भारत में कोरोनावायरस को दस्तक दिए कई हफ्ते बीत चुके हैं. इस दौरान इस विषाणु ने ज्यादातर बडे़ शहरों और कई छोटे शहरों कस्बों में अपने पांव पसार लिए हैं. यदि समय रहते लॉकडाउन न किया जाता तो यह गांव देहातों को भी अपनी चपेट में ले लेता. हालात आज भी चुनौतीपूर्ण हैं लेकिन इतना संतोष तो है कि हम इस खतरे को गांवों-कस्बों तक फैलने से रोक पाए हैं. लेकिन भारत जैसी भौगोलिक और सामाजिक स्थितियों वाले देश में पूर्ण लॉकडाउन को अंजाम दिया जा सकता है, इससे दुनिया के बडे़ बडे़ देश हतप्रभ हैं. एक ओर जहां स्वास्थ्य सेवा से जुड़ी संस्थाएं और विशेषज्ञ भारत के इस कदम की खुलकर और बार-बार प्रशंसा कर रहे हैं वहीं कुछ विदेशी मीडिया के स्तंभकार इस पर सवाल उठा रहे हैं. उनके लिए शायद यह हजम कर पाना कठिन हो रहा है कि जो बडे़ बडे़, समृद्ध पश्चिमी देश नहीं कर पा रहे वह भारत भला कैसे कर सकता है, जिसके पास न तो उतनी विकसित स्वास्थ्य व्यवस्था है और न ही इतने संसाधन.
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उन्हें यह समझना होगा कि उदारीकरण के तमाम चरणों और जीवनशैली में आए बदलावों के बावजूद भारतीय आज भी आम तौर पर उपभोक्तावाद के उस स्तर पर नहीं पहुंचे हैं जितना पश्चिमी देश. हमारे परिवारों में आज भी जरूरत पडे़ तो सीमित संसाधनों और कम में गुजारा करने का संस्कार जीवित है. और कुछ को छोड़कर सभी भारतीय यह समझ रहे हैं कि ये तमाम बंदिशें उनके और उनके परिवार की सुरक्षा के लिए ही हैं.
भारत जैसे विशाल देश में लॉकडाउन का ऐलान करना आसान है लेकिन उसका अनुपालन नहीं. एक तो सामाजिक और क्षेत्रीय विषमताओं के कारण कामगारों यानी वर्कफोर्स का देश के दूर-दूर राज्यों में अटके होना और छोटी-छोटी जरूरतों के लिए लोगों का बाहर निकलना कैसे रोकें, इसकी चुनौती. दूसरी ओर अमीरों ने तो अपने भंडार पैसे देकर भर लिए लेकिन गरीब जिसे कमाकर ही खाना होता है, वह अपने भंडार कहां से भरें? सरकार ने ऐसे लोगों के लिए विशेष प्रबंध किए हैं ताकि लॉकडाउन की अवधि में किसी को भूखा न सोना पडे़.
तो सवाल चाहे लॉकडाउन का अनुपालन कराने का हो, गरीब-जरूरतमंदों को तमाम सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचाने या उचित स्वास्थ्य निगरानी बनाए रखने का, इन सबका दारोमदार उस जमीनी व्यवस्था पर टिका है जिसे भारत में हम आम बोलचाल में मशीनरी कहते हैं. इसे मशीनरी क्यों कहते हैं इसका इतिहास मुझे नहीं पता लेकिन यह है उस पहिए के समान जिसके बिना देश की गाड़ी चलना मुश्किल है.
नए आर्थिक प्रयोगों, उदारीकरण के अलग-अलग आयामों और इंटरनेट के युग में हम कहीं न कहीं अपने डीएम साहब और एसपी साहब की भूमिका को लेकर उदासीन होने लगे थे. पहले के मुकाबले जनता की नजरों में इनके पदों का रौब भी धूमिल होने लगा था. इस लेख का मकसद इन पदों के रौब व रसूख को याद दिलाना नहीं है. वास्तव में लोकतंत्र में रौब व रसूख जैसे शब्द होने ही नहीं चाहिए क्योंकि सभी जनता के सेवक हैं. लेकिन यह लेख इस बात को याद दिलाने के लिए जरूर है कि कोरोनावायरस के खिलाफ यह लड़ाई न तो दिल्ली के बहुचर्चित लुटियंस जोन में स्थित किसी मंत्रालय में बैठकर लड़ी जा सकती है और न ही किसी प्रदेश की राजधानी के सचिवालय में. ज्यादा से ज्यादा इन भवनों में रणनीति की मोटे तौर पर चर्चा हो सकती है और इस लड़ाई के लिए आवश्यक संसाधन मुहैया कराए जा सकते हैं. बस.
लेकिन मसला चाहे कोविड-19 की टेस्टिंग का हो, संभावित मरीजों को अस्पताल पहुंचाने का, लॉकडाउन में दिए जाने वाले राशन व सहायता राशि को बिना गड़बड़ी के लाभान्वितों तक पहुंचाने का, इन सबका दारोमदार उसी स्थानीय प्रशासन पर है जिसका चेहरा हमारे डीएम, एसपी से लेकर तहसीलदार व कांस्टेबल हैं. मगर इनकी भूमिका सिर्फ मददगार की ही नहीं है. आज सरकार का इकबाल भी इन्हीं के हाथों में है. अगर इस मशीनरी ने पूरी मुस्तैदी के साथ लॉकडाउन की शर्तों का अनुपालन सुनिश्चित नहीं किया तो इसमें कोई शक नहीं कि देश में तबाही मच जाएगी.
तबलीग़ी जमात के संदर्भ में हम यह देख चुके हैं कि देश को इस महामारी से बचाना है तो सभी स्वेच्छा से नियम मान लें यह जरूरी नहीं. ऐसे भी मौके आएंगे जब हमें सख्ती बरतनी पडे़गी.
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शायद इन्हीं परिस्थितियों को भांपते हुए कुछ चर्चित स्तंभकारों ने लिखना शुरू भी कर दिया है कि कोरोनावायरस की लडाई अंततः स्टेट यानी राज्यसत्ता की ताकत को और मजबूत कर देगी जो कि लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है. लेकिन यह टिप्पणीकार और स्तंभकार शायद भूल जाते हैं कि इस समय सामने चुनौती कितनी बड़ी है. भारतीय लोकतंत्र की जडे़ें इतनी कमजोर नहीं और न ही हमारे संविधान के प्रावधान इतने सतही हैं कि किसी राज्यसत्ता या ताकत को अपनी सीमाएं लांघने की छूट दे दें. व्यक्तिगत जीवन की तरह राष्ट्र जीवन में प्राथमिकताओं के आधार पर निर्णय लिए जाते हैं.
इस समय प्राथमिकता देश को वैश्विक महामारी से बचाने की है. और ऐसे समय में सरकारी एजेंसियों, उसके अधिकारियों, प्रशासनिक कदमों से सहयोग करने की. जिन्हें राज्यसत्ता के मजबूत बन जाने का भय सता रहा है वे बौद्धिक जुगाली के बजाय इन हालात में मौजूदा मशीनरी की जगह कोई वैकल्पिक व्यवस्था सुझा सकते हैं तो बताएं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, प्रसार भारती में सलाहकार हैं और करेंट राजनीति पर लिखती हैं, यह लेख उनके निजी विचार हैं )