वैश्विक महामारी कोरोनोवायरस के संकट ने उस तथ्य को एक बार फिर से उजागर कर दिया है जिसे कई कांग्रेस नेता लंबे समय से महसूस तो कर रहें हैं लेकिन अक्सर उसे नजरअंदाज कर देते हैं. दरअसल, गांधी परिवार – जो सार्वजनिक तौर पर काफ़ी घनिष्टता को दिखाता है – के तीनों प्रमुख सदस्यों की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनकी राजनीति और उनके शासन करने के तरीके पर एक जैसी प्रतिक्रिया या एक साझा राजनीतिक दृष्टिकोण अपनाना हमेशा जरूरी नहीं मानता है.
हालांकि यह बात मीडिया में कई बार दुहराई जा चुकी है फिर भी सन्दर्भ के तौर पर यह बताना आवश्यक है कि कोविड -19 मोदी के लिए उसी प्रकार का आकस्मिक संकट है जैसे कि 2005 में आया हरिकेन (तूफान) कैटरीना उस समय के अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के लिए था. इन दोनों ही नेताओं ने आतंक के खिलाफ युद्ध के मुद्दे पर अपना दूसरा कार्यकाल पाया था.
राष्ट्रपति बुश ने कैटरीना के प्रति बहुत देर से प्रतिक्रिया की और आम जनता के मन में बनी धारणा की लड़ाई हार गए. मोदी, जो अपने दूसरे कार्यकाल के दसवें महीने में हैं, ने भी कोविड संकट पर पार्टी ने थोड़ी देर से प्रतिक्रिया दी हो, लेकिन वे जनता की नज़रों में सक्रिय दिखने की लड़ाई जीतते नज़र आ रहें हैं. उनकी छवि एक ऐसे देवदूत के रूप में उभर रही है जो आम आदमी की व्यापक भलाई के लिए कड़े फैसले लेने के लिए तत्पर है. इसके विपरीत उनके राजनीतिक विरोधियों की प्रतिक्रियाएं पूर्व परिचित अंदाज वाली हैं – अनिश्चित, भ्रमित और आत्म-संदेह से भरी हुई.
इस सन्दर्भ में नेहरू-गांधी परिवार के तीनों सदस्यों – विशेष रूप से भाई-बहन द्वय- के बीच के मतांतर विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. इसे हम सामान्य रूप से निजी हितसाधन (सेल्फ़-प्रेसेरवाटोरी) के उनके तरीकों से बिल्कुल भिन्न आचरण के रूप में ना देख कर उनके राजनीतिक दृष्टिकोण में व्यापत मतभेद के रूप में देख सकतें हैं और इस तथ्य को प्रत्येक कांग्रेसी नेता भी बड़ी उत्सुकता से देख रहा होगा.
उदाहरण के तौर पर हम 19 मार्च – जब प्रधानमंत्री मोदी ने एक दिन के लिए जनता कर्फ्यू का आह्वान करते हुए राष्ट्र के नाम अपना संबोधन (अब तक इस संकट काल में किए गये तीन संबोधनों में से पहला) दिया था- के बाद गांधी परिवार के प्रत्येक सदस्य के शब्दों और क्रियाकलापों पर एक नज़र डालते हैं.
सोनिया गांधी – समय बिताने की चाल
कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी की प्रतिक्रिया काफ़ी हद तक पूर्वानुमानित ही थी – उन्होंने मोदी सरकार को समर्थन देने के बयानों को जारी करते हुए भी ‘अनियोजित’ राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के गंभीर परिणामों के बारे में उन्हें आगाह किया था. तो, क्या कांग्रेस मोदी के कोरोनोवायरस संकट से निपटने के तौर-तरीके का विरोध कर रही है? जी नहीं.
देश के प्रमुख विपक्षी दल ने सरकार को अपना पूरा समर्थन दिया है और यह भी कहा है कि लॉकडाउन का कदम ‘आवश्यक’ हो सकता है. तो क्या माना जाए कि कांग्रेस वास्तव में सरकार की संपूर्ण कार्रवाई का समर्थन करती है? जी ऐसा भी नहीं है.
उसने सरकार की इस संकट के प्रति विलंबित प्रतिक्रिया, परीक्षण की सीमित संख्या, लॉकडाउन की योजना के दौरान गरीबों के हितों की उपेक्षा और भारतीय अर्थव्यवस्था पर कोविड -19 के दूरगामी प्रभाव के बारे में दूरदर्शिता की कमी के जैसे बहुत सारे मुद्दे उठाएं हैं. इसलिए, यदि आप कांग्रेस के रुख के बारे में भ्रमित हैं, तो आप ग़लत भी नहीं हैं, बहुत से कांग्रेसी नेता भी इसे पूरी तरह नहीं समझ पा रहे हैं. यह एक रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभाने का कांग्रेस पार्टी का अपना अंदाज है. यह एक तरह से सोनिया गांधी की राजनीति के तरीके का मूल और योग भी है: धैर्य रखो और अपना समय बिताओ.
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सोनिया गांधी ने 1998 में कांग्रेस का पहली बार नेतृत्व संभालने के बाद केंद्र में सत्ता के लिए छह साल का लंबा इंतजार किया था और वह इस बार एक दशक – या फिर उस से भी अधिक- तक भी इंतजार कर सकती हैं, तब तक, जब तक वे यह सुनिश्चित करने में सक्षम नहीं हो जाती हैं कि उनके बच्चे (विशेष रूप से उनका बेटा ) पार्टी की बागडोर को नियंत्रित करने में कामयाब नहीं हो जाते.
ध्यान रहे कि सोनिया गांधी की यह राजनीति पूरी कांग्रेस के विचारों को प्रतिबिंबित नहीं करती है. यह कांग्रेस के उन पुरातन योद्धाओं के एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है जो पिछले दो दशकों से उनके साथ खड़े हैं. राहुल गांधी के वफ़ादार कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उनकी वापसी की निरंतर मांग कर रहें है, लेकिन वह पार्टी के दिग्गजों की छत्र-छाया में अपने वापसी कभी नहीं करेंगे, इन दिग्गजों से मुक्ति की इच्छा उनकी मां कभी पूरी नहीं करेगी, खास तौर पर यह देखते हुए कि कैसे उनके युवा सेनानायकों ने उन्हें भारतीय राजनीति में उपहास का पात्र बना दिया है.
राहुल गांधी: ‘मैं भी प्रधानमंत्री बन सकता था’ कि हनक
अब एक बार फिर से मुख्य विषय से ध्यान ना भटकाते हुए हम कोरोनवायरस संकट के काल में कांग्रेस पार्टी के प्रथम परिवार के तीन सदस्यों की राजनीति पर लौटते है. एक तरफ सोनिया गांधी की प्रतिक्रिया उनके चिरपरिचित ‘प्रतीक्षा करो और सजग रहो’ की नीति पर आधारित रही है, दूसरी तरफ राहुल गांधी की प्रतिक्रिया किसी ऐसे व्यक्ति का विलाप लगता है, जिसे एक विदेशी पत्रिका द्वारा किसी समय भारत के सभावित प्रधानमंत्री के रूप में वर्णित किया गया हो.
एक वाजिब मुद्दे की तलाश में लगे रहने वाले एक सदाबहार विद्रोही की भांंति राहुल गांधी पिछले एक पखवाड़े से ‘मैनें आपको पहले ही बताया था’ की भावना में ही जी रहे हैं. दरअसल, उन्होंने 12 फरवरी को ट्वीट किया था, ‘कोरोनावायरस हमारे लोगो और हमारी अर्थव्यवस्था के लिए एक अत्यंत गंभीर खतरा है. पर मेरी समझ से सरकार इस धमकी को गंभीरता से नहीं ले रही है’. वह तब से इसी एक बात पर ज़ोर दे रहें हैं. हालांकि उनकी बात में मोदी सरकार के कोविड -19 खतरे पर अपेक्षाकृत विलंबित प्रतिक्रिया – शायद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की यात्रा और फिर मध्य प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता के कारण – के रूप मे थोड़ा दम तो है, पर सिर्फ़ उनके एक ट्वीट के आधार पर भारत सरकार से कार्रवाई की उम्मीद करने की आशा करना थोड़ी ज़्यादा ही दूर की कौड़ी है.
पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष एक प्रमुख विपक्षी नेता के रूप में अपनी जिम्मेदारी ट्विटर पर मोदी सरकार के आलोचना करके ही पूरी करना चाह रहे हैं. हालांकि वहां उनके 12.8 मिलियन अनुयायी हैं फिर भी यह संख्या 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के कुल मतदाताओं की संख्या का बमुश्किल 10% ही होगी. राहुल ने एक बार फिर से शनिवार को ट्वीट कर कहा, ‘लोगों को ताली बजाने और आसमान में टॉर्च चमकाने की सलाह ही इस समस्या का समाधान करने वाली नहीं हैं’. हालांकि उस वक्त भी वे प्रधानमंत्री की इस अपील के मिल रहे अपार जन समर्थन से अनजान ही बने हुए थे. राहुल के इन संदेशों से यह साफ-साफ झलकता है कि: केवल कांग्रेस, विशेष रूप से गांधी परिवार, जानता है कि कैसे शासन करना चाहिए और आम लोगों को अब तक इसका एहसास हो जाना चाहिए.
प्रियंका वाड्रा: मोदी पर कोई आक्षेप नहीं, सरकार की रचनात्मक आलोचना
कोरोनावायरस संकट के प्रति प्रियंका गांधी वाड्रा की प्रतिक्रिया उनके भाई और मां के बिल्कुल विपरीत थी. जनता कर्फ्यू से एक दिन पहले 21 मार्च को उनके और उनके भाई द्वारा किए गए ट्वीट इस तथ्य के प्रति स्पष्ट संकेत हैं. प्रियंका ने लिक्विड साबुन से अपने हाथ धोते हुए 1: 04 मिनट का एक वीडियो अपलोड करते हुए लोगो को यह बताया कि कैसे ‘छोटी-छोटी सावधानियां’ कोरोनोवायरस के खिलाफ लड़ाई को और मजबूत करेगी. उसी दिन, उसके भाई ने ट्वीट किया कि कैसे छोटे और मध्यम व्यावसायी और दैनिक मजदूरी करने वाले सबसे अधिक प्रभावित हो रहे हैं और ‘ताली बजाने से उन्हें कोई मदद नहीं मिलने वाली.’
अपने भाई के विपरीत, प्रियंका गांधी ने पीएम मोदी के लोकप्रिय फैसलों पर खुला हमला करने से परहेज किया है. यहां तक कि प्रवासी श्रमिकों का मुद्दा उठाने के बावजूद, ‘सरकार’ की उनकी आलोचना काफ़ी ढंकी-छुपी रही हैं, इस बारे में उन्होने पीएम को शामिल किए बिना: ‘प्रजा करे हाहाकार, जागो हे सरकार’ जैसा ट्वीट किया.
पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रभारी के रूप में, प्रियंका ने लोगों की मदद के लिए कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को जमीन पर तैनात किया है, परंतु पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व उनका अनुकरण करने में विफल रहा है. इसलिए, जब केंद्रीय मंत्री राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) -और कभी-कभी भाजपा की भी- के राहत कार्यों की तस्वीरें ट्वीट कर रहे हैं , वहीं प्रियंका वाड्रा उत्तर प्रदेश में कांग्रेस कार्यकर्ताओं द्वारा जरूरतमंद लोगों को दी जा रही सहायता का प्रदर्शन कर रही हैं. यहां तक कि उन्होंने रिलायंस के मुकेश अंबानी, एयरटेल के सुनील भारती मित्तल, और बीएसएनएल के अधिकारियों सहित अन्य लोगों को अगले एक महीने के लिए इनकमिंग और आउटगोइंग कॉल मुफ्त करने के लिए लिखा, ताकि प्रवासी मजदूरों को अपने परिवारों के साथ संपर्क बनाए रखने में मदद मिल सके.
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कोविड -19 के संक्रमण काल में प्रियंका की राजनीति मोदी को कोसने – जो उनके भाई का पसंदीदा शगल है – से बचने के प्रति एक सचेत प्रयास का संकेत देती है, वैसे भी राहुल की यह आदत लोगों के बीच कांग्रेस पार्टी की छवि को सुधारने में बहुत कम कारगर रही है. वह राहुल गांधी के उन ट्वीट्स को रीट्वीट करने से भी बचती हैं जिनमें वह प्रधानमंत्री पर हमला करते दिख रहे हैं. राहुल गांधी शायद ही कभी उनके ट्वीट को रीट्वीट करते हैं. वैसे भी उन्हें अपने ट्वीट्स को छोड़कर (वह भी कभी -कभी) किसी दूसरे को रीट्वीट करने के लिए नहीं जाना जाता है.
इन सब के बावजूद सिर्फ़ एक पखवाड़े में अपने कथनों और क्रियाकलापों के आधार पर प्रियंका गांधी वाड्रा की राजनीति को आंकना जल्दबाजी होगी. एक तथ्य यह भी है कि उनके सभी सलाहकार और सहयोगी, ज्यादातर वाम-रुझान वाले, राहुल गांधी द्वारा नियुक्त किए गए थे और यह केवल कुछ समय की बात है जब वे प्रियंका को अपनी राजनीति को फिर से अपने भाई के साथ और अधिक प्रासंगिक बनाने के लिए तैयार ना कर ले. कांग्रेस के नेता सिर्फ उम्मीद ही कर सकते हैं ऐसा ना हो.
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