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Wednesday, 20 November, 2024
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कोरोनावायरस: अंधविश्वास और पाखंड की शुरुआत बीजेपी ने नहीं, नेहरू ने की थी

देश के वामपंथी, उदारवादी, प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की शिकायत है कि बीजेपी ने शासन में आने के बाद वैज्ञानिक चिंतन का नाश हो गया, जबकि आजदी के समय नेहरू की पुजा-अर्चना को याद करनी चाहिए.

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देश के वामपंथी, उदारवादी, प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की इन दिनों ये शिकायत है कि बीजेपी ने शासन में आने के बाद वैज्ञानिक चिंतन का नाश हो गया, जिसकी वजह से अंधविश्वास, तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, पाखंड आदि का बढ़ावा मिल रहा है. उनकी तरफ से बार-बार ये बात आ रही है कि बीजेपी, आरएसएस, नरेंद्र मोदी, मोहन भागवत आदि ने मिलकर भारत की तर्कक्षमता को नष्ट कर दिया है. लेकिन ये बात अर्धसत्य ही है.

इस लेख में हम देखेंगे कि भारत के स्थापना काल से ही, बल्कि इसकी बुनियाद में ही धार्मिकता मौजूद है, जो कब पाखंड बन जाती है और कब अंधविश्वास में बदल जाती है, ये समझ पाना मुश्किल है. इस लेख की मूल स्थापना ये है कि भारत जब आजाद हुआ और जब उसे अपनी आगे की यात्रा का खाका खींचना था, उसी समय देश के नीति नियंताओं ने तय कर लिया था कि इसे एक आधुनिक समाज वाला देश नहीं बनाना है. खासकर इसकी सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक चिंतन को पुरातन बनाए रखने की सचेतन कोशिश की गई. आज अगर देश में वैज्ञानिक चिंतन का अभाव दिखता है, तो इसकी शुरुआत 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने से शुरू नहीं हुई. इसके बीज बहुत पहले बोए गए थे.

कोरोनावायरस कहर के बीच शंख फूंकने और पटाखे फोड़ने के निहितार्थ

भारत के प्रबुद्ध और प्रगतिशील लोग 5 अप्रैल, 2020 को ये देखकर दंग रह गए कि कोरोनावायरस से लड़ने की बजाए, लोगों ने कोरोना-उत्सव मना लिया. तय ये था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपील पर लोग अपने घरों की बत्तियां बुझाकर अपनी बालकनी या दरवाजे पर आएंगे और दीया, मोमबत्ती या मोबाइल फोन के टॉर्च से उजाला करेंगे. लेकिन ये संदेश लोगों तक पहुंचते-पहुंचते कुछ और बन गया. लोगों ने मंत्रों का जाप किया, शंख फूंके, घंटियां बजाईं, और ये सब काम उन्होंने साथ आकर और कई बार भीड़ बनाकर किया. बीजेपी की एक महिला नेता ने तो खुशी में पिस्तौल से फायरिंग भी की. यही नहीं कई जगहों पर तो लोगों ने जुलूस निकाले और गो-कोरोना-गो और कोरोना गो बैक के नारे लगाए. इससे पहले एक स्थान पर तो कोरोनासुर का पुतला भी जलाया गया. जाहिर है कि ये सब करने के दौरान सोशल डिस्टेंसिंग या फिजिकल डिस्टेंसिंग के नियमों की धज्जियां उड़ा दी गईं.

ये सब देखकर प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ने ये निष्कर्ष निकाला कि हिंदुत्व की शक्तियों ने लोगों की वैज्ञानिक चिंतन क्षमता का नाश कर दिया है. उनके हिसाब से इसके लिए बीजेपी और आरएसएस दोषी हैं. अगले दिन यानी 6 अप्रैल को कांग्रेस ने ट्वीट करके कहा कि ‘हमारा देश वैज्ञानिक चिंतन और वैज्ञानिक संस्थाओं की बुनियाद पर खड़ा हुआ था… हमें अपने वे जीवन मूल्य नहीं भूलने चाहिए.’


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इसमें कोई शक नहीं है कि जिस समय भारत समेत पूरी दुनिया कोरोनावायरस के कहर का मुकाबला कर रही है, लोग मर रहे हैं और बड़ी संख्या में शहरों से पलायन हो रहा हो तो भारत के लोगों द्वारा कोराना को उत्सव में बदल देना एक भद्दा तमाशा है. लेकिन इसके लिए दोषी कौन है? स्तंभकार सागरिका घोष ने ट्वीट करके इसकी एक व्याख्या दी- ‘भारत अंधविश्वास और मूर्खता के जिस गर्त में जा रहा है, वह इतना अंधकारभरा और पतनशील है कि ये कहना मुश्किल है कि वहां से निकल पाना कभी संभव हो पाएगा या नहीं. हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने तार्किकता और ज्ञान की दिशा में हमें ले जाने और अंधविश्वास से बचाने के लिए कितना संघर्ष किया था.’

अगर हम घोष के ट्वीट के शब्दों और उनके अर्थों की व्याख्या करें तो इससे ऐसी ध्वनि आती है मानो भारत में आजादी के बाद ज्ञान और तर्क के युग की स्थापना हुई थी, जिसे अब नष्ट किया जा रहा है. इस ट्वीट से ऐसा अर्थ निकलता है कि हमारे राष्ट्र निर्माता देश को तर्क और ज्ञान की तरफ ले जा रहे थे और अब लोग रास्ता भटक गए हैं.

यूरोपीय पुनर्जागरण में चर्च तथा ज्ञान का संघर्ष

ये बात सही नहीं है. बल्कि सच तो ये है कि भारत में पुनर्जागरण या एनलाइटेनमेंट का वह दौर कभी आया ही नहीं, जिसकी वजह से पश्चिमी दुनिया में वैज्ञानिक और फिर औद्योगिक क्रांति हुई. यूरोप में पुनर्जागरण का एक प्रमुख प्रोजेक्ट चर्च की सत्ता को चुनौती देकर राजसत्ता और फिर लोकतंत्र को चर्च के मुकाबले प्रभावी बनाना था. इस क्रम में धर्म और ज्ञान के बीच तीखा संघर्ष हुआ और चर्च को लगातार पीछे धकेलते हुए ज्ञान और विज्ञान ने अपनी जगह बनाई. ब्रूनो से लेकर कोपरनिकस और गैलीलियो तक को चर्च के हाथों उत्पीड़न झेलना पड़ा लेकिन इस संघर्ष में आखिरकार चर्च की हार हुई. ज्ञान और राजसत्ता दोनों के सामने ये विकल्प रहा होगा कि वे चर्च के साथ तालमेल करके चलें, लेकिन ये विवाद संघर्ष के जरिए हल किया गया.

चर्च और राजसत्ता के अधिकारों को अलग करने के क्रम में यूरोप में सेकुलरिज्म के विचारों की स्थापना हुई, जिसका अर्थ था कि धर्म का राजकाज में हस्तक्षेप नहीं होगा. यूरोपीय आधुनिकता का ये प्रभावी सिद्धांत है.

लेकिन भारत ने अपने लिए अलग ही रास्ता चुना. यहां धर्मसत्ता और राजसत्ता का कभी संघर्ष नहीं हुआ. बल्कि दोनों सत्ताओं ने एक दूसरे से हाथ मिला लिया. इस क्रम में सेकुलरिज्म की एक नई परिभाषा गढ़ी गई. सेकुलरिज्म या धर्मनिरपेक्षता का स्थान सर्व धर्म समभाव ने लिया. सर्व धर्म समभाव यानी सभी धर्म समान हैं. ये विचार भारत जैसे देश में हिंदुत्व के वर्चस्व में तब्दील हो गया क्योंकि लगभग 80 प्रतिशत आबादी जनगणना में खुद को हिंदू लिखती है. अघोषित रूप से हिंदू धर्म ही भारत का राजधर्म माना जाने लगा. हिंदू धर्म के प्रतीक राष्ट्र के प्रतीकों के तौर पर स्थापित कर दिए गए. इसके लिए हिंदू धर्म की भी बेहद एकहरी व्याख्या की गई. इस हिंदू धर्म में कबीरपंथ, लोकायत, आजीवक, लिंगायत, सरना, प्रकृतिपूजक आदि धाराओं की कोई जगह नहीं थी. यह ब्राह्मण वर्चस्व वाला धर्म है.

भारत की संकर आधुनिकता

इस तरह, भारत में आधुनिकता आई ही नहीं. बल्कि परंपरा ने आधुनिकता के साथ गलबहियां कर ली. भारत में आधुनिकता एक ड्रेस की तरह है, जिसे सुविधाजनक तरीके से पहना और उतारा जा सकता है. मिसाल के तौर पर, एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर सिलिकन वैली में जाकर सबसे आधुनिक तकनीक के साथ काम कर सकता है, और साथ में भारत में जाति देखकर और दहेज लेकर किसी लड़की से शादी कर सकता है और इसके बावजूद आधुनिक बना रह सकता है.

आधुनिकता का मुलम्मा उतारकर वही व्यक्ति कोरोना को भगाने के लिए शंख बजा सकता है और कोरोनासुर का पुतला जला सकता है.

रामराज्य, हिंदू राष्ट्र और नेहरू का भारत

लेकिन क्या यही हमारे नेताओं के सपनों का देश नहीं है. मोहनदास करमचंद गांधी हमेशा रामराज्य लाने की ही कल्पना करते थे. उन्होंने वर्ण व्यवस्था का कभी निषेध नहीं किया. वे हमेशा ग्राम केंद्रित भारत की ही कामना करते थे, जहां हर वर्ण और जाति के लोग अपने निर्धारित कर्म ही करें. दूसरी ओर आरएसएस हिंदू राष्ट्र के सपनों को साकार करने में जुटा रहा. इन दो धाराओं को लेकर कभी कोई शक नहीं रहा कि वे भारत को किस दिशा में ले जाना चाहती हैं. दोनों धाराओं की दृष्टि में भारत का एक गौरवशाली अतीत रहा है, जहां देश को लौटा कर ले जाना चाहिए.

इनके मुकाबले जवाहरलाल नेहरू की विचारधारा को लेकर काफी भ्रम है. प्रगतिशील इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों ने उनकी एक मॉडर्निस्ट की छवि बनाई है, जिनका लक्ष्य भारत को नए दौर में ले जाना था.

लेकिन मेरा तर्क है कि नेहरू कभी भी आधुनिकता के प्रतिनिधि नहीं थे. उनके लिए भी भारत का एक गौरवशाली अतीत था, जिसकी चर्चा वे अपनी किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया में करते हैं. बेशक उनकी जीवन शैली आधुनिक थी और उनकी शिक्षा भी आधुनिक तरीके से हुई. लेकिन उन्होंने शासन संभालने के बाद भारत को परंपरा और पारंपरिक जीवन मूल्यों से आजाद कराने की कोई कोशिश नहीं की. बेशक वे आईआईटी, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस जैसे संस्थानों की स्थापना कर रहे थे और आधुनिक बांध और प्लांट स्थापित कर रहे थे लेकिन समाज के जीवन मूल्यों में व्याप्त पुरातन को उन्होंने कभी चुनौती नहीं दी.

शुभ मुहूर्त में भारतीय राष्ट्र का जन्म

भारत की आजादी एक ऐसा मौका था, जब भारत परंपरा से आधुनिकता की अपनी यात्रा की शुरुआत कर सकता था और यूरोप को पुनर्जागरण, वैज्ञानिक क्रांति और औद्योगिक क्रांति का जो लाभ मिला, उसे हासिल करने की कोशिश की जा सकती थी लेकिन नेहरू के नेतृत्व में भारत ने वो मौका गंवा दिया. भारत की संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष डॉ. बी.आर. आंबेडकर इस चुनौती को समझ पा रहे थे. उन्होंने संविधान सभा के अपने अंतिम भाषण (25 नवंबर, 1949) में कहा था कि – ’26 जनवरी, 1950 को भारत अंतर्विरोधों के दौर में प्रवेश करेगा.’ उन्होंने कहा कि बेशक हमने एक आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था को अपना लिया है, लेकिन समाज अभी भी उन्हीं पुराने मूल्यों से चल रहा है, जो अब तक इसके विकास में बाधक रहे हैं.

दरअसल बाबा साहेब ने इस भाषण से दो साल पहले ये देख लिया था कि भारतीय राष्ट्र राज्य की दिशा क्या होने वाली है. भारत की आजादी मिलने का समारोह जिस तरह से हुआ, उसमें वे सारे संकेत छिपे थे. इस दौरान हुई घटनाओं का जिक्र लैरी कॉलिंस और डोमनिक लैपियर ने अपनी चर्चित कृति – फ्रीडम एट मिडनाइट में किया है. आजादी मिलने वाले दिन यानी 14/15 अगस्त 1947 की घटनाओं का जिक्र करते हुए वे बताते हैं कि किस तरह दो दक्षिण भारतीय ब्राह्मणों ने नेहरू को स्वाधीनता समारोह के लिए सजाया-धजाया. वे लिखते हैं- ‘दोनों ने जवाहरलाल नेहरू पर पवित्र जल छिड़का, माथे पर पवित्र भभूत लगाया, दंड को उनके हाथों में सौंपा और उन्हें पवित्र अंगवस्त्र पहनाया. नेहरू ने ये सब प्रसन्नभाव से होने दिया. ये कुछ वैसा था मानों कोई तार्किक व्यक्त ये समझ पा रहा हो कि उसके सामने जो भारी कार्यभार पड़ा है, उसे पूरा करने के लिए हर सहायता की जरूरत है और तांत्रिकों से भी अगर मदद मिलती है, तो उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती.’

घर पर हुए इस समारोह के बाद नेहरू जब 14/15 अगस्त की आधी रात को स्वतंत्रता के समारोह में गए तो उनके बदन से ये सब हट चुका था और उन्होंने अपना चिरपरिचित नेहरू कोट और चुस्त पजामा पहना था और कोट की बटन में ताजा गुलाबू टंका हुआ था. यानी नेहरू एक साथ दो अंतर्विरोधी भूमिकाओं में थे, जो उनके वस्त्रों में भी झलकता था.

वहां से कुछ दूर संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद के सरकारी निवास के लॉन में भी रात में हवन का कार्यक्रम हुआ, जहां ब्राह्मणों ने मंत्रों का उच्चार किया. कॉलिंस और लेपियर लिखते हैं कि – ‘पुरोहित जोर-जोर से मंत्र पढ़ रहे थे और जो लोग कुछ देर बाद आजाद भारत के मंत्री बनने वाले थे, वे हवन कुंड के पास खड़े थे. एक और ब्राह्मण उन पर पवित्र जल छिड़क रहा था.’

यहीं से सारे लोग उस हॉल में गए, जहां कुछ ही समय में आजादी की घोषणा होने वाली थी.

आजादी का समय और राहु और शनि का असर

फ्रीडम एट मिडनाइट के लेखकों ने विस्तार से ये बताया है कि जब भारत के आखिरी वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने आजादी की तारीख 15 अगस्त घोषित की तो देशभर के ज्योतिषियों में किस तरह कोहराम मच गया. काल और पंचांग गणनाएं शुरू हो गईं और ज्योतिषियों ने घोषित कर दिया कि ये दिन अशुभ है और इस दिन आजादी मिलने से देश पर आपत्ति आ जाएगी. शनि, राहु और जाने किन-किन ग्रहों की दशा के आधार पर एक ज्योतिषी ने तो माउंटबेटन को पत्र भी लिख दिया.

उस समय भारत में शिकागो डेली के पत्रकार फिलिप टॉलबॉट ने अपने मित्र को लिखे पत्र में बताया- ‘ज्योतिषियों ने बताया कि आजादी का निर्धारित समय यानी 15 अगस्त की सुबह का समय अशुभ है. इस वजह से और शायद इस वजह से भी कि सुबह के समय समारोह करने से हंगामा ज्यादा होगा, कांग्रेस के नेताओं ने तय किया कि 15 अगस्त की सुबह से पहले आधी रात को ही समारोह कर लिया जाए.’

जिस देश का जन्म ही मुहूर्त देखकर हुआ हो, उसके बारे में ये कामना करना कितना गलत है कि वहां के नागरिक वैज्ञानिक जीवन मूल्यों को अपनाएंगे?


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सरकारी आयोजनों में धर्म और संस्कृति

इस वजह से आजादी के बाद से लेकर अब तक तमाम सरकारी आयोजनों में परंपराओं, जिसे कोई चाहे तो संस्कृति और कोई चाहे तो पाखंड कह सकता है, का पालन होता है. मिसाल के तौर पर

– जब भी इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन यानी इसरो कोई सैटेलाइट छोड़ता है तो उससे पहले इसरो प्रमुख तिरुपति या किसी मंदिर में पूजा अर्चना करते हैं. चंद्रयान के लॉन्च से पहले ऐसी ही पूजा तिरुपति में की गई थी.

– जब कभी भारत कोई युद्धक विमान विदेश से खरीदता है तो उसे वायुसेना में शामिल करने से पहले पूजा की जाती है. राफेल विमान की ऐसी ही पूजा रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने की थी.

– नौसेना में किसी जहाज को शामिल करने से पहले पूजा करने और नारियल फोड़ने का रिवाज है. नए सरकारी भवनों और प्रोजेक्ट के उद्घाटन और शिलान्यास के समय भी अक्सर ऐसा किया जाता है.

– सरकारी समारोह अक्सर किसी देव या देवी की वंदना से शुरू होते हैं और दीप प्रज्ज्वलन का कार्यक्रम होता है.

– भारतीय भाषा की स्कूली किताबों में धार्मिक आख्यान पढ़ाया जाता है और ये कथाएं अक्सर हिंदू धर्म से संबंधित होती हैं. ये सूची काफी लंबी हो सकती है.

मैं ये नहीं कह रहा हूं कि ये सब सही है या गलत. इस बारे में हर व्यक्ति का अलग नजरिया हो सकता है. मेरा ये कहना है कि ये सब बीजेपी के केंद्र में शासन में आने के बाद नहीं हुआ है. भारतीय संस्कृति के नाम पर हिंदू संस्कृति की एक खास धारा को स्थापित करने का काम काफी पहले हो चुका है.

आज से लगभग चार साल पहले लेखिका और पत्रकार गौरी लंकेश ने लिखा था कि भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 1951 में किस तरह वाराणसी में 201 ब्राहमणों के पैर धोकर चरणामृत पीया था. इस घटना की निंदा करते हुए उस समय युवा समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था कि ‘किसी के पैर सार्वजनिक रूप से धोना अश्लीलता है.’

ऐसी अश्लीलता आज भी जारी है, जब कोराना की त्रासदी को कोरोना का उत्सव बनाकर लोग कोरोनासुर का पुतला जला डालते हैं.

ये कहना गलत नहीं होगा कि पंडित जवाहरलाल नेहरू, जिन्हें बेहद प्रगतिशील और वैज्ञानिक चिंतन वाले व्यक्ति के रूप में स्थापित किया जाता है, उनकी कल्पना में ऐसा देश था ही नहीं, जहां वैज्ञानिक चिंतन का बोलबाला हो. आज का देश उनकी कल्पना का ही देश है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह लेख उनका निजी विचार है.)

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5 टिप्पणी

  1. धर्म एक व्यापक संगठन के रूप में काम कर रही हैं. इसे चुनौती देनेवालों को परास्त करने के लिए संगठित रूप में आंदोलन छेड़ दिया जाता हैं. दूसरी तरफ नौकशाहों व उच्च कहे जाने वाले तबको या एलिट क्लब द्वारा पूजा-पाठ का उदाहरण देकर, ये बताया जाता हैं कि फैलाने के विकास में भगवान् का योगदान हैं.

    सरकारी विभागों में अधिकतर उच्च समझे जाने वाले जातियों के लोग विराजमान हैं. वे धर्म को कमजोर होता देख खुद के भविष्य को कमजोर होता समझते हैं. यही वजह हैं कि जहाँ हमारा संविधान देश को धर्मनिरपेक्ष घोषित करता हैं, वहीं आडम्बर को सरकारी कार्यालयों में भरपूर बढ़ावा दिया जाता हैं.

    क्रांति सदैव जन से आरम्भ होती हैं, तंत्र से नहीं. जब तक जनचेतना का उभार नहीं होगा, तबतक ये आडम्बर विकास की ओर अग्रसर रहेंगे. स्वतःस्फूर्त जन से बना क्रांति का तंत्र ही हज़ारों वर्षों से जारी पोंगापंथ को चुनौती दे सकता हैं. हमें इस दिशा में सदैव प्रायसरत रहना हैं.

    बदलाव का बीज बाबा साहब ने बो दिया था. अभी वह नन्हा सा पौधा हैं. जरूरत हैं तो उसे खाद-पानी मुहैया करवाने की. उसकी देखभाल करने की.

    रूस का भले ही पतन हो गया हो, लेकिन अब भी सच के सामने झूठ टिक नहीं पाता. व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के दौर में अनेक फ़र्ज़ी खबर वायरल हो जाते हैं. लेकिन समय के साथ उनका सच भी सामने आता हैं.

    आज की समय की सबसे बड़ी जरूरत हैं, सच्चाई को जन-गण-मन के कानों टेल पहुंचाते रहना.

    सतत और कठिन परिश्रम से ही पहाड़ जैसे शिलाओं को काट रास्ता बनाया जा सकता हैं. ऐसा पहले भी हुआ हैं और निरंतर होते रहेगा.

    देश में जागरण के प्रयास अनेक महापुरुषों ने किए हैं. यदि हम ये मान ले की भारत में जागरण नहीं आई हैं तो उन महापुरुषों का अपमान होगा.

    हम ये कह सकते हैं कि उनके द्वारा जगाई गई अलख अभी तक सूर्यपुंज का रूप नहीं ले सकी हैं. इसके वाजिब कारण भी हैं.

    वास्तव में वंचित समाज सदैव संसाधनों की कमी झेलती रही हैं. उस कमी का शिकार इस समाज को हमेशा झेलना पड़ा हैं.

  2. दो अलग-अलग व्यक्तियों को संविधान सभा का अध्यक्ष बताया गया है।
    लेख ने मेरी सोच को संपूर्णता दी है।
    साधुवाद!

  3. सर अंधविश्वास इतनी गहराई तक भरा पडा है लोगों को इधर से निकालो उधर उलझ जाते हैं। लेकिन निकलना ही होगा नहीं तो अंततः मुलनिवासी लोगों को गुलामी, दरिद्रता, से हमेशा अपना नाता जोडना पड सकता है। एक अम्बेडकरवादी सोच, पेरियार साहब, राममनोहर लोहिया, जैसे अनेको महापुरुषों को पढ़कर ही ओर शिक्षा की ज्योति जलाकर ही सुधार किया जा सकता है।

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