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Saturday, 16 November, 2024
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कोरोना से जंग में आईएएस और पुलिस को ही नहीं, पंचायत के नेताओं को भी जोड़ना जरूरी है

क्योंकि सर्वेक्षणों से स्पष्ट होता रहा है कि पंचायतों और पालिकाओं जैसे स्थानीय निकायों पर भारतीय लोग काफी भरोसा करते हैं और वे किसी राज्य सरकार के अधिकारी की बजाय पंचायत के नेता के पास जाना ज्यादा पसंद करते हैं. दूसरी ओर, भरोसे के पैमाने पर देखें तो राज्यतंत्र के सभी संस्थानों में पुलिस और सरकारी अधिकारी का दर्जा सबसे नीचा है.

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कोविड-19 वायरस के प्रकोप को रोकने के लिए 21 दिनों के देशव्यापी लॉकडाउन के जबकि सात दिन पूरे हो रहे हैं, यह साफ होता जा रहा है कि संकट की गंभीरता कम होने का नाम नहीं ले रही है. लॉकडाउन को आगे बढ़ाया जाता है या नहीं, मगर मई या जून में जब इस वायरस के विश्वव्यापी संक्रमण की दूसरी लहर आ सकती है, भारत को ऐसे ही किसी उपाय का सहारा लेना पड़ सकता है जिससे लोगों का घरों से बाहर निकलना नियंत्रित किया जा सके. संकट जब लंबा खिंचेगा तब फिर से सारा ध्यान भारतीय शासन तंत्र की क्षमता पर केन्द्रित होगा.

लेकिन क्या भारत को अपनी प्रशासनिक एवं कानून लागू करने वाली आला नौकरशाही पर ही निर्भर रहना चाहिए?

दरअसल, भारत जैसा लोकतान्त्रिक देश इस तरह की चुनौतियों से निपटने के लिए अपनी स्थानीय स्वशासी निकायों का
साथ लेने की विशिष्ट स्थिति मैं है. यह तो स्पष्ट है ही है कि इस विश्वव्यापी महामारी से निपटना एक राष्ट्रीय लक्ष्य है. इसके बावजूद, ऐसे समय में नागरिकों की तरफ से और सरकार की तरफ से भी ज्यादतियां हो सकती हैं. कुछ लोग खुद को और दूसरों को भी जोखिम में डालते हुए घर से बाहर निकलने का दुस्साहस कर सकते हैं. लेकिन लंबे लॉकडाउन और संक्रमण के बढ़ते मामले के दबाव में और जरूरी चीजों तथा दवा आदि की सप्लाई एवं खरीद में परेशानियों के कारण सड़कों पर निकले लोगों के साथ पुलिस की मारपीट या गाली-गलौज से स्थिति बिगड़ सकती है.


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इसी तरह, अपने गांव-घर की ओर पैदल चल पड़े हजारों प्रवासी मजदूरों तथा आश्रय स्थलों पर खाने के लिए कतार में लगे सैकड़ों लोगों ने भारत की आपदा प्रबंधन व्यवस्था की कमजोरियों को उजागर कर दिया है.

स्थानीय स्तर पर ज़्यादतियां जानी-पहचानी हैं. कुछ दिनों पहले ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में यामिनी अय्यर ने लिखा: ‘राज्यतंत्र, खासकर भारत के राज्यतंत्र का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि आज हम क्या रास्ता चुनते हैं. यह मौका है जब हम अपनी स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था को मजबूत करें और सार्वजनिक व्यवस्थाओं में भरोसा कायम करें. या आदेशों को लागू करने वाले तंत्र और पुलिस को सक्षम बनाने पर निवेश करें, जिसके अप्रिय दूरगामी परिणाम हो सकते हैं.’

लोकतान्त्रिक व्यवस्थाएं ऐसे संकट के दौर में नागरिकों की अच्छी सेवा कर सकती हैं. सरकारी तंत्र की क्षमता का मतलब
केवल सामान और सेवाओं की आपूर्ति में कुशलता ही नहीं है. इसमें समता और जवाबदेही के आदर्श भी शामिल हैं. लेकिन भारतीय सरकारी तंत्र ऊपर से नियंत्रण, और केंद्र से समाधान करने की रणनीति को पर ही चल रहा है.

सेनाएं जब कि नागरिकों की आबादी के लिए मेडिकल साधन तैयार करेंगी, निर्वाचित स्थानीय पदाधिकारियों के अधीन विशाल सरकारी मशीनरी का इस महामारी से लड़ने में पूरा इस्तेमाल नहीं किया जाएगा.

स्वशासी स्थानीय निकायों के निर्वाचित पदाधिकारियों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा भारत में ही है. यहां 2.6 लाख
ग्राम पंचायतें हैं जिनमें विभिन्न स्तरों पर कुल करीब 30 लाख निर्वाचित प्रतिनिधि हैं और उनमें 10 लाख महिलाएं हैं.

इसी तरह शहरी स्थानीय निकायों की संख्या 5000 है, जिनमें निर्वाचित आरडब्ल्यूए की संख्या शामिल नहीं है. तीन स्तरों
वाली स्थानीय निकाय व्यवस्था सबसे प्रातिनिधिक संस्था है क्योंकि इनमें हाशिये पर पड़े समुदायों के लिए सीटें आरक्षित
हैं.

महामारी से निपटने में स्थानीय निकाय किस तरह मदद कर सकते हैं? चीन के चेंगडु शहर में स्थानीय स्वयंसेवक कोविड-19 से जुड़े नियमों को लागू कराने में कम्युनिस्ट पार्टी के साथ लग गए. इसी तरह झेजियांग प्रांत की राजधानी हांगझौ का शहर प्रशासन इस महामारी के शुरू होते ही स्थानीय विश्वविद्यालय के साथ मिलकर छात्रों और जनता के लिए शिक्षण समाग्री तैयार करने में जुट गया.

अमेरिका में कैलिफोर्निया की स्थानीय सरकारों ने संघीय एवं प्रांतीय सरकारों से काफी पहले ही आश्रय बनाने के कदम उठा लिये थे. 20वीं सदी के शुरू में स्पेनिश फ्लू महामारी के दौरान नॉर्थ कैरोलिना की सरकार ने इसकी रोकथाम में स्थानीय निकायों और समुदायों की मदद ली थी.

भारत अपने स्थानीय निकायों की मदद क्यों ले? जनमत सर्वेक्षणों से स्पष्ट होता रहा है कि पंचायतों और पालिकाओं जैसे
स्थानीय निकायों पर भारतीय लोग काफी भरोसा करते हैं और वे किसी राज्य सरकार के अधिकारी की बजाय पंचायत के
नेता के पास जाना ज्यादा पसंद करते हैं.

दूसरी ओर, भरोसे के पैमाने पर देखें तो राज्यतंत्र के सभी संस्थानों में पुलिस और सरकारी अधिकारी का दर्जा सबसे नीचा है. सर्वे के आंकड़े के मुताबिक, नागरिकों का मानना है कि ऊंचे सरकारी अधिकारी उनकी समस्याओं को ध्यान से सुनते नहीं हैं और निर्वाचित प्रतिनिधियों के मुक़ाबले उनका व्यवहार कई बार क्रूर होता है.


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भारत में स्थानीय निकायों के निर्वाचित पदाधिकारी केंद्र और राज्य की सरकार के खांचे में क्यों नहीं फिट होते? इसकी पहली वजह यह है कि संवैधानिक संशोधनों के बावजूद निर्वाचित स्थानीय निकायों को सत्ता का वास्तवि हस्तांतरण भारतीय राज्यतंत्र के लिए एक निषिद्ध मामला बना हुआ है. भारत की इलीट अफसरशाही हर चीज़ को अपने नियंत्रण में रखना चाहती है या हर नीति में दखल देना चाहती है. अफसरशाही के अति हस्तक्षेप ने राज्यतंत्र को भारी दबाव में डाले रखा है और उसकी क्षमता को कमजोर किया है. इसके बावजूद केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति कायम है.

दूसरे, निर्वाचित स्थानीय नेताओं में भरोसे की भारी कमी है. भारतीय राज्यतंत्र का शीर्ष तबका मानता है कि स्थानीय निहित स्वार्थ किसी भी नीतिगत पहल को न केवल नाकाम कर देगा बल्कि भ्रष्टाचार महामारी बन जाएगा. इसलिए वे नौकरशाही समाधान की ओर मुड़ते हैं, इस मामले में लाठीधारी पुलिस की ओर.

सवाल काफी सरल है. ऐसे समय में अगर आप अपने घर से बाहर निकलना चाहते हैं, अपने समुदाय को वायरस से बचाना चाहते हैं, या सरकार से कुछ हमदर्दी हासिल करना चाहते हैं तब आप अपनी पंचायत अथवा आरडब्ल्यूए द्वारा संचालित स्थानीय कमिटी पर भरोसा करेंगे या गली के नुक्कड़ पर खड़े काम के बोझ से थके हुए पुलिस वाले पर भरोसा करेंगे? स्थानीय सरकार इस मौके का फायदा उठाते हुए टुच्ची ईर्ष्याओं को निपटाने की कोशिश कर सकती है लेकिन फिर भी यह सवाल बना रहेगा कि उस तरह कोशिश किसी मनमानी पुलिस कार्रवाई के तुलना में कितनी व्यापक और घातक हो सकती है.

पुलिसिया निज़ाम पर नागरिक का कुछ बस नहीं चलता मगर निर्वाचित स्थानीय पदाधिकारी की किस्मत का फैसला तो आप पंचायत या शहरी निकाय के अगले चुनाव में कर सकते हैं. अपनी तमाम खामियों के बावजूद भारत में चुनावों के साथ सुधार की जुगत जुड़ी रहती है— काम करने वालों को चुनाव में इनाम मिलता है और ज्यादती करने वाले सज़ा पाते हैं. सरकार के ऊंचे मुकाम वाले तो कभी-कभी अपनी नाकामी का ठीकरा कहीं और फोड़ लेते हैं मगर स्थानीय पदाधिकारी अपनी ज़्यादतियां नहीं छिपा सकते.


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भारत भाग्यशाली रहा है कि कोरोना महामारी दूसरे कई देशों के मुक़ाबले यहां देर से पहुंची. संक्रमण की धीमी रफ्तार ने सरकार को अपनी स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था को दुरुस्त करके इस लायक बनाने का समय दिया है कि वह रोगियों की संख्या
में गुनात्मक वृद्धि का सामना कर सके.

इस तरह के महासंकट बुनियादी परिवर्तन के लिए अक्सर अवसर भी बनते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने दो प्रसारणों में संकट की गंभीरता को रेखांकित किया ही है, नागरिकों ने भी उनकी सलाहों का कुल मिलाकर जिस तरह पालन किया है उससे उनके नेतृत्व में लोगों का भरोसा उजागर हुआ है.

मोदी के पास राजनीतिक पूंजी है, और अब एक ऐसी राजनीतिक घड़ी आई है जब स्थानीय स्वशासी सरकार में जो ‘स्वशासी’ वाला तत्व है उसे एक वास्तविकता में तब्दील किया जाए. भारत अगर बड़ी-छोटी आपात स्थितियों से निपटने की राज्यतंत्र की क्षमता को बढ़ाना चाहता है और सुशासन को एक हकीकत बनाना चाहता है तो उसे इस संकट के कारण
मिले मौके को गंवाना नहीं चाहिए.

(प्रदीप छिब्बर यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कली में प्रोफेसर हैं. राहुल वर्मा सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में अध्येता हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं)

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