ये लोग 18 जनवरी से 23 मार्च के दौरान देश में आते रहे. इस तरह सरकार का दो तरह का नजरिया साफ नजर आता है. अमीर और प्रभावशाली लोगों के प्रति सरकार नरम रही, वहीं गरीब जनता पर सख्ती से लॉकडाउन लागू कर दिया गया.
अभी लॉकडाउन में ज़्यादातर सम्पन्न लोग अपने-अपने घरों में हैं, लेकिन घर से बाहर, यहां-वहां फंसे हज़ारों-लाखों वही ग़रीब, प्रवासी मज़दूर और मेहनशकश लोग हैं, जो अपने पसीने से अर्थव्यवस्था को चलाते हैं. यही तबका देश के 80 फ़ीसदी वाले असंगठित क्षेत्र का हिस्सा है. इस सेक्टर में बड़ी संख्या में लोग स्वरोजगार से जुड़े हैं जिनकी औसत आमदनी 8,000 रुपए प्रतिमाह है. लॉकडाउन से फ़ैसले में यदि इस तबके की तकलीफ़ों का खयाल रखा गया होता तो ये ख़ुद को ठगा हुआ और उपेक्षित नहीं महसूस करते.
सवाल उठता है कि चीन के वुहान और हुबेई प्रान्त में 23 जनवरी को लॉकडाउन लागू हो गया, और 30 जनवरी को जब भारत में पहले कोरोना पॉज़िटिव का पता चला तभी से युद्धस्तरीय तैयारियां क्यों नहीं की गयीं? इस दौरान देश में बहुत कुछ चलता रहा. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के स्वागत में भव्य समारोह हुए, दिल्ली में चुनाव हुए, सरकार बनी, फिर सीएए-एनआरसी का विवाद हुआ, दिल्ली में हिंसा हुई और मध्य प्रदेश में नई सरकार का गठन हुआ. जाहिर है कि सरकार की प्राथमिकताओं में कोरोनावायरस का नियंत्रण करना शामिल नहीं था या फिर ये सवाल प्राथमिकताओं में काफी पीछे था.
4 मार्च को जब प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति ने होली नहीं मनाने का ऐलान किया तभी उन्होंने देशवासियों से ये क्यों नहीं कहा कि वो भी अपने-अपने घरों की बालकनी में खड़े होकर आपस में ही होली खेल लें.
Experts across the world have advised to reduce mass gatherings to avoid the spread of COVID-19 Novel Coronavirus. Hence, this year I have decided not to participate in any Holi Milan programme.
— Narendra Modi (@narendramodi) March 4, 2020
अगले दिन प्रधानमंत्री ने अपनी ब्रुसेल्स यात्रा रद्द करने का ऐलान किया. यानी, तब तक उन्हें पता चल चुका था कि उनका विदेश जाना सुरक्षित नहीं रहा. जब प्रधानमंत्री को 5 मार्च को ही ये समझ में आ गया था कि उनका विदेश जाना उचित नहीं है, तो वे यही सलाह देशवासियों को भी दे सकते थे और ऐसी स्थिति में अंतरराष्ट्रीय उड़ानों पर उसी समय पाबंदी लगा देना उचित होता. साथ ही जनता कर्फ्यू को ऐलान 19 मार्च को किया गया और इसके लिए तीन दिन का समय दिया गया लेकिन लॉकडाउन के लिए सिर्फ 4 घंटे का समय दिया गया.
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जनता की जरूरतों का ध्यान रखे सरकार
130 करोड़ की आबादी वाले देश में, जहां करोड़ों लोग शहरों में बेहद कम संसाधनों के साथ रह रहे हों, वहां लोगों से ये उम्मीद करना कि वे 21 दिनों तक बिना काम-धंधा किए रह लेंगे, यह तर्कसंगत नहीं था. जाहिर है कि लोग लाखों का संख्या में अपने-अपने गांव और कस्बों की ओर चल पड़े और कई बड़े शहरों में भगदड़ की स्थिति बन गई. इसका कुल नतीजा ये हुआ कि डिस्टैंसिंग के जरिए कोरोनावायरस को फैलने से रोकने का पूरा प्रोजेक्ट ही खतरे में पड़ गया.
अब भी वक़्त है कि प्रधानमंत्री लॉकडाउन की मियाद बढ़ाने के ऐलान के साथ ही देश और ख़ासकर मेहनतकश तबके को समझाएं कि मौजूदा चुनौतियों को देखते हुए सरकारें उनके लिए क्या-क्या करने वाली हैं. इसके लिए राज्य सरकारों को भी साथ लेना होगा और उन्हें संसाधन देने होंगे. जिन चिंताओं ने ग़रीबों को बेचैन कर रखा है, उन्हें लेकर ऐसा समाधान ढूंढ़ना होगा, जिससे लॉकडाउन के मक़सद पर आंच नहीं आये. देश में खाद्यान्न की कोई कमी नहीं है, और नई फसल भी तैयार है, लेकिन सप्लाई चेन चरमरा चुकी है. इसे फिर से चालू करने की ज़रूरत है. गरीब लोगों के खाते में ठीक-ठाक रकम ट्रांसफर करनी होगी और वह रकम 500 रुपए नहीं होनी चाहिए. मजदूरों को ये विश्वास भी दिलाना होगा कि गांवों में उनके परिवारों का खयाल रखा जा रहा है.
यानी बहुत सारा दारोमदार इस समय सरकारों पर है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक प्रेक्षक हैं. यह उनके निजी विचार हैं)