संकट की घड़ी किसी भी व्यवस्था की मजबूती और कमजोरियों का खुलासा कर देती है. 2016 में नोटबंदी ने भारत की रोजाना की अराजकता के पीछे छिपी सामाजिक मजबूती को सामने ला दिया था. बैंकों की शाखाओं की आगे कतार में लगे लोगों में से कुछ लोग मर रहे थे मगर कोई दंगा नहीं हुआ था. लेकिन इसके विपरीत, उत्तर-पूर्वी दिल्ली में पिछले दिनों हुए दंगों ने समाज के भीतर विभाजन की उन खाइयों को उभार दिया जिनके चलते कभी-कभार विस्फोट हो जाया करते हैं और हालात को शुरू में ही काबू में करने की पुलिस की नाकामी ने स्पष्ट कर दिया कि कानून-व्यवस्था लागू करने के लिए बनाई गई मशीनरी किस कदर समझौतापरस्त और सांप्रदायिक हो चुकी है.
कोविड-19 वायरस ने भी नयी खूबियों और कमजोरियों को सामने ला दिया है. प्रधानमंत्री ने पहल करते हुए लॉकडाउन किया और लोगों को साफ-साफ चेतावनी दी है कि इसका पालन न करने के क्या नतीजे भुगतने पड़ सकते हैं. लेकिन ये राज्य सरकारें ही हैं जिन्होंने इस संकट और इसके चलते आई आर्थिक बदहाली से प्रभावित लोगों की आगे बढ़कर मदद की है. यह भरोसा पैदा करने वाली बात है कि भारत में विभिन्न स्तरों पर कितनी मजबूती है यह सामने आ रहा है. मीडिया के संत्रस्त होने या चियर लीडर की भूमिका में आने के प्रमाण के बावजूद इसमें शक नहीं कि प्रवासी मजदूरों के सैकड़ों मील दूर अपने गांवों-घरों की ओर पैदल चल देने की व्यापक रिपोर्टिंग के बाद ही सरकार ने उनके खाने-पीने और परिवहन का इंतजाम किया. उम्मीद है कि लोग अपने घर पहुंच सकेंगे, वहां रहकर कामधाम कर सकेंगे, जब तक कि स्थिति सामान्य नहीं हो जाती.
‘जे-ए-एम’ (जनधन-आधार-मोबाइल तिकड़ी) का फार्मूला निश्चित ही कारगर हुआ है. जब कि ‘आधार’ को लोगों तक लाभ पहुंचाने के साधन से ज्यादा सरकारी नियंत्रण के औज़ार के रूप में देखा जाने लगा था, इसने अपना महत्व साबित कर दिया है क्योंकि वित्त मंत्री ने नकदी सहायता की जो घोषणा की है वह इस ‘जे-ए-एम’ (जनधन-आधार-मोबाइल तिकड़ी) के बिना दे पाना काफी मुश्किल होता. इस व्यवस्था को बिलकुल दुरुस्त नहीं कहा जा सकता (अनुभव से स्पष्ट है कि इससे अलग-थलग रहने से प्रभावित लोगों का संकट बढ़ता है), लेकिन अपनी खामियों के बावजूद यह बड़ी व्यवस्थागत पूंजी है.
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कुछ कमजोरियां भी उभरकर सामने आई हैं, मसलन मेडिकेयर सिस्टम की सीमित क्षमताएं. ये दशकों से स्पष्ट थीं. जानकार लोग ज़ोर देते रहे हैं कि कुछ विकास हासिल करने का दावा करने वाले देशों के विपरीत भारत में मेडिकल खर्च का बड़ा भाग निजी स्तर पर उठाया जाता है, सरकार की उसमें बेहद छोटी भूमिका होती है. हमारी अधिकतर सरकारों ने इस खामी को दूर करना महत्वपूर्ण नहीं माना, ताकि 1.3 अरब लोगों की जरूरतों को पूरा करने लायक सक्रिय सरकारी स्वास्थ्य सेवा इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार हो. भारत में कोविड-19 के मामले जिस दर (पिछले दो सप्ताह में ये मामले 70 से 10 गुना बढ़कर 700 से ऊपर हो गए) से बढ़ रहे हैं उसी दर से बढ़ते रहे तो जाहिर है कि व्यवस्था चरमरा जाएगी. निजी क्षेत्र की क्षमताओं— मसलन जांच और निदान की सुविधाओं, सुरक्षा के साजो-सामान के उत्पादन, वेंटिलेटरों की आपूर्ति आदि— को साथ लेने में देर की गई. उम्मीद की जानी चाहिए कि भावी स्वास्थ्य बजट से यह संकेत मिलेगा कि क्या कुछ किया जाना है इसका एहसास हो गया है.
देश की वित्तीय स्थिति पर जो दबाव है उसने भी अवरोध का काम किया है. घाटा लंबे समय से ऊंचे स्तर पर बना हुआ है, इस कारण राष्ट्र पर ऋण भी बेहद ऊंचा है (हालांकि बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में यह उनकी जीडीपी के अनुपात में जितना है उससे यहां कम है), इसलिए सरकार को जरूरत की मांग के हिसाब से खर्च करने के मामले में काफी सोच-विचार करना पड़ता है. यही वजह है कि वित्त मंत्री ने 1.7 लाख करोड़ रुपये के जिस पैकेज की घोषणा की है वह दुनिया में सबसे छोटा पैकेज है. एक जानकार के मुताबिक इसमें केवल 0.6 लाख करोड़ ही नयी रकम है.
इस काले दौर को गुजरने में हफ्तों, महीनों लग सकते हैं और इसके चलते कुछ स्थायी परिवर्तन हो सकते हैं. बाकी देशों की तरह भारत की आर्थिक वृद्धि दर में भी भारी गिरावट के अनुमान लगाए जा सकते हैं और इसकी बेरोजगारी, आवश्यक जरूरतों के लिए सरकारी संसाधन के सीमित होने जैसी कीमतें चुकानी पड़ सकती हैं. वैसे, यह समस्या भारत ने नहीं पैदा की है.
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